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Saturday, July 31, 2021

सूरह फ़ातिहा का दिव्य अनुवाद आपका और आपके परिवार का और पूरे समाज का कल्याण कैसे करता है?

 मनुष्य इस धरती पर कब और कैसे आया?

इस पर कुछ मान्यताएं हैं और कुछ लोग खोज कर रहे हैं लेकिन यह मनुष्य इस धरती पर जब और जैसे आया, आज वह इस धरती पर मौजूद है।

प्राचीन काल में हिंसक जंगली जानवर मनुष्यों को खा जाते थे। उनसे रक्षा के लिए मनुष्य समूह में रहने लगे और हर समूह ने अपना एक मुखिया बना लिया। इसके बाद ये मुखिया ही हमारी समस्या बन गए। ये मुखिया दूसरों को ग़ुलाम बनाने के लिए दूसरे समूह के मनुष्यों को मारने लगे। मनुष्यों ने युद्धों में इतने मनुष्य मार डाले, जितने जंगली जानवरों ने नहीं मारे थे। मनुष्यों ने मनुष्यों की खोपड़ी में कीलें ठोंकी, हाथ-पैर काटे और आँखों में तेज़ाब डाल दिया। आज भी लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने की घटनाएं हो रही हैं। अच्छे-भले घर की लड़कियों को म्यूज़िक पार्टी और वेब सीरीज़ में काम देने के बहाने वेश्यावृत्ति की दलदल में धकेलने वाले भी जब तब प्रकाश में आते रहते हैं। जो अच्छे वकीलों (?) की सेवाएं लेते हैं। अच्छा वकील सेटलमेंट अच्छा करा देता है। गवाह ख़रीद लिए जाते हैं या डरा दिए जाते हैं और मुजरिम अपने जुर्मों की सज़ा से बच जाते हैं।

ताज़ा हालात की चर्चा करें तो चीन ने अपनी लैब से जो कोरोनावायरस छोड़ा है या उसके आरोप के मुताबिक़ अमरीकी सैनिकों ने वुहान में खेल के दौरान कोरोनावायरस छोड़ा है; उससे भारत में लाखों लोग मारे गए और प्रोडक्शन ठप्प हो गया। लोग बेरोज़गार हो गए। जिससे भारत कमज़ोर हुआ। सूचनाओं के अनुसार चीन पहले ही भारत-चीन सीमा पर इतनी युद्ध सामग्री इकठ्ठा कर चुका है, जो 2 साल से ज़्यादा चलेगी। यह सब युद्ध का एक सुनियोजित षड्यंत्र हो सकता है।

आज आदमी को किसी जानवर से नहीं बल्कि आदमियों से ख़तरा है।

पहले यह माना जाता था कि जब मनुष्य शिक्षित होगा और विज्ञान पढ़ लेगा, तब सब ठीक हो जाएगा। वैज्ञानिक बनकर आदमियों ने एटम बम बना लिए, जैविक और रासायनिक बम बना लिए। आधुनिक शिक्षा पाकर आदमी ने ज़्यादा आदमियों को मारने की शक्ति हासिल कर ली है और यह शक्ति लगातार बढ़ रही है।

आदमी अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित है।

यही सवाल आदमी के सामने पहले दिन था और यही आज है। इस बेसिक सवाल की अहमियत समझें!

पिछली पोस्ट से जोड़कर आगे पढ़ें:

मनुष्य ने खाल से शरीर ढका और बाद में कपड़े बनाए। मक़सद शरीर को बचाना था।

मनुष्य ने गुफ़ा में पनाह ली। बाद में पेड़ पर घर बनाए। आगे चलकर गांव और शहर बसाए। मक़सद परिवार को जानवर, डाकू और मौसम से बचाना था।

मनुष्य ने जंगल से फल चुने और शिकार किया। बाद में पशु पाले और फ़सल उगाई। मक़सद अपने परिवार को भोजन देना था। आज भी कोई सैनिक ईमानदारी से अपनी जान हथेली पर लिए सरहद पर खड़ा है तो वह अपनी सैलरी अपने परिवार को भेजता है और जो डाकू चम्बल में पड़े रहते थे, वे भी लूट का माल अपने परिवारों को भेजते थे।

लिबास, मकान, शिकार, फ़सल, सैलरी और लूट यह सब करने का मक़सद अपनी और अपने परिवार की हिफ़ाज़त है।

जितने भी धर्म और दर्शन हैं, सबने व्यक्ति और उसके परिवार के कल्याण को केंद्र में रखा है।

आप जब अपने धर्म पर चलना शुरू करें तो सबसे पहले यही देखें कि इस धर्म के नियमों पर चलकर आपका और आपके परिवार का भला हो रहा है या नहीं?

दीन-धर्म का केंद्रीय विषय मनुष्य का व्यक्तिगत और उसके परिवार का और पूरे समाज का, ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों का, औरतों, बच्चों, अनाथों, बेघरों और क़र्ज़दारों का कल्याण करना है।

दीन-धर्म का जो आलिम/गुरु इन विषयों पर काम न करे और दूसरी जानकारियां बहुत दे कि एक बार यह हुआ था और उसने यह किया था और मरने के बाद यह होगा।

आप उसे दूसरे लोगों के लिए छोड़ दें, जिन्हें दीन-धर्म की सही समझ नहीं है।

जो आलिम/गुरु आपका दिल दुनिया से उचाट कर दे, आपके मन में वैराग्य जगा दे कि जगत निस्सार है, दुनिया में कुछ नहीं रखा; आप जान लें हमें पिछड़ा और निर्धन बनाने वाले यही लोग हैं। ये दुनिया के किसी पद पर पहुंचने का जोश ही ख़त्म कर देते हैं। ये लोग अपने लिए ठीक हैं कि अपनी ज़िंदगी चाहे जितनी इबादत, रोज़े और ज़िक्र में खपा दें लेकिन ये लोग आपके कल्याण के लिए ठीक नहीं हैं क्योंकि आपका लौकिक कल्याण इनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता। 

आपकी कमाई हो रही है या नहीं?, आपके बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं?, आपका परिवार बदमाशों के हमले से सुरक्षित है या नहीं?, ये लोग इन अहम मसलों पर तवज्जो नहीं देते। 

अल्लाह आपके लौकिक कल्याण (दुनिया में फ़लाह wellness) के लिए आपसे कहता है कि 

'दुनिया में से अपना हिस्सा न भूल'

“जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है उससे परलोक का घर बनाने का इच्छुक हो और दुनिया में अपना हिस्सा मत भूल और भलार्इ कर जैसे कि अल्लाह ने तेरे साथ भलार्इ की है और ज़मीन में बिगाड़ न चाह, यक़ीनन अल्लाह  जमीन में बिगाड़ व फ़साद करने वालों को पसन्द नहीं करता”। 

-(क़ुरआन 28 : 77)

मैंने बचपन में देखा है कि देश में कुछ नफ़रती बुड्ढे ऐसे थे जो इस्लाम के प्रति नफ़रत की बातें करते थे। वे थोड़े से लोग थे। कोई उनकी बात सुनता न था।

अब वही नफ़रत मैं फ़ेसबुक पर नौजवानों की पोस्ट और कमेन्ट में देखता हूं। अपने धर्म की रक्षा के नाम पर नफ़रती बुड्ढे भी फ़ेसबुक पर भड़काऊ भाषण देते हुए देखे जा सकते हैं।

इसमें थोड़ी सी ग़लती मुस्लिम धर्मगुरुओं की भी है।

हरेक देश के लोगों को अपनी भाषा समझ में आती है और बचपन से सुन सुन कर उससे उन्हें विशेष प्रेम भी हो जाता है। वे बचपन से अपने धर्मगुरुओं से यह भी सुनते आए हैं कि 'सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका आज्ञापालन ही मनुष्य का धर्म है।'

यह बात उन्हें ज्ञान की बात लगती है और यह बात सुनकर, वे इसकी मज़ाक़ नहीं उड़ाते।

इसी बात को अरबी में एक शब्द में 'इसलाम' कहते हैं।


इसलाम=सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका आज्ञापालन ही मनुष्य का धर्म है।


हिंदी जानने वाले अरबी के किसी शब्द या नाम की मज़ाक़ उड़ाने से पहले यह ज़रूर देख लें कि उसका क्या अर्थ है?

हो सकता है कि वही बात उनके धर्म में कही गई हो और वे अज्ञान के कारण अपने ही धर्म की शिक्षा की मज़ाक़ उड़ा रहे हों।

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दीन-धर्म में दूसरों के धर्म की मज़ाक़ उड़ाने की शिक्षा नहीं दी जाती। यह शिक्षा धर्म के नाम पर लड़ाने वाले बुड्ढे देते हैं और ये दूसरों के बच्चों को झगड़ों के लिए उकसाते हैं। इसे देखकर जो लोग इन्हें चंदा देते हैं, उससे ये अपने लड़के-लड़कियों को विदेश में पढ़ाते हैं। जहाँ गर्लफ़्रेंड-ब्वायफ़्रेंड कल्चर आम है। जहाँ हरेक रेस्टोरेंट में माँस पकता है और एक ही चम्मच सब बर्तनों में चलता है। ये लोग अपने धर्म के प्रति सच्चे होते तो ये अपने बच्चों को ब्रह्मचर्य खंडित और धर्म भ्रष्ट करने वाले वातावरण में न भेजते। जब आप जागरूकता के साथ देखेंगे तो आप पाएंगे कि नफ़रत इनकी दुकान का माल है। जिसकी सप्लाई से ये‌ बिना हाथ पैर हिलाए दौलत खींचते हैं। दौलत जमा करके ये ख़ुद को शक्तिशाली बनाते हैं। वास्तव में सारा झगड़ा ख़ुद को शक्तिशाली बनाने का है, न कि धर्म रक्षा का।

जो लोग भूखे को भोजन, अनाथ को सहारा, बीमार को दवा और पीड़ित को न्याय देने का काम करते हैं, वास्तव में वे धर्म की रक्षा करते हैं। जो ये काम नहीं करता, वह धार्मिक नहीं है, पाखंडी है।

आप धर्म और पाखंड में अन्तर करना सीखें।

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संकीर्णता, अज्ञानता और नफ़रत के कारण मोबाईल जेनरेशन के कुछ पढ़े लिखे नौजवान #अल्लाह को मुस्लिमों का परमेश्वर मानकर मज़ाक़ उड़ाते देखे जा रहे हैं। कुछ नौजवान और अधिक हद से गुज़रते हैं तो वे गालियाँ भी देने लगते हैं। कुछ लोग #पवित्र_क़ुरआन के विरुद्ध दुख देने वाली बातें बोलते हैं। वे यह काम करके ख़ुद को #राष्ट्रभक्त दिखाते हैं।

अगर आप इन्हें समझाएं कि इस काम से आप सामाजिक सद्भाव बिगाड़ रहे हैं, जो राष्ट्र-हित में नहीं हैं तो भी वे आपकी बात मानने वाले नहीं हैं।


मैं संकीर्णता, अज्ञान और नफ़रत से ग्रस्त युवाओं से यह आग्रह नहीं करता कि वे निष्पक्ष होकर कंटेट देखें और फिर न्यायपूर्वक विचार करें कि सत्य क्या है?

क्योंकि वे ऐसा करने में अक्षम बना दिए गए है। उन्हें यह समझाया गया है कि क़ुरआन बर्बर अरबों ने ख़ुद ही लिख लिया और उसमें दूसरे धर्म वालों को मारने की बातें लिख लीं और वृद्ध यति तो यहां तक कह चुके हैं कि 'मैं तो मुस्लिमों को मनुष्य ही नहीं मानता।'

मैं ऐसे विकट हालात में वृद्ध यति से तो निष्पक्षता और न्यायपूर्वक विचार की आशा नहीं करता क्योंकि वह सत्य को एक आम मुस्लिम से बेहतर जानते हैं लेकिन वह यह सब एक व्यूह रचना के कारण करते हैं। वह सब कुछ जानते हुए भी अपने चुने हुए मार्ग पर ही आगे बढ़ेंगे लेकिन अधिकतर युवाओं को सत्य का ज्ञान देकर भ्रम से मुक्त किया जा सकता है। मुस्लिम उन्हें उनकी भाषा में पवित्र क़ुरआन का संदेश सही सही समझाएं।

हल:

इसका हल यह है कि आप उनके मनोविज्ञान को समझते हुए उनकी डिक्शनरी में बात करें। वे अल्लाह का सम्मान नहीं करते लेकिन वे परमेश्वर का सम्मान ही नहीं बल्कि उसका ध्यान भी करते हैं। उससे प्रार्थना भी करते हैं।

आप क़ुरआन की आयतों में अल्लाह नाम की जगह परमेश्वर लिखकर पेश करें और #संस्कृतनिष्ठ #हिन्दी में आयतों का अनुवाद करें तो उन्हें उसमें 'ज्ञान' और 'अपनत्व' का दर्शन होगा। तब अधिकतर युवा परमेश्वर से और परमेश्वर की वाणी से नफ़रत नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके माइंड को उनके धर्मगुरुओं ने #संस्कृत और क्लिष्ट हिंदी बोल बोल कर प्रोग्राम्ड कर दिया है कि

ज्ञान ऐसा होता है और इस भाषा शैली में होता है।

आपको उनसे कोई सत्य बात मनवानी है तो आपको उनके #अवचेतन_मन में उसी भाषा शैली में बात पहुंचानी होगी, जिसे वे #दिव्य मानते हैं।

#atmanirbharta_coach  का ऑफ़र:

अगर आप पसंद करें तो मैं आपको सूरह फ़ातिहा का एक ऐसा अनुवाद तैयार करके दिखा सकता हूँ।

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बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम

