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Monday, June 28, 2021

नास्तिकों और आर्य समाजियों के साथ बहस में क्या कहें?

बहस में सामने वाले को हराना एक कला है। इसके लिए कमज़ोर बिंदु तलाश कर उस पर बात की जाती है। जिससे सामने वाला बहसी घबरा जाता है कि यह बात मैं पहली बार सुन रहा हूँ।

मिसाल के तौर पर जब एक नास्तिक मुझसे बहस करने आता है तो मैं उसका जायज़ा लेता हूँ और यह पाता हूँ कि मात्र बुद्धिजीवी दिखने की सनक में यह नास्तिकों जैसी बातें कर रहा है वर्ना यह आदमी भी धर्म का नियम मानता है और उस पर चलता है।

Dharm ne sikhaya h ki Apni maa aur apni beti se shadi na karo. Ye rishtey pavitra hotey hain. 

Nastik bhi dharm ke is niyam ka palan karte hain

Aur in rishton ki pavitrta mein vishvas rakhte hain. jabki nastikta rishton ki pavitrta nhi sikhati.

Nastik log nastik vichardhara ke khilaf jakar Dharm ke niyam ka palan kartey hain.

Mai is baat par in intellectuals ki tareef karta hun ki woh Nastikta par chalkar samaj ko ganda nhi kartey.

Main inhe bhi ek prakar ka vidrohi dharmik manta hun.

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वसीम भाई ने मेरा यह लेख पढ़कर मुझे कमेंट किया कि

सही कहा आपने।

मैंने यही बात एक नास्तिक को कही थी तो कहने लगा भाई बहन शादी हम धर्म के कारण नहीं बल्कि मानव व समाज के अनुभव के कारण और जेनेटिक बीमारियों से बचने के कारण नहीं करते।

मैंने कहा कल को विज्ञान की नई रिसर्च आ जाये कि ऐसा करना सेफ है तो करोगे।

कहने लगा कल की कल देखगें। ☺️😊

मैंने उन्हें जवाब दिया कि

वसीम भाई,

कई बार एक स्त्री दो बच्चों के बाद नसबंदी करा लेती है और उसके बाद वह विधवा हो जाती है। उसका मक़सद बच्चे पैदा करना नहीं होता बल्कि केवल शारीरिक और भावनात्मक संतुष्टि करना होता है। ऐसी स्त्री का बेटा या पिता या भाई नास्तिक हो तो क्या वह नास्तिक इस पीड़ित नारी के दुखों का हरण करने के लिए उससे शादी करेगा?

जिसे विज्ञान और नास्तिकता दोनों ही मानव जाति के लिए सुरक्षित बताएंगे।

यह प्रश्न अभी उपस्थित है तो इसे नास्तिक अभी देख लें। आगे देखने की ज़रूरत नहीं है।

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जब एक आदमी अचानक आपसे आपके धर्म पर बहस शुरू करता है तो वह या तो सोशल मीडिया के वायरल विचारों को बिना जाने दोहराता है कि मुस्लिम 4 बीवियां करता है और उनसे 40 बच्चे पैदा करता है। ये बे-अक़्ल लोग होते हैं। ये दिन रात मुस्लिमों के साथ उठते बैठते हैं। ये मुस्लिमों के घरों में जाते हैं और उन्हें अपने घरों में बुलाते हैं। इन्होंने जीवन में दो चार मुस्लिम भी नहीं देखे होते, जिनके  4 बीवियाँ और 40 बच्चे हों। तब भी ये ऐसी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और उस पर आपसे सवाल करते हैं।

या फिर वह किसी संस्था का प्रशिक्षित कार्यकर्ता होता है और वह आपको हराने की तकनीक सीखा हुआ है। वह उस तकनीक को आप पर आज़माने के लिए बेचैन है।

इस तरह आपसे इस्लाम पर बहस करने वाले 2 तरह के लोग हुए:

1. बे-अक़्ल और

2. ट्रेन्ड वर्कर्स

बे-अक़्ल लोगों के और ट्रेन्ड वर्कर्स के सभी सवालों के जवाब बहुत सी किताबों और वीडियोज़ में दिए जा चुके हैं। आप उन किताबों और वीडियोज़ को देखकर उनके जवाब दे सकते हैं! आप बार बार जवाब देंगे तो आप भी जवाब देने में ट्रेन्ड हो जाएंगे और जब आप ट्रेन्ड हो जाएंगे तो आप इन्तेज़ार करेंगे कि कोई आकर मुझसे इस्लाम पर बहस ही कर ले ताकि मैं उसे हक़ीक़त बता सकूं।