उर्दू अनुवाद: शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है।

इस अनुवाद के शब्द एक वर्ग को अजनबी लगते हैं और उनमें से कुछ उर्दू भाषा से बिदकते हैं। इसलिए जब आप हिंदी भाषियों में क़ुरआन की कोई बात समझाएं तो इस तरह के उर्दू अनुवादों से बचें।

इसके बजाय आप उन्हें दिव्य अनुवाद की भाषा में बात समझाएं:

#बिस्मिल्लाह का #दिव्य_अनुवाद

'अनंत दयावान सदा करूणाशील मनमोहन परमेश्वर के नाम से।'

अब नफ़रत करने वाले संकीर्ण, अज्ञानी युवाओं को इस अनुवाद में कोई ऐसी बात नज़र न आएगी, जिससे वे बिदकें या जिसे वे अपने हंसी-ठठ्ठे का विषय बना सकें या जिसे ग़लत बता सकें।

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#अल्लाह शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। मेरी नज़र में सबसे सही बात यह है कि आलिमों ने पवित्र #क़ुरआन और हदीसों में आए अल्लाह के 450 सिफ़ाती (सगुण) नाम जमा किए हैं। उन सबको पढ़कर जो सेंस बनता है, वह सेंस 'अल्लाह' नाम का अर्थ है।

फिर भी जो लोग अल्लाह नाम का अर्थ 'हक़ीक़ी माबूद' अर्थात 'स्तुति और उपासना का वास्तविक अधिकारी' बताते हैं, वह भी ठीक है।

#मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह को #हिंदी भाषा से विशेष प्रेम था। उन्होंने #पवित्र_क़ुरआन की कुछ आयतों का हिंदी में अनुवाद किया तो उन्होंने अल्लाह नाम का भी हिन्दी में अनुवाद किया है 'मनमोहन'

और यह अर्थ भी ठीक है।

मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान #गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह उस #अंग्रेज़ी दौर के आलिम हैं, जिसमें देवबंदी और बरेलवी जुदा न थे, एक थे और सब मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह को बहुत बड़ा आलिम मानते थे और अब तक मानते हैं।

उनके अनुवाद और संकलन का नाम है मनमोहन की बातें यानी 'अल्लाह की बातें'

#मिशनमौजले रब के नाम से मौज लेना सिखाता है।

पिछली पोस्ट से आगे...

पवित्र क़ुरआन की पहली आयत शुक्र की शिक्षा देती है, जो कि वास्तव में इंसान का मक़सद है और इसी के लिए इंसान को पैदा किया गया है और यहां इसे ज़िंदगी और नेमतें देकर शुक्र का प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इसी बात की परीक्षा ली जा रही है कि क्या इसने इंसान होने का मूल स्वभाव डिस्कवर कर लिया है कि इस नेचर में 'मैं हूँ' तो मेरे होने की कोई वजह है क्योंकि यहां जो भी चीज़ है, किसी वजह से है। मेरे होने की वजह शुक्र है। मैं शुक्र करता हूँ तो मैं यहाँ फलूँगा और मैं नाशुक्री करूंगा तो कष्ट में पडूंगा और फिर भी शिक्षा लेकर अपना स्वभाव न सुधारा तो यह नेचर मुझे अपने कचरा फेंकने वाले गड्ढे में धकेल देगी और फिर उस कचरे को जला दिया जाएगा। 

मैंने ये बातें पैग़म्बर साहब मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीसों में और इस्लाम के आलिमों और सूफियों की किताबों में पढ़ी हैं। इब्ने तैमिया रह० ने 'सब्र और शुक्र' नाम से एक बहुत प्यारी किताब लिखी है। जिसमें इस विषय पर क़ुरआन की आयतों और हदीसों को जमा कर दिया है। इसके अलावा भी आलिमों ने बहुत सी उर्दू-फारसी और अरबी किताबों में इंसान को शुक्र के विषय में बताया है।

आम तौर से अपनी आदत की वजह से मैं और आप किसी को सूरह फ़ातिहा की पहली आयत समझाना चाहेंगे तो उसकी व्याख्या में नबियों की और आलिमों की बातें लिख देंगे। मुस्लिमों को समझाना हो यो यह तरीक़ा परफ़ेक्ट है क्योंकि मुस्लिमों को उनमें विश्वास है।

... लेकिन इस्लाम से नफ़रत करने वालों को समझाना हो तो यहाँ एक गड़बड़ हो जाती है। यहाँ पैग़म्बर साहब का नाम आ जाता है और उनके दिल में पैग़म्बर साहब से नफ़रत और दुश्मनी डाल रखी है। यहां हज़रत अबू बक्र र० और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का नाम आ जाता है, जिन्हें मैं और आप सबसे ज़्यादा ज्ञानी मानते हैं। उन्हें नफ़रती इंसान बर्बर, जाहिल और ज़ालिम मानता है, नऊज़ूबिल्लाह!

यहाँ इब्ने तैमिया का या इमाम राज़ी का नाम आ जाता है, जिन्हें वह जानता ही नहीं है। जिन्हें वह नहीं जानता, उन्हें वह ज़र्रा बराबर सम्मान नहीं देता और जिन्हें वह सम्मान नहीं देता, वह उनकी बात मानेगा क्यों?

इसलिए जब आप क़ुरआन की किसी आयत को समझाने चलें तो यह देख लें कि इस नफ़रत के रोगी की अक़्ल किस गुरू के पास बंधक पड़ी है?

फिर आप उसी गुरू के हवाले से शुक्र की इम्पोर्टेंस समझाएंगे तो आपकी बात उसकी समझ में आ जाएगी। उसे ऐसा लगेगा जैसे कि यह बात तो वह पहले से जानता और मानता है क्योंकि वह उस बात को अपने गुरूजी की किताब में पढ़ चुका है।  उसके गुरूजी इंग्लिश लिट्रेचर में वह बात पढ़कर अपनी भाषा में उसे 'आत्मसात' करके अपने शिष्यों के सामने परोस चुके हैं और यह भी कह चुके हैं कि हम तो सदा से (सनातन) यही मानते आए हैं। जब यहाँ फ़ारसी का दौर था, तब गुरुओं ने मौलाना रूमी और शैख़ सादी का साहित्य अपनी भाषा में रूपांतरित कर लिया। अमिताभ बच्चन के पिताजी हरिवंशराय बच्चन ने हाफ़िज़ के दीवान के कांसेप्ट का एक रूपांतर 'मधुशाला' के नाम से तैयार किया। जिसकी वजह से आज साहित्य में उनकी पहचान है और मधुशाला 'दीवाने हाफ़िज़' के सामने एक घटिया स्तर का साहित्य है। ये बातें केवल आपके समझने के लिए हैं, किसी मनोरोगी से कहने की नहीं हैं।

कहने का मक़सद यह है कि इस्लाम की कितनी ही शिक्षाओं का रूपांतरण करके वे उन्हें अपनी किताबों में जगह देकर मान चुके हैं और अपने शिष्यों से मनवा चुके हैं। जैसे कि 'बराबरी और भाईचारे' को हिंदी में 'समता और समरसता' का शीर्षक दे चुके हैं। काम की बातें गुरु जी ले चुके हैं और लगातार ले रहे हैं और उसे संस्कृतनिष्ठ हिंदी का रंग देकर यह दिखाते हैं कि यह सनातन है। वे आपका एहसान नहीं लेना चाहते। इसलिए वे आपका नाम नहीं देते कि यह बात हमने इनसे सीखी है। इससे उनकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगता है कि तुच्छ बर्बर अज्ञानी विदेशियों के पास भला ज्ञान की ऐसी कौन सी बात हो सकती है, जिसे सब विद्याओं को यथावत जानने वाले हम जैसे प्राचीन लोग उनसे सीखें?

यह दिखावा करते करते वे चुपचाप सीखते रहते हैं।

वे इसे ज़ाहिर नहीं करते कि वे आपसे सीख रहे हैं।

आप भी ज़ाहिर न करें कि आप उन्हें कुछ सिखा रहे हैं। 

सारा मसला ' फ़ाल्स ईगो' अर्थात् तामसिक अहंकार का है।

आप उनके गुरुओं की किताबें पढ़ें। आपको उसमें शुक्र की शिक्षा भरी हुई मिल जाएगी। जब आप उनके गुरूजी के नाम के साथ उनके शब्दों में शुक्र का महत्व और उसके लाभ बताएंगे तो वे आपकी बात मानेंगे क्योंकि वास्तव में वह आपकी बात नहीं बल्कि अपने गुरु जी की बात मान रहे है। वे अपने धर्म की बात मान रहे हैं।

यानी कि आपको घुमाकर नाक पकड़नी है।

कैसे पकड़नी है यह हम आपको आगे बताएंगे।

///

*पिछली पोस्ट से आगे... एक अहम पोस्ट*

इस्लाम से नफ़रत करने वाला किस गुरू से मुहब्बत करता है?

नफ़रत करने वाला मनोरोगी किस टाईप का है?

आसानी के लिए इन्हें 3 प्रकार का मान सकते हैं। 

1. धर्मग्रंथों में आस्था रखने वाला व्यक्ति। यह धर्म की हरेक परंपरा का चाहे पालन न‌ करे लेकिन यह उन सबका समर्थन करेगा और उनके वैज्ञानिक लाभ बताएगा। यह यज्ञ के धुएं से वायु का शुद्ध होना और पीपल द्वारा 24 घंटे आक्सीजन छोड़ना बताएगा। यह औरतों की नाक छेदने तक के वैज्ञानिक लाभ बता देगा। आम तौर से इस तरह के लोग अपने मुहल्ले के पंडित जी तक के शिष्य हो सकते हैं। इनका स्टैंडर्ड ज़्यादा ऊंचा हुआ तो ये बाबा रामदेव तक आ जाते हैं। इन्हीं में के कुछ लोग श्री श्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी जी के समूह में मिलते हैं। 

2. दूसरे नास्तिक व्यक्ति। ये कहते हैं कि हरेक धर्मग्रंथ को जला देना चाहिए। मैंने ऐसे लोगों के घरों में ओशो रजनीश की किताबें सम्मान के साथ रखी देखी हैं। ये सब धर्मगुरुओं को मूर्ख समझते हैं। ये समझते हैं सब धर्मगुरू लूटने को बैठे हैं। ये पहले से चली आ रही धार्मिक व्यवस्था के नास्तिक होते हैं और जटिल कर्मकांड नहीं करते। फिर भी आध्यात्मिकता की बातें करते हैं और किसी न किसी गुरू को वही दर्जा देते हैं, जो दूसरे लोग परमेश्वर को देते हैं। यानी कि वास्तव में ये नास्तिक नहीं होते। ये ख़ुद को बहुत प्रबुद्ध मानते हैं। 'वेद में यह लिखा है' सुनकर ये कुछ नहीं मानते।

3. इस ग्रुप में इन दो अतियों के बीच के सब लोग आते हैं।

जब आप उनके घर जाएंगे तो वहाँ उनके श्रृद्धेय आदरणीय गुरूजी की बहुत बड़ी तस्वीर लगी होगी। जिससे आप पहचान लेगे कि यह इस गुरू की बात को ज्ञान की बात मानता है। तब उसी गुरू की बात का हवाला प्रमाण के रूप में दे सकते हैं कि इन गुरू जी ने भी शुक्र के गुण को एक बहुत बड़ा गुण माना है। तब वह मानेगा कि हाँ, शुक्र करने से कल्याण होता है। हमारा मक़सद भी यही है कि जो हमसे नफ़रत करता है, उसका कल्याण हो जाए। उसका कल्याण करने के लिए ही यह सब स्टडी की जा रही है।

अब हम मिसाल दे रहे हैं। आप इसी माडल पर आगे ख़ुद बहुत कुछ कर सकते हैं:

*अहोभाव के साथ समस्त स्तुतियाँ सब जगतों के सृष्टा, पालनहार और परिणाम के दाता मनमोहन‌ परमेश्वर ही के लिए हैं।*

-#दिव्य_आनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत नंबर 1

व्याख्यान: 

1. शिकायत नहीं अहोभाव में जियो 

अहोभाव की इस दशा को थिर रखना, इससे बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। अहोभाव से बड़ा कोई सेतु नहीं है परमात्मा से जोड़ने वाला। 

जो कृतज्ञ है वह धन्यभागी है। और जितने तुम कृतज्ञ होते चलोगे उतनी ही वर्षा सघन होगी अमृत की। इस गणित को ठीक से हृदय में सम्हाल कर रख लेना।

जितना धन्यवाद दे सकोगे उतना पाओगे। शिकायत भूलकर न करना। 

और ऐसा नहीं है कि शिकायत करने के अवसर न आएंगे। मन की अपेक्षाएं बड़ी हैं, तो हर पल हर कदम पर शिकायतें उठ आती हैं; ऐसा होना था, नहीं हुआ। जब भी ऐसा लगे कि ऐसा होना था नहीं हुआ, तभी स्मरण करना कि भूल होती है; क्योंकि शिकायत अवरोध बन जाती है।

शिकायत का अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा पर अपनी आकांक्षा आरोपित करना चाहते हो।

और ऐसा मत सोचना कि शिकायत तुमसे न होगी, जीसस जैसे परम पुरुष से भी शिकायत हो गई थी। आखिरी घड़ी में सूली पर लटके हुए एक क्षण को निकल गई थी पुकार, आकाश की तरफ सिर उठाकर जीसस ने कहा था. 'हे प्रभु, यह तू क्या दिखला रहा है ???

 सोचा नहीं होगा कि सूली लगेगी। सोचा नहीं होगा कि परमात्मा इस तरह से असहाय छोड़ देगा। पर तत्थण अपनी गलती पहचान गए, फिर आंखें झुका लीं और क्षमा मांगी और कहा. तेरी मर्जी पूरी हो! 

तू कर रहा है तो ठीक ही कर रहा होगा।

और इतना ही फ़ासला है अज्ञान और ज्ञान में। इतना ही फासला है अंधेरे में और प्रकाश में।

इतना ही फासला है भटके हुए में और पहुंचे हुए में। बस इतने से फासले में सारी घटना घट गई; जरा—सी कमी रह गई थी, वह भी पूरी हो गई। जो तेरी मर्जी हो!

अहोभाव को बनाए रखना। 

उसकी तरफ से थोड़ा—सा भी प्रकाश मिले, नाचना, मस्त होना। 

ऊर्जा उठे, धन्यवाद में बह जाना। 

और उठेगी ऊर्जा। और फूल खिलेंगे। 

जितना तुम्हारा धन्यवाद का भाव बढ़ेगा, उतने ही फूलों पर फूल खिलेंगे।

-ओशो

मराै है जोगी मरौ-(प्रवचन-16)

2. आभारी होना या शुक्रिया अदा करना या कृतज्ञता आखिर है क्या? अगर हम अपनी आंखें खोलकर अपने आसपास नजर डालें और देखें कि हमें जिंदगी में जो कुछ भी हासिल हो रहा है, उसमें किन-किन चीजों और लोगों का योगदान है, तो हम उन सबके प्रति आभारी हुए बिना नहीं रह पाएंगे। जैसे आपके सामने खाने की थाली आ जाती है। क्या आपको पता है कि उस रोटी को तैयार करने में कितने लोगों का योगदान है? बीज बोने और फसल तैयार करने वाले किसान से लेकर अनाज बेचने वाले और फिर उसे ख़रीदने वाले दुकानदार तक और फिर दुकान से खरीदकर रोटी बनाने वाले तक, जरा सोचिए कि एक बनी-बनाई रोटी के पीछे कितने लोगों की मेहनत और योगदान छिपा है।

ठीक इसी तरह से आप जिंदगी के हर पहलू पर गौर करें, आपको हर पल मिल रही सांस से लेकर भोजन तक और आपको हासिल होने वाली हर चीज़, जिसका आप आनंद ले रहे हैं या अनुभव कर रहे हैं, पर गौर कीजिए। अब आप यह मत सोचिए कि हमने पैसे चुकाए और उसके बदले में यह चीज मिली तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। अगर एक प्रक्रिया की पूरी कड़ी में जुड़े लोगों ने अपना-अपना काम नहीं किया होता, तो आप चाहे जितने भी पैसे खर्च कर लेते, आपको वो सब नहीं मिल सकता था, जो मिल रहा है। जरा अपनी आंखें खोलिए और यह देखिए कि किस तरह संसार में मौजूद हर प्राणी आपके भरण पोषण में सहयोग दे रहा है। अगर आप यह सब देख पाएंगे तो फिर आपको कृतज्ञ महसूस करने के लिए कोई नजरिया  विकसित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कृतज्ञता कोई नजरिया नहीं है; कृतज्ञता एक ऐसा झरना है, जो उस समय खुद ब खुद फूट पड़ता है, जब कुछ प्राप्त होने या मिलने पर आप अभिभूत हो उठते हैं। असीम कृतज्ञता से भरा एक क्षण भी आपके पूरे जीवन को बदलने के लिए काफी है। अगर यह एक नज़रिया है तो फिर यह ठीक नहीं है, क्योंकि कृतज्ञता सिर्फ ‘धन्यवाद’ कह देना भर नहीं है।

कृतज्ञता कोई नज़रिया नहीं है; कृतज्ञता एक ऐसा झरना है, जो उस समय खुद ब खुद फूट पड़ता है, जब कुछ प्राप्त होने या मिलने पर आप अभिभूत हो उठते हैं। असीम कृतज्ञता से भरा एक क्षण भी आपके पूरे जीवन को बदलने के लिए काफी है।

दूसरे शब्दों में, अस्तित्व में जितनी भी चीज़ें फ़िलहाल मौजूद हैं, सभी आपको जीवित और सुरक्षित रखने के लिए आपस में मिलकर काम कर रही हैं। अगर आप अपने जीवन के सिर्फ एक घटनाक्रम पर ध्यान दें, तो आप उन सब लोगों व चीज़ों के प्रति कृतज्ञ हुए बिना नहीं रह पाएंगे, जिनका आपकी ज़िंदगी से कोई लेना देना नहीं है, फिर भी वे आपके जीवन को हर पल कितना कुछ देते रहे हैं।

जब आप नज़र दौड़ाकर और देखेंगे कि आपकी जिंदगी दरअसल कैसे चल रही है, तो आप कृतज्ञ हुए बिना कैसे रह सकते हैं? अगर आप यह समझकर बिंदास जिंदगी जी रहे हैं कि आप इस दुनिया के राजा हैं, तो फिर हर चीज को खो रहे हैं। हां, अगर आप बहुत ज्यादा अपने आप में या अपने अहम् में डूबे हुए हैं तो फिर आप जीवन की इस संपूर्ण प्रक्रिया को चूक सकते हैं, वरना अगर आप ध्यान से देखेंगे तो सब कुछ आपको अभिभूत कर देगा। अगर आप कृतज्ञ हैं, तो आप ग्रहणशील भी होंगे। अगर आप किसी के प्रति आभारी होते हैं तो आप उसकी ओर आदर भाव से देखते हैं। जब आप किसी चीज को आदर भाव से देखते हैं तो आप और अधिक ग्रहणशील हो जाते हैं। योग का मक़सद भी यही है। आपको बहुत गहराई में ग्रहणशील बनाना है, जिनके बारे में आप अब तक जानते भी नहीं। इसलिए कृतज्ञता से अभिभूत हो जाना ग्रहणशील होने का एक ख़ूबसूरत तरीक़ा है। आपकी सीमाओं का इससे कुछ हद तक विस्तार होता है।

अगर कोई चीज़ दी जाती है तो उसे लेने वाला भी होना चाहिए। अगर इस दुनिया में हर कोई पूरी तरह से ग्रहणशील बन जाता है तो मैं पूरी दुनिया को एक ही पल में प्रबुद्ध कर दूंगा। लेकिन लोगों को ग्रहणशील बनाना ही सबसे मुश्किल काम है। अगर वे अपनी ग्रहणशीलता पर ख़ुद काम करें, तो उनको वह देना बड़ा आसान है, जो वे चाहते हैं। अगर कोई भूखा है, तो उसे खाना खिलाना कोई मुश्किल काम नहीं। लेकिन किसी के अंदर भूख जगाना बेहद मुश्किल काम है।

-जग्गी जी


अर्रहमानिर्-रहीम.

उर्दू अनुवादः

बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला.

दिव्य अनुवादः

अनंत दयावान सदा करूणाशील।

सूरह फ़ातिहा की आयत नंबर 2

नोटः रहमान उसे कहते हैं जिसमें रहम हो और रहीम उसे कहते हैं जो रहम करता है और सदा करता है। 

रहमान नाम में जोश है। जैसे समुद्र में जोश आता है तो उसकी ऊँची- ऊँची लहरें आसमान की तरफ़ उठती हैं। आज भी हम पर सूरज की रौशनी पड़ रही है और हम पर बादल बरस रहे हैं और धरती की गुरूत्वाकर्षण शक्ति हमारे क़दम अपने ऊपर जमाए हुए है और असंख्य सौर मंडल निरंतर उचित गति और उचित दूरी से घूम घूम कर हमारे जीवन को सम्भव बनाए हुए हैं तो यह हमारे किसी अच्छे कर्म का फल नहीं है बल्कि यह मनमोहन परमेश्वर की अनंत दया और सदा बरसने वाली करूणा के कारण है। जिसे हम हर पल देख सकते हैं। अगर हमें इन वरदानों से अपने पैदा करने वाले की दया और करूणा का एहसास हो और हम उसके शुक्रगुज़ार हों तो ही हम मानव या इंसान कहलाने के हक़दार हैं। जिसकी शिक्षा हमें सूरह फ़ातिहा की पहली आयत में मिलती है।

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(हे!) विधान दिवस के स्वामी! (अर्थात् विधान के अनुसार कर्मफल के दाता!)

-दिव्य अनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत 3

हर आदमी अपने चारों तरफ़ अपराध और अन्याय को खुली आँखों देखता है। आदमी आदमी के साथ अन्याय कर रहा है तो संगठित जातियाँ बिखरी हुई जातियों पर और बड़े बम वाले देश कमज़ोर देशों पर चढ़े हुए बैठे हैं। वे जो भी करते हैं, शाँति स्थापना के नाम पर करते हैं और वे अन्याय करके उसे न्याय कहते हैं। ये वे अपराध हैं, जिनका दुनिया की किसी अदालत में मुक़द्दमा क़ायम नहीं होता और न ही दुनिया की कोई अदालत उन्हें सज़ा देती है। ये सब मुक़द्दमे एक ऐसे दिन की माँग करते हैं, जिसमें विधान के अनुसार इनका न्याय किया जाए। जिस दिन वह न्याय-दिवस आएगा, उस दिन इस दुनिया को पूर्णता और सार की प्राप्ति होगी। हर चीज़ को पूर्णता और सार की प्राप्ति परिणाम मिलने से होती है।

जो लोग उस दिन के आने से बेख़बर हैं, वे इस दुनिया को निस्सार समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह जीवन और जगत व्यर्थ है। 

हर आदमी कभी न कभी अपनी ज़िन्दगी में ख़ुद को भी अन्याय का शिकार पाता हैं। वह अत्याचारियों से ख़ुद बदला लेने की ताक़त नहीं रखता और अपने साथ हुए अन्याय को वह कभी भुला नहीं पाता। वह अपनी आत्मा में न्याय की ज़रूरत को महसूस करता है। जहाँ माँग है, वहाँ आपूर्ति भी है क्योंकि यहाँ माँग और आपूर्ति (डिमाँड एंड सप्लाई) का नियम काम करता है। हर तरफ़ अराजकता है। जिसका कारण यह है कि मनुष्य को भलाई और बुराई में चुनाव की आज़ादी की शक्ति मिली हुई है। यह शक्ति रचयिता परमेश्वर का एक बड़ा वरदान है। जो लोग इस शक्ति का ग़लत प्रयोग कर रहे हैं। एक दिन उनसे यह शक्ति छीन ली जाएगी। जो लोग इस शक्ति का सही प्रयोग कर रहे हैं। परमेश्वर उन्हें और अधिेक शक्तियाँ देगा। विधान के अनुसार दण्ड और पुरस्कार मिलने का यह दिन वर्तमान सृष्टि के पूर्ण विनाश के बाद नवीन सृष्टि के सृजन के दिन आएगा। उस दिन सबको वही मिलेगा, जो उन्होंने किया होगा। जो लोग उस दिन के आने का विश्वास रखते हैं, वे आज अन्याय और अपराध से बचते हैं। वैज्ञानिक धरती पर जीव और जीवन के नष्ट होने की ख़बर दे चुके हैं। यहाँ से मरने के बाद और विधान दिवस में नया जीवन मिलने तक की बीच की अवधि में मनुष्य की आत्मा इस दुनिया से पर्दे में रहती है। पर्दे को अरबी में बरज़ख़ कहते हैं। इसलिए इस अवधि में आत्मा जिस दुनिया में रहती है, उसे आलमे बरज़ख़ कहते हैं। आलमे बरज़ख़ में हरेक आत्मा अपनी दशा के अनुसार स्वयं ही सुख-दुख भोगती है। जैसे स्वस्थ और रोगी मनुष्य इस दुनिया में सोते समय भी सुख-दुख भोगते रहते हैं।  

उस दिन से पहले यहाँ भी कर्मों के फल मिलते रहते हैं। जो उस दिन की निशानी मात्र हैं, जिस दिन पूर्ण न्याय किया जाएगा। लोगों को वह दिन दूर दिखता है परंतु वह जब आएगा तो गुज़रा हुआ जीवन एक स्वप्न जैसा लगेगा। जैसा कि यह है भी स्वप्न ही। हमारे सपने सुंदर हों। हमारे विचार सुंदर हों। हमारा मन सु-मन हो। हमें अपनी शक्ति से ये काम करने हैं। हमें भलाई का चुनाव करना है।

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*दिव्य अनुवाद*

3. मालिकि यौमिद्-दीन.

4. इय्याका ना‘बुदु व इय्याका नस्तईन.

5. इह्दिनस्-सिरातल्-मुस्तक़ीम.

6. सिरातल्-लज़ीना अन्अ़मता अलैइहिम.

7. ग़ैइरिल मग़्ज़ूबि अलैइहिम व लज़्ज़ाल्लीन.

शब्दार्थः 

मलिक=स्वामी

 यौम=दिवस

दीन=विधान

इय्याका=आप ही की

ना‘बुदु=हम इबादत करते हैं अर्थात पूरे सर्मपण भाव से नियम और आदेश मानते हैं

व=और

इय्याका= आप ही से

नस्तईन=मदद माँगते हैं

इह्दिना=हमें दिखाएं और चलाएं

सिरात=मार्ग

मुस्तक़ीम=सबसे अधिक सीधा

सिरात=मार्ग

अल्लज़ीना=उन लोगों का

अन्अमता=कृपा हुई

अलैइहिम=जिन पर

ग़ैइरिल=न हुए

मग़्ज़ूब=क्रोध के भागी

व=और

ला=न

अज़्ज़ाल्लीन=भटके हुए

#दिव्य_अनुवादः

3. (हे!) विधान दिवस के स्वामी! (अर्थात् विधान के अनुसार कर्मफल के दाता!)