अब आप दूसरे धर्म के प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की मानसिकता और जोश को समझ सकते हैं कि वे आपसे अपने धर्म की रक्षा कर रहे हैं और आप उनसे अपने धर्म की रक्षा कर रहे हैं।

पहले ये बहसें कम थीं। अब पहले से ज़्यादा हैं और ये लगातार बढ़ रही हैं।

जब आपका तजुर्बा काफ़ी बढ़ जाएगा। तब आप इन दोनों तरह के लोगों को नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि ये वक़्त ज़्यादा चूस लेते हैं और फिर भी उन्हीं बातों को बार बार पूछते हैं। जिनके जवाब आप दे चुके होते हैं।

इसलिए अगर आप इनके जवाब नहीं देते या वे किताबें नहीं पढ़ते, जिनमें इन वायरल सवालों के जवाब हैं तो भी ठीक है।

...और अगर आप बिना कुछ पढ़े उनके हर सवाल का जवाब देना चाहें तो भी दे सकते हैं।

मान लीजिए एक आर्य समाजी भाई आपसे आपके धर्म पर सवाल करता है तो आप कह दें कि मुझे अपने धर्म की जानकारी कम है लेकिन मैं अपने धर्म पर संतुष्ट हूँ। आपको अपने सवालों के जवाब चाहिएं तो आप किसी ऐसे आलिम से सवाल करें, जिसे अपने और आपके, दोनों के धर्म की जानकारी हो। आपकी बातों से लगता है कि आप भी अपने धर्म से पूरी तरह संतुष्ट हैं?

वह कहेगा कि हाँ, मैं अपने धर्म से संतुष्ट हूँ।

तब आप उससे कहें कि जब आप अपने धर्म से संतुष्ट हैं तो आप उस पर चलें भी तो सही। जैसे कि आप अपने धर्म के चार आश्रमों का और‌ 16 संस्कारों का पालन करें। सबसे पहला आश्रम ब्रह्मचर्य आश्रम है। आप इस पर चलें तो मुझे ख़ुशी होगी। आप दोनों टाईम हवन करें। मुझे लगेगा कि हाँ, ऐसा करना संभव है।

बात यह है कि ब्रह्मचर्य आश्रम में किसी पराई लड़की को देखना, सुनना और छूना मना है। आर्य समाजी को पढ़ाई, नौकरी और मनोरंजन सब करना है। वह पराई लड़की को देखने, सुनने और छूने से बचने के संकल्प पर चला तो उसकी पढ़ाई, कमाई और मनोरंजन सब चला जाएगा। दो टाईम हवन करना भी उसके बस की बात नहीं है। उसके बस की बात केवल इस्लाम की कम जानकारी रखने वालों से बहस करना है और वह बहस आपने टाल दी और आपने उसे बेमक़सद कर दिया।

उसका मक़सद अपने धर्म पर चलना नहीं है बल्कि आपसे बहस करके आपको हराना है। ऐसी फ़ालतू बहसों को यही एक जवाब देकर टाल दिया करें।

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आप जिस भी दीन-धर्म की रक्षा करना चाहें तो उसकी रक्षा का केवल एक तरीक़ा है और वह है उसकी शिक्षाओं पर चलना।

जिस धर्म की शिक्षाओं पर चला गया। वह धर्म बच गया। लोगों ने जिस धर्म की शिक्षाओं पर चलना छोड़ दिया। वह मिट गया।

आप दूसरे लोगों से बहस करके अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते।

दूसरे लोग आपको आपके धर्म से नहीं हटा सकते, जब तक कि आप ख़ुद न हटना चाहें।

जब दूसरे लोग आपको आपके दीन से हटाने की कोशिश करते हैं तो आपके अंदर उस दीन पर जमने का जोश‌ और ज़्यादा बढ़ता है और अपनी ग़फ़लत की वजह से आप जिस दीन से दूर हो चुके थे। आप उसे पूरी शिद्दत से पकड़ लेते हैं।