4. हम आप ही के नियम-आदेश पूरे सर्मपण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।

5. आप हमें सबसे अधिक सीधा मार्ग दिखाएं और चलाएं।

6. उनका मार्ग जिन पर आपकी कृपा हुई।

7. जो न आपके क्रोध के भागी बने और न ही भटके।

-दिव्य अनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत 3-7

*इय्याका ना‘बुदु व इय्याका नस्तईन*

हम आप ही के नियम-आदेश पूरे समर्पण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।

-#दिव्य_अनुवाद, सूरह #फ़ातिहा आयत 4

व्याख्याः

सूरह फ़ातिहा की यह आयत जीवन को सहारा देने वाली एक बहुत बड़ी आयत है। हर आदमी ख़ुद को कभी न कभी ऐसी मुसीबत में फंसा हुआ पाता है। जिससे बाहर आने के लिए वह किसी #ग़ैबी #मदद की ज़रूरत महसूस करता है। आदमी इस आयत के ज़रिए वही ग़ैबी मदद पा सकता है।

यह आयत आदमी को यह बोध कराती है कि वह हर समय अपने पैदा करने वाले के सामने है। आदमी इस आयत के बोल ‘हम आप ही के नियम-आदेश पूरे समर्पण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।’ के ज़रिए बिना किसी बिचौलिए के ख़ुद ही अपने पालनहार से मदद माँगता है। आपको अपने अनकहे भावों को कहने के लिए सबसे अच्छे शब्द इस आयत से मिलते हैं। परमेश्वर से ‘आप ही के’ और ‘आप ही से’, ये शब्द कहकर आप अपनी शुद्ध हृदयता और उसके प्रति पूर्ण समर्पण को व्यक्त करते हैं। आप ख़ुद को पूरी तरह उसी पर आश्रित जान रहे हैं और आपको केवल उसी एक से आशा है। शुद्ध निष्ठा, पूर्ण समर्पण, हरेक से ध्यान हटाकर केवल एक परमेश्वर पर आश्रित हो जाना, ख़ुद को उसके सामने पाना, उसी से मदद की आशा रखना और उसके नियम-आदेश का ज्ञान रखना और उनका पालन करना, ये वे गुण हैं जो इस आयत से मनुष्य में पैदा होते हैं। जिनके बिना कोई प्रार्थना वास्तव में प्रार्थना ही नहीं होती। यह आयत अपने आप में एक सम्पूर्ण प्रार्थना भी है और यह आयत आपको उस ऊर्जा से भी अनुप्राणित करती, जिससे आपकी प्रार्थना सूक्ष्म जगत को आंदोलित करके आपके अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सके।

आगे की आयत से जुड़कर यह आयत सबसे अधिक सीधे मार्ग की प्रार्थना है। अगर सिर्फ़ इसी एक आयत को पढ़ें तो यही एक आयत, यही एक प्रार्थना हरेक मुराद और हरेक कामना पूर्ति के लिए पर्याप्त है। जिस कार्य की पूर्ति का मन में संकल्प लेकर आप यह आयत पढ़ेंगे, आपको उस काम के साधन, अवसर और सहायक मिल जाएंगे और आपका संकल्प पूर्ण हो जाएगा।

यह सृष्टि नियमबद्ध है। एक चीज़़ का दूसरी चीज़ से तालमेल है। हर चीज़ नियम के अनुसार काम कर रही है। आप अपने कामों में परमेश्वर की ग़ैबी मदद चाहते हैं तो आप भी दूसरी सब चीज़ों की तरह नियम के अनुसार काम करें। अपने पैदा करने वाले के कृतज्ञ बनें। 

#प्रार्थना की स्वीकार्यता के भी नियम हैं। यदि आप चाहते हैं कि परमेश्वर आपकी प्रार्थना स्वीकार करे तो आप #परमेश्वर के वचन को स्वीकार करें। अगर आप चाहते हैं कि परमेश्वर आपकी मदद करे तो आप परमेश्वर के वचन की पूर्ति में  समाज के निर्बल वर्ग के लोगों की, अनाथों, बेघरों, विधवाओं और भूखे-प्यासों की मदद करें। इस सृष्टि का नियम यह है कि जो आप दूसरों के साथ करते हैं, वही आपके साथ किया जाता है। आप जिस पैमाने से दूसरों को नापते हैं। उसी पैमाने से आपको नापा जाता है।

अगर आप परमेश्वर से ज़्यादा धन चाहते हैं तो आप #ज़कात के अनुसार अपने धन का 40वाँ भाग ज़रूरतमंद हक़दारों को दें। आपका धन बढ़ेगा। अगर आप समाज में सम्मान चाहते हैं तो आप दूसरों को सम्मान दें। अगर आप ख़ुशी चाहते हैं तो आप दूसरों को ख़ुशी दें। यह परमेश्वर के कृपा पाए हुए सभी कृतज्ञ व्यक्तियों का मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर परमेश्वर की मदद मिलती है। इस मार्ग पर चलने से इस ब्रह्मांड से हमारा तालमेल हो जाता है। जिससे बहुत से कष्टों का निवारण अपने आप हो जाता है। 

यह हमने संक्षेप में लिखा है। पूरा #पवित्र_क़ुरआन परमेश्वर के नियमों के ज्ञान से भरा हुआ है। आप उसे पढ़कर जितना अधिक नियमों को जानेंगे। आप उतनी अधिक परमेश्वर की मदद और उसकी कृपा पाते जाएंगे।

ब्हुत लोग अज्ञानियों से पूछते हैं कि बाबा हम पर परमेश्वर की कृपा क्यों नहीं हो रही है? हम जीवन में कष्ट क्यों भोग रहे हैं? हम क्या करें कि हम पर भी परमेश्वर की कृपा हो जाए? अज्ञानी बाबा इन सवालों के जवाब में बेकार के टास्क देते रहते हैं।

वास्तव में ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर इस आयत में निहित है। यह आयत ज्ञान के सागर को एक प्याले में भर देने जैसी है। हमें यह आयत मिली। यह भी परमेश्वर की एक अतुलनीय कृपा है कि उसने हमें यह #आयत दी। हम इसके लिए भी परमेश्वर को #धन्यवाद कहते हैं। 

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*सूरह फ़ातिहा से इंसान ख़ुद को क्या फ़ायदा पहुंचा सकता है?*

बल्कि क्या क्या फ़ायदे पहुंचा सकता है?

अगर मैं इस सवाल का जवाब ठीक तरह से दूँ तो 100 पेज की एक किताब तैयार हो जाएगी।

सूरह फ़ातिहा में पूरा क़ुरआन समाया हुआ है। जो भी आदमी सूरह फ़ातिहा को पढ़ और समझ लेता है तो वह पूरा क़ुरआन समझ सकता है।

जो सूरह फ़ातिहा को समझ गया। उसके पास ज़िंदगी का एक नज़रिया है। जिसके पास सूरह फ़ातिहा है, उसके पास एक विश्वास है। एक ऐसा विश्वास है, जो उसके जीवन में उसे हर समस्या का समाधान देगा। जो आदमी सूरह फ़ातिहा को बार बार पढ़ता है, उसके अवचेतन मन में यह विश्वास गहरा होता जाता है कि मैं जीवन के इस संघर्ष में अकेला नहीं हूँ। मेरा रचयिता पालनहार परमेश्वर मेरे साथ है। जो अनंत दयालु और सदा करूणाशील है। मैं उसी का काम हूँ और वह अपने काम को अंजाम तक ज़रूर पहुंचाएगा। जो तमाम जहानों का, सभी ब्रह्मांडों का पैदा करने वाला, पालने वाला और उनका अंत करने वाला है; जो हरेक की ज़रूरत को जानने वाला और उसे पूरी करने वाला है, वह मुझे और मेरी ज़रूरत को जानता है। वही मुझे पाल रहा है। मैं उसके नियम-आदेश मानते हुए अपनी ज़रूरत की और अपने मार्गदर्शन की जो भी दुआ इस समय करूंगा, वह उसे सुनेगा और वह उसे पूरी करेगा। मुझ पर और हर चीज़ पर नेचुरली उसी के नियम-आदेश लागू हैं और मैं पूरी तरह उसी पर निर्भर हूँ और मैं केवल उसी से अपने कल्याण की आस रखता/रखती हूँ। वह मुझे सबसे अधिक सीधा मार्ग दिखाएगा। जो कृपा पाए हुए लोगों का मार्ग है। मैं भी अपने पैदा करने वाले की कृपा पाना चाहता/चाहती हूँ।

वास्तव में कृपा पाने का सबसे अधिक सीधा मार्ग शुक्र करने का यानी क़द्र करने का मार्ग है। जिसकी तरफ़ सूरह फ़ातिहा के शुरू में ही ध्यान दिलाया गया है। परमेश्वर है तो हम उसकी क़द्र करें। उसने हमें आत्मा दी है, जिसमें इरादे, कल्पना और विचार की सृजनात्मक शक्तियां (creative powers) दी हैं। जिनसे हम अपने लिए नए हालात का, बेहतर हालात का ख़ुद निर्माण कर सकते हैं, जो कि हम चाहते हैं।

हम जिस सुख-शाँति और समृद्धि की इच्छा और सपना रखते हैं, उनके हालात बनाने और अपनी मुराद को ग़ैब की दुनिया से इस लौकिक जगत में खींचने की शक्ति हमारे अंदर है, जो नियम के अनुसार हमारे सोते-जागते लगातार काम करती रहती है। वही शक्ति हमारे अंदर हड्डी और माँस बनाती है। वही शक्ति हमें रात को सोते हुए करवट दिलाती है और वही शक्ति हमारे अंदर साँस खींचती है। इसे हम अपने अवचेतन मन और अति चेतन मन की शक्ति कह सकते हैं क्योंकि किसी शक्ति को पहचानने के लिए उसे कोई नाम देना ज़रूरी है। हम अपनी शक्तियों को पहचानें और इनकी क़द्र करें यानी इनसे अपने कल्याण के काम करें।

जीवन का नियम विश्वास का नियम है। जब सूरह फ़ातिहा बार बार पढ़ने से उसके विश्वास हमारे अवचेतन मन के पैटर्न बन जाते हैं यानी सूरह फ़ातिहा हमारी आदतन सोच (habitual thinking) बन जाती है तो वह हमारे जीवन में जीवन को सपोर्ट देने वाले हालात के रूप में रेफ़्लेक्ट होती है। जैसा कि यूनिवर्स के सीक्रेट जानने वाले जानते हैं कि हमारे जीवन के बाहरी हालात हमारे दिल के अंदरूनी नज़रिए का मैनिफ़ैस्टेशन हैं। जब हम दिल के यक़ीन को अच्छा बनाने पर काम करते हैं तो हम बाहरी दुनिया के हालात के सोर्स पर काम करते हैं, जहां से हमारे हालात आ रहे हैं। हमें अपने बुरे हालात बदलने हैं तो हम अपने दिल का नज़रिया बदलकर अपने बुरे हालात बदल सकते हैं। 

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हम अपनी नेमतें ज़्यादा करना चाहते हैं तो हम शुक्र और क़द्र करें और अपनी नेमतें दूसरों के साथ शेयर करें तो हमारी नेमतें बढ़ेंगी और वे हमारे बाद हमारी नस्लों में ट्राँसफ़र होंगी। हमारी औलाद शुक्र के मार्ग पर चलेगी तो उस पर भी नेमतें बरसेंगी। इसलिए अपनी औलाद को सिखाने वाली सबसे बड़ी चीज़ शुक्र करना सिखाना है। यह सबसे सीधा मार्ग है। हरेक धर्मग्रंथ इसकी शिक्षा देता है। हरेक बुद्धिजीवी इसका समर्थन करता है।

सूरह फ़ातिहा की चौथी आयत में एक दुआ है। जब भी कोई आदमी सच्चे दिल से अपनी मुराद पर तवज्जो (फ़ोकस) करके इस आयत को पढ़ता है या इसके अनुवाद को बोलता है और बार बार बोलता है तो उसकी वह मुराद पूरी हो जाती है।

सच्चे दिल से मुराद यह है कि दिल में दुविधा न हो कि एक पल दिल एक बात कहे और दूसरे पल दिल में उस पर शक करे। जो चीज़ या हालत चाहिए, उसे अपने दिल में हाज़िर कर लें और उस पर तवज्जो देते हुए सबसे अलग होकर कमरा बंद करके या अकेले में दुआ करें क्योंकि आपकी तवज्जो आलमे ग़ैब से उस चीज़ को या उस चीज़ तक पहुंचने के साधनों को इस दुनिया में खींच लेती है। इसलिए फ़ोकस्ड अटेंशन के साथ दुआ करें। सूरह फ़ातिहा की चौथी आयत एक क़ुबूल हो चुकी दुआ है। जिसे पूरा होने से केवल शक, जल्दबाज़ी और मायूसी ही रोक सकते हैं।

संक्षेप में हम यही कहेंगे कि बंदे की शक्ति उसकी दुआ है, उसका एटीट्यूड है। सूरह फ़ातिहा के रूप में हमें एक पावरफ़ुल दुआ मिलती है और इससे हमें एटीट्यूड ऑफ़ ग्रेटीट्यूड मिलता है।

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*-Dr. Anwer Jamal*

#अगरअबभीनाजागेतो #मिशनमौजले #atmanirbharta_coach #अल्लाहपैथी

Monday, June 28, 2021

नास्तिकों और आर्य समाजियों के साथ बहस में क्या कहें?

बहस में सामने वाले को हराना एक कला है। इसके लिए कमज़ोर बिंदु तलाश कर उस पर बात की जाती है। जिससे सामने वाला बहसी घबरा जाता है कि यह बात मैं पहली बार सुन रहा हूँ।

मिसाल के तौर पर जब एक नास्तिक मुझसे बहस करने आता है तो मैं उसका जायज़ा लेता हूँ और यह पाता हूँ कि मात्र बुद्धिजीवी दिखने की सनक में यह नास्तिकों जैसी बातें कर रहा है वर्ना यह आदमी भी धर्म का नियम मानता है और उस पर चलता है।

Dharm ne sikhaya h ki Apni maa aur apni beti se shadi na karo. Ye rishtey pavitra hotey hain. 

Nastik bhi dharm ke is niyam ka palan karte hain

Aur in rishton ki pavitrta mein vishvas rakhte hain. jabki nastikta rishton ki pavitrta nhi sikhati.

Nastik log nastik vichardhara ke khilaf jakar Dharm ke niyam ka palan kartey hain.

Mai is baat par in intellectuals ki tareef karta hun ki woh Nastikta par chalkar samaj ko ganda nhi kartey.

Main inhe bhi ek prakar ka vidrohi dharmik manta hun.

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वसीम भाई ने मेरा यह लेख पढ़कर मुझे कमेंट किया कि

सही कहा आपने।

मैंने यही बात एक नास्तिक को कही थी तो कहने लगा भाई बहन शादी हम धर्म के कारण नहीं बल्कि मानव व समाज के अनुभव के कारण और जेनेटिक बीमारियों से बचने के कारण नहीं करते।

मैंने कहा कल को विज्ञान की नई रिसर्च आ जाये कि ऐसा करना सेफ है तो करोगे।

कहने लगा कल की कल देखगें। ☺️😊

मैंने उन्हें जवाब दिया कि

वसीम भाई,

कई बार एक स्त्री दो बच्चों के बाद नसबंदी करा लेती है और उसके बाद वह विधवा हो जाती है। उसका मक़सद बच्चे पैदा करना नहीं होता बल्कि केवल शारीरिक और भावनात्मक संतुष्टि करना होता है। ऐसी स्त्री का बेटा या पिता या भाई नास्तिक हो तो क्या वह नास्तिक इस पीड़ित नारी के दुखों का हरण करने के लिए उससे शादी करेगा?

जिसे विज्ञान और नास्तिकता दोनों ही मानव जाति के लिए सुरक्षित बताएंगे।

यह प्रश्न अभी उपस्थित है तो इसे नास्तिक अभी देख लें। आगे देखने की ज़रूरत नहीं है।

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जब एक आदमी अचानक आपसे आपके धर्म पर बहस शुरू करता है तो वह या तो सोशल मीडिया के वायरल विचारों को बिना जाने दोहराता है कि मुस्लिम 4 बीवियां करता है और उनसे 40 बच्चे पैदा करता है। ये बे-अक़्ल लोग होते हैं। ये दिन रात मुस्लिमों के साथ उठते बैठते हैं। ये मुस्लिमों के घरों में जाते हैं और उन्हें अपने घरों में बुलाते हैं। इन्होंने जीवन में दो चार मुस्लिम भी नहीं देखे होते, जिनके  4 बीवियाँ और 40 बच्चे हों। तब भी ये ऐसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और उस पर आपसे सवाल करते हैं।

या फिर वह किसी संस्था का प्रशिक्षित कार्यकर्ता होता है और वह आपको हराने की तकनीक सीखा हुआ है। वह उस तकनीक को आप पर आज़माने के लिए बेचैन है।

इस तरह आपसे इस्लाम पर बहस करने वाले 2 तरह के लोग हुए:

1. बे-अक़्ल और

2. ट्रेन्ड वर्कर्स

बे-अक़्ल लोगों के और ट्रेन्ड वर्कर्स के सभी सवालों के जवाब बहुत सी किताबों और वीडियोज़ में दिए जा चुके हैं। आप उन किताबों और वीडियोज़ को देखकर उनके जवाब दे सकते हैं! आप बार बार जवाब देंगे तो आप भी जवाब देने में ट्रेन्ड हो जाएंगे और जब आप ट्रेन्ड हो जाएंगे तो आप इन्तेज़ार करेंगे कि कोई आकर मुझसे इस्लाम पर बहस ही कर ले ताकि मैं उसे हक़ीक़त बता सकूं।

अब आप दूसरे धर्म के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की मानसिकता और जोश को समझ सकते हैं कि वे आपसे अपने धर्म की रक्षा कर रहे हैं और आप उनसे अपने धर्म की रक्षा कर रहे हैं।

पहले ये बहसें कम थीं। अब पहले से ज़्यादा हैं और ये लगातार बढ़ रही हैं।

जब आपका तजुर्बा काफ़ी बढ़ जाएगा। तब आप इन दोनों तरह के लोगों को नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि ये वक़्त ज़्यादा चूस लेते हैं और फिर भी उन्हीं बातों को बार बार पूछते हैं। जिनके जवाब आप दे चुके होते हैं।

इसलिए अगर आप इनके जवाब नहीं देते या वे किताबें नहीं पढ़ते, जिनमें इन वायरल सवालों के जवाब हैं तो भी ठीक है।

...और अगर आप बिना कुछ पढ़े उनके हर सवाल का जवाब देना चाहें तो भी दे सकते हैं।

मान लीजिए एक आर्य समाजी भाई आपसे आपके धर्म पर सवाल करता है तो आप कह दें कि मुझे अपने धर्म की जानकारी कम है लेकिन मैं अपने धर्म पर संतुष्ट हूँ। आपको अपने सवालों के जवाब चाहिएं तो आप किसी ऐसे आलिम से सवाल करें, जिसे अपने और आपके, दोनों के धर्म की जानकारी हो। आपकी बातों से लगता है कि आप भी अपने धर्म से पूरी तरह संतुष्ट हैं?

वह कहेगा कि हाँ, मैं अपने धर्म से संतुष्ट हूँ।

तब आप उससे कहें कि जब आप अपने धर्म से संतुष्ट हैं तो आप उस पर चलें भी तो सही। जैसे कि आप अपने धर्म के चार आश्रमों का और‌ 16 संस्कारों का पालन करें। सबसे पहला आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम है। आप इस पर चलें तो मुझे ख़ुशी होगी। आप दोनों टाईम हवन करें। मुझे लगेगा कि हाँ, ऐसा करना संभव है।

बात यह है कि ब्रह्मचर्य आश्रम में किसी पराई लड़की को देखना, सुनना और छूना मना है। आर्य समाजी को पढ़ाई, नौकरी और मनोरंजन सब करना है। वह पराई लड़की को देखने, सुनने और छूने से बचने के संकल्प पर चला तो उसकी पढ़ाई, कमाई और मनोरंजन सब चला जाएगा। दो टाईम हवन करना भी उसके बस की बात नहीं है। उसके बस की बात केवल इस्लाम की कम जानकारी रखने वालों से बहस करना है और वह बहस आपने टाल दी और आपने उसे बेमक़सद कर दिया।

उसका मक़सद अपने धर्म पर चलना नहीं है बल्कि आपसे बहस करके आपको हराना है। ऐसी फ़ालतू बहसों को यही एक जवाब देकर टाल दिया करें।

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आप जिस भी दीन-धर्म की रक्षा करना चाहें तो उसकी रक्षा का केवल एक तरीक़ा है और वह है उसकी शिक्षाओं पर चलना।

जिस धर्म की शिक्षाओं पर चला गया। वह धर्म बच गया। लोगों ने जिस धर्म की शिक्षाओं पर चलना छोड़ दिया। वह मिट गया।

आप दूसरे लोगों से बहस करके अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते।

दूसरे लोग आपको आपके धर्म से नहीं हटा सकते, जब तक कि आप ख़ुद न हटना चाहें।

जब दूसरे लोग आपको आपके दीन से हटाने की कोशिश करते हैं तो आपके अंदर उस दीन पर जमने का जोश‌ और ज़्यादा बढ़ता है और अपनी ग़फ़लत की वजह से आप जिस दीन से दूर हो चुके थे। आप उसे पूरी शिद्दत से पकड़ लेते हैं।

दीन से हटाने की कोशिशें मोमिनों को ईमान पर ज़्यादा शिद्दत से जमा रही हैं।

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दीन धर्म पर डिबेट में, बहस में एक आदमी के जीतने से यह तय नहीं होता कि उसका पक्ष सत्य है। उसका दीन धर्म सच्चा है क्योंकि एक ही धर्म के पक्ष में दो आदमी दो जगह डिबेट करें तो एक आदमी हार जाता है तो दूसरा जीत जाता है। डिबेट में जीतना धर्म के गुण पर नहीं बल्कि बहस करने वाले के गुण और अभ्यास पर डिपेंड करता है।

जब किसी धर्म का एक ट्रेन्ड वर्कर आपसे दीन धर्म पर बहस शुरू करता है तो वह हमेशा उस बिन्दु पर बात करेगा। जिसमें उसकी प्रैक्टिस बहुत है। आप उससे उसी मैदान में बहस करेंगे तो वह आप पर भारी पड़ेगा या हारने में आपको थका देगा। अक्सर उसे सुधरना उसके बाद भी नहीं है।

आम तौर पर आदमी उसी बिन्दु पर बहस में जवाब देने लगते हैं, जिस पर पहले ने बात शुरू की है। मैंने ऐसे लोगों को अपने मनोरंजन का साधन बना लिया है। मैं सबसे पहले उसे उस विषय से अलग ले जाता हूँ, जिसमें उसकी प्रैक्टिस ज़्यादा है और वह जीतने के जोश में सजग नहीं होता। वह उधर चल पड़ता है, जिधर मैं ले जाता हूँ और फिर वह निरूत्तर हो जाता है।

मज़ेदार क़िस्सा:

एक दिन एक आर्य समाजी भाई ने मुझसे मैसेंजर में सवाल किया कि 'परमेश्वर निराकार है या साकार?'

मेरी जगह कोई दूसरा मुस्लिम होता तो वह तुरंत उसे समझाने लगता की परमेश्वर कैसा है?

मुझे पता है कि आर्य समाजी को बहस की लत होती है और उसे समझना कुछ नहीं होता। मैं इनके साथ फ़ालतू बहस में समय नहीं खपाता।

मैंने अपनी डेवलप की हुई तकनीक उस पर प्रयोग करते हुए कहा कि परमेश्वर को ख़ुद पता है कि वह कैसा है। यह प्रश्न आप मुझसे क्यों कर रहे हैं?

उसे इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उसका माइंड बहस के उस ढर्रे से अलग हट गया, जिसका वह आदी था।

उसने कहा कि मैं गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। मैं आपसे तर्क वितर्क करके ब्राहमण बनना चाहता हूँ।

मैंने उस भाई से पूछा कि आपने कितना पढ़ लिया है?

उसने कहा कि अभी मैंने एक दर्शन पढ़ा है।

मैंने उससे पूछा कि जब आप गुरूकुल में एक दर्शन पढ़कर ब्राह्मण नहीं बन पाए तो आप मुझसे बहस करके कैसे ब्राह्मण बन जाएंगे?

सवाल करना आसान काम होता है। सवाल करने वह आया था। मैंने उसे उसके सवाल का जवाब नहीं दिया और अब उससे सवाल मैं कर रहा था और वह मुझे संतुष्ट कर रहा था। यह मुझ पर निर्भर हो चुका था कि मैं उसके उत्तर से संतुष्ट हो जाऊँ या उसके जवाब में से कोई बात पकड़कर फिर एक नया सवाल कर दूँ।

मैंने उस आर्य समाजी भाई से कहा कि मैं अपने दीन के अनिवार्य कर्तव्यों नमाज़, ज़कात और रोज़ा आदि का पालन करता हूँ। अगर आपको मुझसे बहस करनी है तो आपको अपने वैदिक धर्म के अनिवार्य कर्त्तव्यों का पालन करके मेरे बराबर की हैसियत में आना पड़ेगा। जब आप मेरी बराबरी की हैसियत में आ जाएं तो आप मुझसे बहस कर लें। क्या आप दोनों टाईम हवन करते हैं?

वह पहले तो टालता रहा लेकिन फिर उसने मान लिया कि वह दो टाईम हवन नहीं करता।

मैंने कहा कि आर्य समाजी वैदिक धर्म के अनुसार जो दो टाईम परमेश्वर का ध्यान और हवन नहीं करता उसे शूद्रवत् समझकर अर्थात् मूर्ख समझकर सभा से बाहर कर देना चाहिए।

'और जो ये दोनों काम सायं और प्रातःकाल में न करे उस को सज्जन लोग सब द्विजों के कर्मों से बाहर निकाल देवें अर्थात् उसे शूद्रवत् समझें।।'

-सतयार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास 


मैंने कहा कि शूद्र का अर्थ आप लोग मूर्ख बताते हैं। मूर्ख से तर्क वितर्क करने के लिए न वेद कहता है और न क़ुरआन। जब तक आप दोनों समय  परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र नहीं करते। तब तक आप शूद्र अर्थात मूर्ख रहेंगे, ब्राह्मण नहीं बन सकते और न ही आपको किसी से विद्वानों की तरह बहस करने का अधिकार है।

उस आर्य समाजी भाई ने इस बात को स्वीकार किया कि मेरी बात सही है।

आपने देखा कि एक तकनीक के प्रयोग से वह विद्वान शूद्र सिद्ध हो गया, जोकि मुझसे बहस करके ब्राह्मण बनना चाहता है।

आर्य समाजी परमेश्वर के निराकार होने पर महीने भर बहस कर सकता है परन्तु अपने धर्माचरण पर दो मिनट में शाँत हो जाएगा।

परमेश्वर कैसा है? इस पर किसी आर्य समाजी से बात करने से पहले यह ज़रूर देख लें कि वह ख़ुद कैसा है और क्या करता है??