दीन से हटाने की कोशिशें मोमिनों को ईमान पर ज़्यादा शिद्दत से जमा रही हैं।

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दीन धर्म पर डिबेट में, बहस में एक आदमी के जीतने से यह तय नहीं होता कि उसका पक्ष सत्य है। उसका दीन धर्म सच्चा है क्योंकि एक ही धर्म के पक्ष में दो आदमी दो जगह डिबेट करें तो एक आदमी हार जाता है तो दूसरा जीत जाता है। डिबेट में जीतना धर्म के गुण पर नहीं बल्कि बहस करने वाले के गुण और अभ्यास पर डिपेंड करता है।

जब किसी धर्म का एक ट्रेन्ड वर्कर आपसे दीन धर्म पर बहस शुरू करता है तो वह हमेशा उस बिन्दु पर बात करेगा। जिसमें उसकी प्रैक्टिस बहुत है। आप उससे उसी मैदान में बहस करेंगे तो वह आप पर भारी पड़ेगा या हारने में आपको थका देगा। अक्सर उसे सुधरना उसके बाद भी नहीं है।

आम तौर पर आदमी उसी बिन्दु पर बहस में जवाब देने लगते हैं, जिस पर पहले ने बात शुरू की है। मैंने ऐसे लोगों को अपने मनोरंजन का साधन बना लिया है। मैं सबसे पहले उसे उस विषय से अलग ले जाता हूँ, जिसमें उसकी प्रैक्टिस ज़्यादा है और वह जीतने के जोश में सजग नहीं होता। वह उधर चल पड़ता है, जिधर मैं ले जाता हूँ और फिर वह निरूत्तर हो जाता है।

मज़ेदार क़िस्सा:

एक दिन एक आर्य समाजी भाई ने मुझसे मैसेंजर में सवाल किया कि 'परमेश्वर निराकार है या साकार?'

मेरी जगह कोई दूसरा मुस्लिम होता तो वह तुरंत उसे समझाने लगता की परमेश्वर कैसा है?

मुझे पता है कि आर्य समाजी को बहस की लत होती है और उसे समझना कुछ नहीं होता। मैं इनके साथ फ़ालतू बहस में समय नहीं खपाता।

मैंने अपनी डेवलप की हुई तकनीक उस पर प्रयोग करते हुए कहा कि परमेश्वर को ख़ुद पता है कि वह कैसा है। यह प्रश्न आप मुझसे क्यों कर रहे हैं?

उसे इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। उसका माइंड बहस के उस ढर्रे से अलग हट गया, जिसका वह आदी था।

उसने कहा कि मैं गुरूकुल में शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ। मैं आपसे तर्क वितर्क करके ब्राहमण बनना चाहता हूँ।

मैंने उस भाई से पूछा कि आपने कितना पढ़ लिया है?

उसने कहा कि अभी मैंने एक दर्शन पढ़ा है।

मैंने उससे पूछा कि जब आप गुरूकुल में एक दर्शन पढ़कर ब्राह्मण नहीं बन पाए तो आप मुझसे बहस करके कैसे ब्राह्मण बन जाएंगे?

सवाल करना आसान काम होता है। सवाल करने वह आया था। मैंने उसे उसके सवाल का जवाब नहीं दिया और अब उससे सवाल मैं कर रहा था और वह मुझे संतुष्ट कर रहा था। यह मुझ पर निर्भर हो चुका था कि मैं उसके उत्तर से संतुष्ट हो जाऊँ या उसके जवाब में से कोई बात पकड़कर फिर एक नया सवाल कर दूँ।

मैंने उस आर्य समाजी भाई से कहा कि मैं अपने दीन के अनिवार्य कर्तव्यों नमाज़, ज़कात और रोज़ा आदि का पालन करता हूँ। अगर आपको मुझसे बहस करनी है तो आपको अपने वैदिक धर्म के अनिवार्य कर्त्तव्यों का पालन करके मेरे बराबर की हैसियत में आना पड़ेगा। जब आप मेरी बराबरी की हैसियत में आ जाएं तो आप मुझसे बहस कर लें। क्या आप दोनों टाईम हवन करते हैं?