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एक आर्य समाजी भाई मेरे मित्र हैं। वह एक वैद्य हैं। मैं उनका बहुत ज़्यादा आदर उनके अच्छे स्वभाव के कारण करता हूँ। वह भी मुझसे बहुत प्रेम करते हैं और रोज़ ही मुझे व्हाट्स एप के ज़रिए शुभकामनाओं के मैसेज करते हैं।

मैं एक दिन सलीम भाई की दवाओं की दुकान पर गया तो सलीम भाई ने मुझे आर्य वैद्य जी से मिलवाया। मैंने उनसे बात की तो पता चला कि वह दोनों समय हवन करते हैं। यह मेरे लिए सचमुच हैरत की बात थी। बहुत ही कम आर्य समाजी दोनों समय ध्यान और हवन करते हैं।

मैंने उनसे जितनी भी देर बात की। मुझे यही लगा कि मैं एक बहुत अच्छे इंसान से बात कर रहा हूँ। सनातनी पंडितों से बात करते हुए मुझे ऐसा सैकड़ों बार फ़ील हो चुका है लेकिन किसी आर्य समाजी के साथ बात करते हुए ऐसा पहली बार फ़ील हुआ। उन्होंने मेरी बात का, इस्लाम और क़ुरआन का खंडन नहीं किया। बिना खंडन वाला आर्य समाजी मैं पहली बार देख रहा था।

मैंने हैरत ज़ाहिर करते हुए आर्य बंधु से कहा कि आप मेरी बातों में कमियाँ क्यों नहीं निकाल रहे हैं? आर्य समाजियों का यह स्वभाव तो नहीं होता।

आर्य वैद्य जी ने कहा कि मेरे पिताजी आर्य समाजी थे। वह एक दुकान करते थे। जो भी व्यक्ति उनके पास आता था। वह उसके धर्म-मत में कमियाँ बताया करते थे। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने उनके पास आना बंद कर दिया और वह अलग थलग पड़  गए थे। इससे शिक्षा लेकर मैंने अपना स्वभाव बदल लिया है।

एक दिन वह अपनी पत्नी के साथ मेरे घर तशरीफ़ लाए। उनकी पत्नी का स्वभाव उनसे भी ज़्यादा अच्छा है। उनकी पत्नी एक समाज सेविका हैं और पूरा ज़िला उन्हें जानता है। उन दोनों ने मुझसे अपने घर आने का बार बार आग्रह किया। उसके बाद भी वे दोनों फ़ोन पर मुझे अपने घर बुलाते रहे। एक दिन मैं उनके घर गया और जब नमाज़ अदा करने का वक़्त आया तो उन्होंने मुझे पानी, चादर और एक रूम दिया। जहाँ मैंने ऐसे ही शांति से नमाज़ अदा की, जैसे मैं अपने घर में नमाज़ करता हूँ।

मेरे आर्य वैद्य मित्र जी ने पूरी ज़िन्दगी ईमानदारी से मेहनत करके जायज़ तरीक़े से थोड़ा कमाया और उसे अपने बच्चों पर लगाया। उनके लड़के भी पढ़ लिखकर समाज में अच्छी हैसियत में आ गए। अब कुछ समय पहले वैद्य जी नोएडा चले गए हैं। वह नोएडा से भी मुझे मैसेज और कॉल करते रहते हैं।

मैं उनकी मुहब्बतों का दिल से बहुत ज़्यादा शुक्रगुज़ार हूँ।

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आर्य समाजी प्रचारक अपनी मान्यता के अनुसार सत्य का मंडन और असत्य का खंडन करने को बहुत उतावला होता। यह आर्य समाज की शक्ति है। जिसकी वजह से वह पहचाना गया। जिसकी वजह से वह आगे बढ़ा।

और‌ यही उसकी कमज़ोरी भी है। जिसकी वजह से वह आगे नहीं बढ़ रहा है। जिसकी वजह से आम हिंदू समाज ने उसके तरीक़े को एक साईड कर दिया।

जब एक आर्य समाजी अपनी नज़र में असत्य का खंडन कर रहा होता है तो वह पौराणिकों, सिखों, बौद्धों, जैनियों, ईसाईयों और मुस्लिमों के महापुरुषों के नाम बहुत ज़्यादा तिरस्कारपूर्ण तरीक़े से लेता है और उनकी मज़ाक़ भी उड़ाता है। जिससे उन धर्मों के मानने वालों के दिलों में आर्य समाजी प्रचारक के लिए तीव्र घृणा पैदा होती है और उनका दिल उस आर्य समाजी प्रचारक के लिए, उसके संदेश के लिए पूरी तरह बंद हो जाता है। 


इस तरह ख़ुद आर्य समाजी प्रचारक ही अपने विशेष स्वभाव के कारण लोगों को उन्हीं के धर्म पर जमाए रखते हैं।

दूसरे धर्म के लोगों को प्रभावित करने वाली चीज़ मधुर भाषा, सम्मान और सेवा है।

आम तौर पर आर्य समाजी प्रचारक से एक ईसाई और एक मुस्लिम को ये तीनों बातें नहीं मिलतीं। सो वे उससे प्रभावित नहीं होते। इसके बजाय उन्हें आर्य समाजी प्रचारक से कठोर वचन और तिरस्कार मिलता है तो वे उसे अपना दुश्मन समझने लगते हैं। इस तरह एक आर्य समाजी अपने धर्म प्रचार का अंतिम संस्कार ख़ुद ही कर लेता है।

#Islam धर्म का पक्ष रखने वाले #muslim नौजवान आर्य समाजियों के तरीक़े के मुताबिक़ हरगिज़ किसी धर्म की और उस धर्म के महापुरूषों की आलोचना न करें वर्ना उनके दिलों के दरवाज़े भी बंद हो जाएंगे।

हरेक धर्म का आदमी अपने महापुरुषों से भावनात्मक स्तर पर बहुत गहरा जुड़ाव रखता है और इस स्तर पर जुड़े हुए लोगों से तर्क और आलोचना करते हुए उनकी भावनाओं के सम्मान का बहुत ज़्यादा ख़याल रखना चाहिए।

मैं स्वामी दयानंद जी का नाम जहां भी लिखता हूँ, अपने आर्य समाजी भाईयों की भावना को ध्यान में रखते हुए आदरसूचक शब्दों के साथ लिखता हूँ।

#कहने_का_मक़सद यह है कि गुड़ न दो तो कम से कम गुड़ जैसी बात तो करो।

#dawah_psychology कहती है कि दूसरे धर्म के लोगों को आपसे बात करके ख़ुशी महसूस होनी चाहिए।

Friday, May 21, 2021

#isme_azam kya hai? इस्मेे आज़म कौन सा नाम है, जिसके साथ दुआ माँगने से दुआ ज़रूर क़ुबूल होती है?

 (1)

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#surahikhlas 

कह दीजिए कि वह अल्लाह अहद (एक) है।

अल्लाह अस्समद है (यानी आत्मनिर्भर, बेनियाज़ self sufficient है।)

न उसने किसी से जन्म लिया और न उसने किसी को (मनुष्यों की तरह) जन्म दिया।

न ही कोई उसके कुफ़ू (बराबरी) का है।

एक्स्पलेनेशन:

मैंने अपने बच्चों को बताया कि मुझे क़ुरआन मजीद की यह सूरह बहुत पसंद है और मैं इसे बहुत ज़्यादा पढ़ता हूँ। इस सूरह से हमारा माइंड अल्लाह के बारे में क्लियर हो जाता है कि वह कैसा है और हम उसे तुरंत ही देखने लगते हैं।

जब इंसान चारों तरफ़ फैली हुई कायनात को देखता है तो वह कहता है कि मैं इसमें नियम को देख रहा हूं कि हर तरफ नियम काम कर रहे हैं। रात के बाद दिन आती है और दिन के बाद रात आती है यह प्रकृति का नियम है। आम का बीज बोते हैं तो आम निकलता है और और बबूल बोते हैं तो बबूल ही निकलता है जैसा बीज बोया जाता है वैसा ही पेड़ निकलता है और वह पेड़ अपनी प्रकृति के अनुरूप ही फल देता है यह प्रकृति का नियम है। मैं नियम को काम करते देख रहा हूं।

अब अगर कोई आदमी उससे पूछे की नियम का साइज़ क्या है, वह कितने फ़ुट का है या उसका आकार क्या है? नियम त्रिकोण है या चतुर्भुज है? या नियम का रंग क्या है? वह बैंगनी कलर का है या पीला है? जब आप प्रकृति में नियम देख रहे हैं तो कृपया उसका साइज़, आकार और रंग भी बता दें।

इस बात को सुनकर हरेक आदमी हंसेगा कि हमारे देखने का मतलब यह नहीं है कि हम साइज़, आकार और रंग वाली कोई चीज़ अपनी माँस की आँख से देख रहे हैं बल्कि हम नियम को अपनी अक़्ल से देख रहे हैं कि प्रकृति में नियम है।

नियम बनाने वाले परमेश्वर को भी हम अपनी अक़्ल से देख सकते हैं और अभी देख सकते हैं।

इंसान अपनी अक़्ल से उसे भी देख सकता है जिसका साइज़, आकार और रंग न हो।

जब रस्सी पर लटके हुए कपड़े और पेड़ के पत्ते हिलते हैं तो लोग कहते हैं कि हम देख रहे हैं कि हवा चल रही है। हालाँकि कोई भी हवा को नहीं देखता, हरेक कपड़ों और पत्तों को देखता है। वे कपड़े और पत्ते हिलते देखकर अपनी अक़्ल से इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि कोई है, जो इन्हें हिला रहा है। वही हवा है। हर तरफ़ चीज़ें हिल रही हैं। जिधर भी हम चेहरा घुमाते हैं। हम हर तरफ़ हवा देखते हैं। ऐसे ही हम हर तरफ़ नियम देखते हैं। ऐसे ही हम जिधर भी देखते हैं, अपनी अक़्ल से अल्लाह को देखते हैं।

अक़्ल बहुत इम्पोर्टेंट हैं। अक़्ल न हो तो इंसान अपने पैदा करने वाले को नहीं पहचान सकता।

अक़्ल न हो तो हम यह नहीं जान पाते कि हमारा माइंड चित्रों की भाषा में विचार करता है। हमने बादशाह देखा है। हमने उसे सिंहासन पर बैठे हुए देखा है। हमने उसे हुक्म देते हुए देखा है। वह बादशाह सब पर नज़र रखता है कि कौन क्या कर रहा है।

जब अल्लाह अपने परिचय में ख़ुद को बादशाह कहता है और वह कहता है कि वह सिंहासन (अर्श) पर बैठा है और वह हुक्म देता है तो हमारा माइंड एक चित्र बना लेता है कि एक बड़ा सा इंसान अर्श पर बैठकर हुक्म दे रहा है। वह ऊपर बैठकर हमें नीचे की तरफ़ काम करते हुए देख रहा है।

जब हम क़ुरआन मजीद पढ़ते हैं तो हमारा माइंड ऐसे चित्र बनाता है क्योंकि शब्द सुनकर सोचने समझने की प्रोसेस में यही होता है। जो चित्र हमारा माइंड बनाता है, वह हमारी बनाई हुई चीज़ है और अल्लाह किसी चीज़ जैसा नहीं है।

हिंदुओं ने अंदर के काल्पनिक चित्र को बाहर भी बना दिया ताकि दूसरे भी देख लें कि वे अपने मन में परमेश्वर को किस रूप में देखते हैं। परमेश्वर की ज़्यादा शक्ति दिखाने के लिए उन्होंने उसकी मूर्ति में ज़्यादा हाथ बना दिए। उनके विद्वानों ने भी माना है परमेश्वर इस मूर्ति जैसा बिल्कुल नहीं है।

एक इंसान अपने अंदर बन रहे चित्रों को अपने मन से हटा दे और बस अल्लाह के होने को अपनी अक़्ल से जाने कि 'वह है' तो वह अल्लाह को देख लेगा।


'वह है' को ही अरबी में हुवा और हिब्रू में यहोवा कहते हैं।

सूरह इख़लास की पहली आयत ही दिल के ईमान को ख़ालिस कर देती है। वह दिल से हरेक चीज़ को हटा देती है, जिसे हमने अपना रब और इलाह बनाकर दिल में जमा रखा था। जब तक ये तस्वीरें और ये बुत दिल में रहते हैं, इंसान अपने ख़ुदा को नहीं देख पाता। जबकि वह हर तरफ़ है।

लोग पूछते हुए घूमते हैं कि क्या ख़ुदा है? हमें तो परमेश्वर नहीं दिखता। बताओ गॉड है तो वह कहाँ है?

यह ऐसा ही है जैसे नदी में रहते हुए मछली पूछे कि पानी कहाँ है?

मेरे बच्चों सूरह इख़लास पढ़ो और इसे अच्छी तरह समझो ताकि तुम अपने रब को देख लो। जब तुम क़ुरआन पढ़ोगे तो कभी बोर न होओगे। मुझे अकेलापन बुरा नहीं लगता। कोई साथ होता है तो मैं क़ुरआन मजीद की आयतें उसे सुनाकर उनका मतलब समझाता हूँ और इससे मेरा दिल ख़ुश होता है। जब मैं अकेला होता हूँ तो मुझे क़ुरआन की आयतें अपनी आत्मा में याद आने लगती हैं और मैं उनके अर्थ पर विचार करने लगता हूँ और जब वे मेरी समझ में आती हैं तो इससे भी मेरा दिल ख़ुश होता है। जब दिल ख़ुश होता है तो इंसान को अपने अंदर अच्छा महसूस होता है। इस यूनिवर्स में फलने फूलने के लिए #feelgood बहुत ज़रूरी है।

(नोट: अभी एक आयत का एक्सप्लेनेशन भी पूरा नहीं हुआ, जो मैने अपने बच्चों को समझाया।)

देखें: Blog:allahpathy.blogspot.com

(2)

*Allahpathy part 2*

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पिछली पोस्ट से जोड़कर आगे पढ़ें:

'हुवा' एक नाम है। किसी को पुकारना हो तो अरबी में 'या' शब्द लगाकर पुकारते हैं। हुवा को पुकारना हो तो 'या हुवा' कहते हैं। इस नाम से केवल उसके 'वुजूद' पर ध्यान जाता है कि वह जो है सो है।

या हुवा को याहू भी पढ़ा जाता है। यह नाम एक गुप्त रहस्य है।

For Jewish people YHWH (YAHWEH) is the most holy name of God. Traditionally, religious Jews today do not often say this name aloud. This is because it is believed to be too holy to be spoken. However, they often use substitutes when referring to the name of their God. For example, they use HaShem ("The Name") or Shem HaMeforash (“the indescribable Name”).

मूसा ने परमेश्‍वर से कहा, “जब मैं इस्राएलियों के पास जाकर उनसे यह कहूँ, ‘तुम्हारे पूर्वजों के परमेश्‍वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है,’ तब यदि वे मुझसे पूछें, ‘उसका क्या नाम है?’ तब मैं उनको क्या बताऊँ?” 

परमेश्‍वर ने मूसा से कहा, “मैं जो हूँ सो हूँ।” फिर उसने कहा, “तू इस्राएलियों से यह कहना, ‘जिसका नाम मैं हूँ है उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है’।” 

फिर परमेश्‍वर ने मूसा से यह भी कहा, “तू इस्राएलियों से यह कहना, ‘तुम्हारे पूर्वजों का परमेश्‍वर, अर्थात् अब्राहम का परमेश्‍वर, इसहाक का परमेश्‍वर, और याकूब का परमेश्‍वर, यहोवा, उसी ने मुझ को तुम्हारे पास भेजा है। देख सदा तक मेरा नाम यही रहेगा, और पीढ़ी-पीढ़ी में मेरा स्मरण इसी से हुआ करेगा।’ 

-निर्गमन 3:13-15

हिब्रू में YAHWEH यहोवा का अर्थ है  “मैं जो हूँ सो हूँ" I AM THAT I AM.

इस तरह हम हुवा नाम से "मैं हूँ" (अरबी में अना और संस्कृत में अहम्) नाम तक पहुँच जाते हैं। यह एक गुप्त भेद है। जिसे आम तौर से बताया जाए तो लोग किन्तु परन्तु करेंगे। सो मैं इसे यहाँ न बताऊंगा।

लेकिन इस नाम के साथ इंसान की फ़लाह और कल्याण जुड़ा है। इसलिए फिर भी मैं इतना बता दूँ कि 'मैं हूँ' उस वुजूद के लिए बोला जाता है जो अपने होने का एहसास रखता है।

मिसाल:

एक इंसान भी अपने लिए 'मैं हूँ' बोलता है। 

इंसान में जिस्म से अलग एक हक़ीक़त है। वही "मैं हूँ। जब भी इंसान के वुजूद में कोई डर या विश्वास जम जाता है तो उसके डर या विश्वास के अनुसार ही उसके जीवन में कुछ घटनाएं घटित हो जाती हैं। ख़ुद आपने भी कई बार यह कहा होगा कि मुझे जिस बात का डर था, वही बात हो गई।

आपके डर ने ही उस बुरी घटना को आपके जीवन में आकर्षित किया है। इसलिए अपने कल्याण के लिए "मैं हूँ" को यानि अपने वुजूद को डर और बुरे विश्वास (वसवसे) से पाक किया जाता है। 

ख़ुद को पाक रखना है। इसीलिए ग़ुस्ल (स्नान) और वुज़ू किया जाता है ताकि याद रहे कि हमें अपने आप को अंदर से भी पाक करते रहना है। हरेक दीन धर्म में पवित्र रहने और स्नान करने की शिक्षा मौजूद है।

मुस्लिम आलिम हर ज़माने में रब के एक गुप्त नाम #ismeazam की तलाश में रहे हैं। इमाम बोनी रहमतुल्लाहि अलैह ने एक पूरी किताब शम्सुल मआरिफ़ इस्मे आज़म की तलाश में लिखी है और मुझे हैरत है कि उन्होंने तौरात में आए नाम "मैं जो हूँ सो हूँ" को भी अपनी किताब में जगह दी है। उनके अलावा मुझे दूसरे किसी आलिम की‌ इस्मे आज़म पर  रिसर्च में इस हिब्रू नाम का तज़्करा न मिला।

बहरहाल जब भी 'हुवा' या 'हू' कहकर अपने रब का ध्यान करोगे तो केवल उसके अस्तित्व (वुजूद) की तरफ़ ध्यान जाएगा। इससे आपको इख़लास नसीब हो जाएगा।

दुआ के दो रूक्न (स्तंभ pillars) हैं:

इख़लास और यक़ीन।

जब ये दोनों होते हैं तो दुआ वुजूद में आ जाती है और इनमें से एक भी न हो तो दुआ का वुजूद नहीं होता।

कई बार आदमी दुआ करता है लेकिन वह नहीं जानता कि इख़लास और यक़ीन के बिना या इनमें से एक न हो तो भी दुआ हक़ीक़त में दुआ नहीं होती।

और कई बार वह नहीं जानता कि वह इख़लास और यक़ीन को कैसे हासिल करे।

सूरह इख़लास को समझने और बार बार पढ़ने से ये दोनों हासिल हो जाते हैं।

अल्हम्दुलिल्लाह।

Blog: allahpathy.blogspot.com

(3)

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#हुवा का सिम्पल अर्थ है वह, He.

जब हम इस शब्द को परमेश्वर के लिए बोलते हैं तो यह केवल अस्तित्व का बोध कराता है, उसके किसी गुण का नहीं।

हक़ीक़त में वही परमेश्वर हरेक वस्तु और हरेक व्यक्ति के अस्तित्व का स्रोत है।

एक व्यक्ति अपने होने को फ़ील करता है कि 'मैं हूँ' तो वह अपने अस्तित्व को फ़ील करता है। जिसे वह आत्म या आत्मा कहता है और यह आत्म या आत्मा शरीर से अलग एक हक़ीक़त है। 

जब आप लेटकर आँखें बंद करके पूरी तरह #रिलैक्स्ड होकर अपने होने को फ़ील करते हैं और इसी हाल में जागे रहते हैं या सो जाते हैं तो अपने आपको जानने की #नीयत के कारण आप पर आपका अस्तित्व ख़ुद को और ज़्यादा प्रकट करता है।

आपका अस्तित्व एक रेफ़्लेक्शन और एक ज्योति है असल अस्तित्व की। आप हमेशा हक़ीक़ी वुजूद से जुड़े हुए होते हैं।

'मैं हूँ' या 'आत्मा' या 'ख़ुदी' एक नाम है, जिसमें इंसान ज़िंदा और क़ायम है। यह रब का एक पोशीदा नाम है, जो उसने हमें दिया ताकि हम जीवन पाएं। 'मैं हूँ' में हम जीवित हैं।

जब कोई व्यक्ति इस नाम के साथ कोई गुण मान लेता है कि मैं ग़रीब हूँ, मैं ग़ुलाम हूँ, मैं परेशान हूँ 

...तो उसके विश्वास के अनुरूप ही उसके जीवन में और ज़्यादा बुरी परिसथितियाँ घटित होती हैं और वह व्यक्ति वही बना रहता है जो वह अपनी आत्मा में विश्वास रखता है। जिसे ईमान बोलते हैं। बाहर की ग़रीबी, ग़ुलामी और परेशानी की वजह अंदर का विश्वास (core belief) है।

जब अपने अंदर के ईमान को सही कर लिया जाता है तो बाहर की ग़रीबी, ग़ुलामी और परेशानी भी घटने और मिटने लगती है। बाहर की परिस्थिति या व्यक्ति इंसान पर कोई ज़ोर और ताक़त नहीं रखते बल्कि अंदर का #अस्तित्व बाहर की परिस्थितियों पर ज़ोर रखता है क्योंकि वही उनका चुनाव करता है कि मुझे क्या बनाना है और क्या भोगना है!

अधिकांश लोग इससे बेशुऊर (अचेत, #unconscious) हैं।

अधिकतर लोग ख़ुद अपने अस्तित्व से अचेत और #अज्ञानी हैं और बहुत लोग अपने अस्तित्व के स्त्रोत से अपने संबंध के प्रति ग़ाफ़िल हैं।

क़ुरआन मजीद के ज़रिए #रब ने लोगों को उनकी अपनी हक़ीक़त के प्रति चेताया है और उन्हें उनकी शक्तियों का ज्ञान दिया है। जिनसे वे ग़रीबी, ग़ुलामी और परेशानी से #मुक्ति पा सकें।

इंसान की शक्ति उसका #ईमान और #नीयत है। यह सही हो जाए तो जो पुराने ईमान से बनी हुई बुरी परिस्थितियां हैं, वे मिटने लगती हैं क्योंकि उन्हें अब हमारे अंदर के ईमान से सपोर्ट नहीं मिलती।

जब हम हुवा या 'हू' या 'याहू' कहकर कुछ देर केवल अस्तित्व के प्रति सजग होते हैं तो यही सजगता #ध्यान है। इस हाल में हमारा #माइंड परिस्थितियों से हट जाता है और हमें तुरंत शाँति मिल जाती है लेकिन यह अस्थायी होती है क्योंकि इस हाल से बाहर आते ही फिर से पुरानी परिस्थितियां दबाव बना लेती हैं।

उन परिस्थितियों को बदलने के लिए हमें इस पूरे मैकेनिज़्म को समझना होगा कि अस्तित्व कैसे काम करता है?

जोकि एक पूरी किताब का विषय है।

हालात बदलने के लिए ईमान के बाद हिकमत भरा अमल ज़रूरी है।

और यह #हिकमत भरा अमल भी आत्मा से ही शुरू होता है।

अगर यह विज़न और विश्वास है कि 'मैं मज़लूम हूँ' तो इस विश्वास की डिमांड के अनुरूप हमेशा कोई ज़ालिम ऊपर बैठा रहेगा। वह नहीं उतरेगा। वह नए नए कष्ट देता ही रहेगा ताकि आपका विश्वास आप पर घटित हो। लोग अपने ग़लत विश्वास के मारे हुए हैं। जब क़ौमी सतह पर यह ग़लत विश्वास जड़ पकड़ लेता है कि 

'हम मज़लूम हैं' तो फिर वे एक बुरे तिलिस्म की रचना करके उसके दुष्चक्र में फंस जाते हैं।

इस #तिलिस्म से मुक्ति के लिए एक नए #हैल्दी #विज़न की रचना करना ज़रूरी है। जिसमें आप ख़ुद ग़ालिब हों और दुश्मन पाँव तले की चौकी हों, जैसा कि #नबियों का विज़न होता था। जिसे वे सामने रखकर चलते थे।

#यहोवा ने मेरे स्वामी से कहा,

    “तू मेरे दाहिने बैठ जा, जब तक कि मैं तेरे शत्रुओं को तेरे पाँव की चौकी न कर दूँ।”

-ज़बूर 110:1

ख़ुद को अकेला और कमज़ोर मानना एक ग़लत विश्वास है।

क़ुरआन कहता है कि #अल्लाह क़वी यानी ताक़त वाला है।

#क़ुरआन कहता है कि

'व हुवा म'अकुम' यानी और वह तुम्हारे साथ है।

यह एक #हक़ बात है और यह एक सही विश्वास है।

जब हम अपने अकेले और कमज़ोर होने का माइंडसेट लेकर काम करते हैं तो हमारे काम ख़राब होते हैं और

जब हम ताक़त वाले रब के अपने साथ होने का #माइंडसेट लेकर काम करते हैं तो हमारे दुश्मनों के काम ख़राब होने लगते हैं और

हमारे काम बनने लगते हैं।

#परमेश्वर ने हमारे #कल्याण की शक्ति हमारी #आत्मा में रखी हुई है।

आत्मा 'मैं हूँ' कहती है।

यह एक #पवित्र शक्तिशाली नाम है।

इसका सही प्रयोग सीखने की ज़रूरत है।

मैं हूं के साथ अच्छे गुण बोलो कि मैं शुक्रगुजार हूँ।

I AM #BLESSED BEYOND MEASURE.

...तो इससे आपका हाल नेचुरली ख़ुद संवरेगा।

अच्छे अवसर और अच्छे लोग ख़ुद मिलेंगे।

#कहने_का_मक़सद यह है कि 

'हुवा' का ध्यान।

है परम ज्ञान ।।

#अगरअबभीनाजागेतो रब की शक्ति से अपने हक़ में कल्याणकारी काम कैसे करोगे?

(4)

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#ईद #मुबारक

#ईदी के रूप में #आत्मज्ञान का तोहफ़ा:

क़ुल हुवल्लाहु अहद।

यानी कह दीजिए वह अल्लाह अहद (एक) है।

-क़ुरआन, सूरह इख़लास

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने एक दिन मुझे इस आयत का मतलब बताते हुए कहा कि 'अरबी में अहद उसे कहते हैं जो एक होकर एक हो। जैसे रूह और जिस्म से मिलकर 'एक' इंसान बना है तो इसे अहद न कहेंगे। यह गिनती में एक है। इसके एक होने को अरबी में वाहिद कहेंगे।'

अल्लाह वाहिद भी है और अहद भी। इंसान का एक जिस्म भी बहुत सारी हड्डियों और नसों से मिलकर बना है। वह वाहिद है, #अहद नहीं।

मैं आपको 'अहद' का गुण समझाने के लिए किस निशानी से मिसाल दे सकता हूँ?

यह आपकी आत्मा और शुऊर (चेतना consciousness) है, जो अपने होने का एहसास रखती है कि 'मैं हूँ'। यह एक होकर एक है। यह अहद की उम्दा मिसाल है। आप ख़ुद अल्लाह की निशानी हैं। आप ख़ुद पर ग़ौर करके अल्लाह को पहचान सकते हैं कि अल्लाह अहद है और अहद होना क्या होता है!