वह पहले तो टालता रहा लेकिन फिर उसने मान लिया कि वह दो टाईम हवन नहीं करता।

मैंने कहा कि आर्य समाजी वैदिक धर्म के अनुसार जो दो टाईम परमेश्वर का ध्यान और हवन नहीं करता उसे शूद्रवत् समझकर अर्थात् मूर्ख समझकर सभा से बाहर कर देना चाहिए।

'और जो ये दोनों काम सायं और प्रातःकाल में न करे उस को सज्जन लोग सब द्विजों के कर्मों से बाहर निकाल देवें अर्थात् उसे शूद्रवत् समझें।।'

-सतयार्थप्रकाश, चतुर्थ समुल्लास 


मैंने कहा कि शूद्र का अर्थ आप लोग मूर्ख बताते हैं। मूर्ख से तर्क वितर्क करने के लिए न वेद कहता है और न क़ुरआन। जब तक आप दोनों समय  परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र नहीं करते। तब तक आप शूद्र अर्थात मूर्ख रहेंगे, ब्राह्मण नहीं बन सकते और न ही आपको किसी से विद्वानों की तरह बहस करने का अधिकार है।

उस आर्य समाजी भाई ने इस बात को स्वीकार किया कि मेरी बात सही है।

आपने देखा कि एक तकनीक के प्रयोग से वह विद्वान शूद्र सिद्ध हो गया, जोकि मुझसे बहस करके ब्राह्मण बनना चाहता है।

आर्य समाजी परमेश्वर के निराकार होने पर महीने भर बहस कर सकता है परन्तु अपने धर्माचरण पर दो मिनट में शाँत हो जाएगा।

परमेश्वर कैसा है? इस पर किसी आर्य समाजी से बात करने से पहले यह ज़रूर देख लें कि वह ख़ुद कैसा है और क्या करता है??

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एक आर्य समाजी भाई मेरे मित्र हैं। वह एक वैद्य हैं। मैं उनका बहुत ज़्यादा आदर उनके अच्छे स्वभाव के कारण करता हूँ। वह भी मुझसे बहुत प्रेम करते हैं और रोज़ ही मुझे व्हाट्स एप के ज़रिए शुभकामनाओं के मैसेज करते हैं।

मैं एक दिन सलीम भाई की दवाओं की दुकान पर गया तो सलीम भाई ने मुझे आर्य वैद्य जी से मिलवाया। मैंने उनसे बात की तो पता चला कि वह दोनों समय हवन करते हैं। यह मेरे लिए सचमुच हैरत की बात थी। बहुत ही कम आर्य समाजी दोनों समय ध्यान और हवन करते हैं।

मैंने उनसे जितनी भी देर बात की। मुझे यही लगा कि मैं एक बहुत अच्छे इंसान से बात कर रहा हूँ। सनातनी पंडितों से बात करते हुए मुझे ऐसा सैकड़ों बार फ़ील हो चुका है लेकिन किसी आर्य समाजी के साथ बात करते हुए ऐसा पहली बार फ़ील हुआ। उन्होंने मेरी बात का, इस्लाम और क़ुरआन का खंडन नहीं किया। बिना खंडन वाला आर्य समाजी मैं पहली बार देख रहा था।

मैंने हैरत ज़ाहिर करते हुए आर्य बंधु से कहा कि आप मेरी बातों में कमियाँ क्यों नहीं निकाल रहे हैं? आर्य समाजियों का यह स्वभाव तो नहीं होता।

आर्य वैद्य जी ने कहा कि मेरे पिताजी आर्य समाजी थे। वह एक दुकान करते थे। जो भी व्यक्ति उनके पास आता था। वह उसके धर्म-मत में कमियाँ बताया करते थे। परिणाम यह हुआ कि लोगों ने उनके पास आना बंद कर दिया और वह अलग थलग पड़  गए थे। इससे शिक्षा लेकर मैंने अपना स्वभाव बदल लिया है।