#अल्लाह के गुणों का कीर्तन आत्मज्ञान की कुंजी है।

#अगरअबभीनाजागेतो आत्मज्ञान से कल्याण कैसे पाओगे?

(5)

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#अल्लाह नाम उस हस्ती के लिए बोला जाता है जो हक़ीक़ी माबूद यानी वास्तविक हाकिम है। जिसका हुक्म ज़मीन और आसमान में क़ायम है। अल्लाह शब्द का अर्थ 

हक़ीक़ी माबूद है।

लेकिन इसके और भी कई अर्थ हैं जैसे कि जो हैरत में डालता है और जिसकी तरफ़ दिल खिंचता है और जिससे वालिहाना #मुहब्बत की जाए यानी बहुत ज़्यादा मुहब्बत की जाए।

हम अल्लाह के बनाए हुए कामों को और ख़ुद को देखते हैं तो हैरत में पड़ते हैं और हम सब अपने अंदर अपने पैदा करने वाले के लिए पैदाइशी तौर पर एक प्रेम मौजूद पाते हैं। इंसान शब्द उन्स से बना है। उन्स का अर्थ प्रेम है। जब हम प्रेम करते हैं तो हम अपने वुजूद को सार्थक करते हैं। इंसान शब्द का अर्थ प्रेमी है। #मोमिन बंदा अपने रब से सबसे ज़्यादा प्रेम करता है।

अल्लाह नाम किसी क्रिएशन के लिए या किसी इंसान या फ़रिश्ते के लिए नहीं बोला जाता। यह एक रब के लिए ही ख़ास है, जिसने सबको पैदा किया है।

अल्लाह की हस्ती के लिए बोला जाने वाला नाम अल्लाह भी हैरत में डालता है। इस नाम पर रिसर्च करने वाले आलिम बताते हैं कि अल+इलाह से मिलकर अल्लाह शब्द बना है। जिसका अर्थ हक़ीक़ी #माबूद है।

लेकिन हैरत की बात यह है कि जिन नामों में शुरू में 'अल' लगता है। जब उन नामों के साथ शुरू में पुकारने के लिए 'या' लगाते हैं तो 'अल' हट जाता है जैसे कि अल-रहमान और अल-रहीम में जब या लगाकर दुआ करते हैं तो या रहमान और या रहीम बोला जाता है लेकिन अरबी व्याकरण का यह क़ायदा 'अल्लाह' नाम पर लागू नहीं होता। अल्लाह शब्द में से 'अल' हटाकर 'या' नहीं लगाया जाता बल्कि अल्लाह ज्यों का त्यों रहता है और शुरू में 'या' लगाकर 'या अल्लाह' बोलते हैं। इससे पता चलता है कि अल्लाह नाम भी 'अहद' है यानी न तो यह दो शब्दों के जोड़ से बना है और न ही इसे तोड़ा जा सकता है। यह पूरा एक ही शब्द है। अल्लाह की ज़ात (अस्तित्व) के लिए अल्लाह नाम बहुत ज़्यादा उपयुक्त है। यह नाम भी उसकी सिफ़त (गुण) को ज़ाहिर करता है। यह ख़ासियत किसी दूसरे नाम में नहीं है। आलिम और सूफ़ी इसे सबसे बड़ा नाम मानते हैं। क़ुरआन मजीद में यह नाम बार बार और बहुत ज़्यादा आता है। 

God's name in Arabic, 'Allah,' occurs in the Qur'an 2698 times.

*#अगरअबभीनाजागेतो अल्लाह नाम का अर्थ कैसे पता करोगे?*

(6)

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*कह दीजिए कि वह अल्लाह अहद (एक) है।*

अल्लाह अस्समद है। (यानी आत्मनिर्भर, दूसरों पर निर्भर होने से बेनियाज़ है और self sufficient है।)

न उसने किसी को (मनुष्यों की तरह) जन्म दिया और न ही उसे किसी ने जन्म दिया।

और न ही कोई उसके कुफ़ू (बराबरी) का है।

#Quran #surahikhlas

हम सूरह इख़्लास की पहली आयत के बारे में आपको बता चुके हैं।

दूसरी, तीसरी और चौथी आयत भी बिल्कुल क्लियर है। 

अल्लाह अस्समद है यानी हर चीज़ और हर इंसान अपनी ज़रूरत की पूर्ति के लिए अल्लाह पर निर्भर है लेकिन वह किसी पर निर्भर नहीं है। अपनी मुराद की पूर्ति के लिए लोग उसकी तरफ़ तवज्जो करते हैं।

कोई भी उसकी हस्ती में से नहीं निकला कि उसका अंश या वंश हो और न ही वह ख़ुद किसी में से निकला कि वह किसी का वंश या बेटा हो।

कोई भी अल्लाह के कुफ़ू का नहीं है यानी कोई भी उसके जोड़ और बराबरी का नहीं है। मैंने अपने बच्चों को बताया कि जैसे शैख़ अदब अली अपनी बेटी बाला ख़ातून का निकाह उस्मान से करते हैं तो वह उन्हें एक दूसरे के जोड़ और बराबरी का देखकर ही उनका निकाह करते हैं। एक इंसान के 'कुफ़ू' यानी बराबरी के कई इंसान होते हैं लेकिन कोई भी अल्लाह के कुफ़ू का नहीं है।

*हैरत की बात यह है कि* सूरह इख़्लास की चारों आयतें 'अल्लाह' के वुजूद का परिचय देती हैं और इसी के साथ ये चारों आयतें #अल्लाह नाम के बारे में भी पूरी उतरती हैं।

1. अल्लाह नाम अहद है यानि यह नाम एक होकर एक है। अल्लाह नाम दो शब्दों से मिलकर नहीं बना।

2. अल्लाह नाम अपना अर्थ देने में दूसरे किसी शब्द पर निर्भर नहीं है। यह नाम अपना अर्थ देने के लिए अपने आप में काफ़ी है।

3. न अल्लाह नाम किसी शब्द या धातु से निकला है और न अल्लाह नाम से किसी शब्द ने जन्म लिया है।

4. कोई भी दूसरा नाम अल्लाह नाम के कुफ़ू (बराबरी) का नहीं है। अपनी तरह का यह अकेला नाम है।

*इस नाम की हैरत में डालने वाली ख़ासियत यह है कि* अगर इस नाम से एक एक हरफ़ हटाते रहें, तब भी यह नाम अपने अंदर अल्लाह की हस्ती की तरफ़ ठीक ठीक इशारा और अर्थ देता रहता है।

जैसे कि अल्लाह नाम में से अलिफ़ हटा दें तो लिल्लाह للہ रहता है। जिसका अर्थ 'अल्लाह का' है।

अब इसमें से एक और हरफ़ लाम हटा दें तो 'लहु' शब्द बचता है। जिसका अर्थ है 'उसी का'।

अब इसमें से फिर एक हरफ़ लाम हटा दें तो 'हु' बचता है और 'हु' का अर्थ है 'वह'।

इन चारों शब्दों से क़ुरआन मजीद में आयतें शुरू होती हैं और वहाँ ये चारों शब्द अल्लाह के वुजूद की तरफ़ इशारा देते हैं जैसे कि

1.अल्लाहु ला इलाहा इल्ला हुवल हय्युल क़य्यूम।

اَللّٰهُ لَاۤ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ١ۚ اَلْحَیُّ الْقَیُّوْمُ

-क़ुरआन मजीद 2:255

2.लिल्लाहि माफ़िस्समावाति वमा फ़िल् अर्ज़।

لله ما في السماوات وما في الأرض

-क़ुरआन मजीद 2:284

3.लहु माफ़िस्समावाति वमा फ़िल् अर्ज़ि वमा बैइनाहुमा वमा तहतस्सरा।

لَهٗ مَا فِی السَّمٰوٰتِ وَ مَا فِی الْاَرْضِ وَ مَا بَیْنَهُمَا وَ مَا تَحْتَ الثَّرٰى(۶)

-क़ुरआन मजीद, सूरह ताहा 6

4. हुवल्लाहुल् लज़ी ला इलाहा इल्ला हू।

ھُوَ اللّٰہُ الَّذِیْ لَآاِلٰہَ اِلَّا ھُوَ

-क़ुरआन मजीद, सूरह हश्र 22

अरबी के हरफ़ 'हा' (H) की वजह से अल्लाह नाम अपने आख़री हरफ़ तक रब के वुजूद की तरफ़ इशारा देता है। इसीलिए अल्लाह के नामों की तासीर पर रिसर्च करने वाले बहुत से ज़िक्र करने वालों ने 'हू' को इस्मे आज़म #IsmeAzam लिखा है।

इस्मे आज़म अल्लाह का वह सबसे बड़ा नाम है जो अधिकतर आलिमों से पोशीदा है और उस नाम की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि उसके साथ जो भी दुआ माँगी जाती हे, वह क़ुबूल होती है, चाहे दुआ करने वाला कितना ही गुनाहगार हो।

अब यह *इस्मे आज़म* है या नहीं?

यह बात आप ख़ुद इसके साथ दुआ करके देख सकते हैं।

*#इख़्लास और #यक़ीन के साथ* इस बरकत वाले नाम के साथ *दुआ करें* और इस नाम की तासीर देखें।

#अगरअबभीनाजागेतो ?

#ईद का #ख़ुत्बा #हिदायत वाला

 #ईद का #ख़ुत्बा #हिदायत वाला

मैंने #eidulfitr21 की नमाज़ कोविड19 के #लोगडाऊन की वजह से इमाम बनकर अपने आँगन में अदा की। मेरे पीछे मेरी फ़ैमिली ने नमाज़ बतौर शुक्र अदा की। #अल्हम्दुलिल्लाह!


नमाज़ के बाद मैंने ख़ुत्बा दिया। जिसे मैं आपके फ़ायदे के लिए यहाँ दर्ज कर रहा हूँ। मैंने अपने बच्चों को बताया:

#अल्लाह ने #क़ुरआन #मजीद #रमज़ान के महीने में नाज़िल किया। इसलिए अल्लाह ने रमज़ान को सब महीनों का सरदार ठहराया।

अल्लाह ने क़ुरआन मजीद रमज़ान की एक ख़ास रात में, #शबे_क़द्र में नाज़िल किया।

इसलिए अल्लाह ने #ShabeQadr को हज़ार महीनों से ज़्यादा बेहतर ठहराया।

उर्दू की तरह अरबी में भी बहुत ज़्यादा की तादाद बतानी हो तो हज़ार का लफ़्ज़ बोलते हैं। #शबेक़द्र के हज़ार महीनों की रातों से बेहतर होने का मतलब है कि

#शब_ए_क़द्र बहुत ज़्यादा रातों से अफ़ज़ल और श्रेष्ठ है।

रमज़ान के महीने और #लैलतुल_क़द्र को बड़ाई मिलने की वजह क़ुरआन मजीद है।

अल्लाह ने लोगों को रमज़ान के महीने और लैलतुल_क़द्र की इस बड़ाई की तरफ़ इसलिए ध्यान दिलाया है ताकि लोग क़ुरआन मजीद #HolyQuran की बड़ाई और इम्पोर्टेंस पर ध्यान दें।

रमज़ान का महीना और लैलतुल_क़द्र गुज़र जाते हैं लेकिन #रब का शुक्र है कि क़ुरआन मजीद हमारे पास ही रहता है ताकि हम उसे पढ़ें, समझें और अपने जीवन का मक़सद हासिल करें।

वह लम्हा हमारे जीवन का सबसे बेहतर लम्हा होता है,

जब हम अपने #जीवन_का_मक़सद हासिल करते हैं।

हमारे जीवन का मक़सद क्या है?

हमारे जीवन का स्वाभाविक मक़सद सिर्फ़ यही है कि हमारा भला हो जाए।

हम अपने बच्चों के लिए दिन रात सिर्फ़ इसीलिए काम करते हैं कि हमारे बच्चों का भला हो जाए। हम अपने समाज और अपने देश का भला चाहते हैं।

क़ुरआन मजीद हमें वह सीधा रास्ता दिखाता है जिससे हमारा, हमारे परिवार का, हमारे समाज का और हमारे देश का भला होता है।

पूरे साल हमें भलाई के इसी सीधे रास्ते की डीटेल जानने के लिए बार बार #पवित्र_क़ुरआन पढ़ना ज़रूरी है। यह क़ुरआन हमारी #आत्मा में होना ज़रूरी है ताकि जब क़ुरआन हमारे हाथ में न हो और हम इसे अपनी आँखों से न पढ़ सकें, तब भी हम इसे अपनी आत्मा में पढ़ सकें और इसकी #आयतों पर विचार कर सकें।

जानवर और आदमी में फ़र्क़ करने वाली चीज़ विचार शक्ति और ज्ञान है। ज्ञान इंसान को पशुओं से श्रेष्ठ बनाता है।

सो #परमेश्वर का #ज्ञान पढ़ो, विचार करो, भलाई के सीधे रास्ते पर चलो। इस तरीक़े से तुम श्रेष्ठ मनुष्य बन जाओगे। सदा से श्रेष्ठ मनुष्यों की यही रीति चली आई है।

क़ुरआन आपको यह शक्ति देता है कि आप जिस लम्हे को चाहें, बेहतर और बड़ाई वाला लम्हा बना दें। आप जिस लम्हे को बेहतर और बड़ाई वाला लम्हा बनाना चाहें, आप उसमें क़ुरआन पढ़ें।

#अल्लाहपैथी #allahpathy #मिशनमौजले 

#अगरअबभीनाजागेतो ?

आप अपने कमेंट में बताएं कि आपको यह ख़ुत्बा कैसा लगा?