एक दिन वह अपनी पत्नी के साथ मेरे घर तशरीफ़ लाए। उनकी पत्नी का स्वभाव उनसे भी ज़्यादा अच्छा है। उनकी पत्नी एक समाज सेविका हैं और पूरा ज़िला उन्हें जानता है। उन दोनों ने मुझसे अपने घर आने का बार बार आग्रह किया। उसके बाद भी वे दोनों फ़ोन पर मुझे अपने घर बुलाते रहे। एक दिन मैं उनके घर गया और जब नमाज़ अदा करने का वक़्त आया तो उन्होंने मुझे पानी, चादर और एक रूम दिया। जहाँ मैंने ऐसे ही शांति से नमाज़ अदा की, जैसे मैं अपने घर में नमाज़ करता हूँ।

मेरे आर्य वैद्य मित्र जी ने पूरी ज़िन्दगी ईमानदारी से मेहनत करके जायज़ तरीक़े से थोड़ा कमाया और उसे अपने बच्चों पर लगाया। उनके लड़के भी पढ़ लिखकर समाज में अच्छी हैसियत में आ गए। अब कुछ समय पहले वैद्य जी नोएडा चले गए हैं। वह नोएडा से भी मुझे मैसेज और कॉल करते रहते हैं।

मैं उनकी मुहब्बतों का दिल से बहुत ज़्यादा शुक्रगुज़ार हूँ।

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आर्य समाजी प्रचारक अपनी मान्यता के अनुसार सत्य का मंडन और असत्य का खंडन करने को बहुत उतावला होता। यह आर्य समाज की शक्ति है। जिसकी वजह से वह पहचाना गया। जिसकी वजह से वह आगे बढ़ा।

और‌ यही उसकी कमज़ोरी भी है। जिसकी वजह से वह आगे नहीं बढ़ रहा है। जिसकी वजह से आम हिंदू समाज ने उसके तरीक़े को एक साईड कर दिया।

जब एक आर्य समाजी अपनी नज़र में असत्य का खंडन कर रहा होता है तो वह पौराणिकों, सिखों, बौद्धों, जैनियों, ईसाईयों और मुस्लिमों के महापुरुषों के नाम बहुत ज़्यादा तिरस्कारपूर्ण तरीक़े से लेता है और उनकी मज़ाक़ भी उड़ाता है। जिससे उन धर्मों के मानने वालों के दिलों में आर्य समाजी प्रचारक के लिए तीव्र घृणा पैदा होती है और उनका दिल उस आर्य समाजी प्रचारक के लिए, उसके संदेश के लिए पूरी तरह बंद हो जाता है। 


इस तरह ख़ुद आर्य समाजी प्रचारक ही अपने विशेष स्वभाव के कारण लोगों को उन्हीं के धर्म पर जमाए रखते हैं।

दूसरे धर्म के लोगों को प्रभावित करने वाली चीज़ मधुर भाषा, सम्मान और सेवा है।

आम तौर पर आर्य समाजी प्रचारक से एक ईसाई और एक मुस्लिम को ये तीनों बातें नहीं मिलतीं। सो वे उससे प्रभावित नहीं होते। इसके बजाय उन्हें आर्य समाजी प्रचारक से कठोर वचन और तिरस्कार मिलता है तो वे उसे अपना दुश्मन समझने लगते हैं। इस तरह एक आर्य समाजी अपने धर्म प्रचार का अंतिम संस्कार ख़ुद ही कर लेता है।

#Islam धर्म का पक्ष रखने वाले #muslim नौजवान आर्य समाजियों के तरीक़े के मुताबिक़ हरगिज़ किसी धर्म की और उस धर्म के महापुरूषों की आलोचना न करें वर्ना उनके दिलों के दरवाज़े भी बंद हो जाएंगे।

हरेक धर्म का आदमी अपने महापुरुषों से भावनात्मक स्तर पर बहुत गहरा जुड़ाव रखता है और इस स्तर पर जुड़े हुए लोगों से तर्क और आलोचना करते हुए उनकी भावनाओं के सम्मान का बहुत ज़्यादा ख़याल रखना चाहिए।

मैं स्वामी दयानंद जी का नाम जहां भी लिखता हूँ, अपने आर्य समाजी भाईयों की भावना को ध्यान में रखते हुए आदरसूचक शब्दों के साथ लिखता हूँ।

#कहने_का_मक़सद यह है कि गुड़ न दो तो कम से कम गुड़ जैसी बात तो करो।

#dawah_psychology कहती है कि दूसरे धर्म के लोगों को आपसे बात करके ख़ुशी महसूस होनी चाहिए।