मनुष्य इस धरती पर कब और कैसे आया?
इस पर कुछ मान्यताएं हैं और कुछ लोग खोज कर रहे हैं लेकिन यह मनुष्य इस धरती पर जब और जैसे आया, आज वह इस धरती पर मौजूद है।
प्राचीन काल में हिंसक जंगली जानवर मनुष्यों को खा जाते थे। उनसे रक्षा के लिए मनुष्य समूह में रहने लगे और हर समूह ने अपना एक मुखिया बना लिया। इसके बाद ये मुखिया ही हमारी समस्या बन गए। ये मुखिया दूसरों को ग़ुलाम बनाने के लिए दूसरे समूह के मनुष्यों को मारने लगे। मनुष्यों ने युद्धों में इतने मनुष्य मार डाले, जितने जंगली जानवरों ने नहीं मारे थे। मनुष्यों ने मनुष्यों की खोपड़ी में कीलें ठोंकी, हाथ-पैर काटे और आँखों में तेज़ाब डाल दिया। आज भी लड़कियों पर तेज़ाब फेंकने की घटनाएं हो रही हैं। अच्छे-भले घर की लड़कियों को म्यूज़िक पार्टी और वेब सीरीज़ में काम देने के बहाने वेश्यावृत्ति की दलदल में धकेलने वाले भी जब तब प्रकाश में आते रहते हैं। जो अच्छे वकीलों (?) की सेवाएं लेते हैं। अच्छा वकील सेटलमेंट अच्छा करा देता है। गवाह ख़रीद लिए जाते हैं या डरा दिए जाते हैं और मुजरिम अपने जुर्मों की सज़ा से बच जाते हैं।
ताज़ा हालात की चर्चा करें तो चीन ने अपनी लैब से जो कोरोनावायरस छोड़ा है या उसके आरोप के मुताबिक़ अमरीकी सैनिकों ने वुहान में खेल के दौरान कोरोनावायरस छोड़ा है; उससे भारत में लाखों लोग मारे गए और प्रोडक्शन ठप्प हो गया। लोग बेरोज़गार हो गए। जिससे भारत कमज़ोर हुआ। सूचनाओं के अनुसार चीन पहले ही भारत-चीन सीमा पर इतनी युद्ध सामग्री इकठ्ठा कर चुका है, जो 2 साल से ज़्यादा चलेगी। यह सब युद्ध का एक सुनियोजित षड्यंत्र हो सकता है।
आज आदमी को किसी जानवर से नहीं बल्कि आदमियों से ख़तरा है।
पहले यह माना जाता था कि जब मनुष्य शिक्षित होगा और विज्ञान पढ़ लेगा, तब सब ठीक हो जाएगा। वैज्ञानिक बनकर आदमियों ने एटम बम बना लिए, जैविक और रासायनिक बम बना लिए। आधुनिक शिक्षा पाकर आदमी ने ज़्यादा आदमियों को मारने की शक्ति हासिल कर ली है और यह शक्ति लगातार बढ़ रही है।
आदमी अपने बच्चों के पालन-पोषण और उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित है।
यही सवाल आदमी के सामने पहले दिन था और यही आज है। इस बेसिक सवाल की अहमियत समझें!
पिछली पोस्ट से जोड़कर आगे पढ़ें:
मनुष्य ने खाल से शरीर ढका और बाद में कपड़े बनाए। मक़सद शरीर को बचाना था।
मनुष्य ने गुफ़ा में पनाह ली। बाद में पेड़ पर घर बनाए। आगे चलकर गांव और शहर बसाए। मक़सद परिवार को जानवर, डाकू और मौसम से बचाना था।
मनुष्य ने जंगल से फल चुने और शिकार किया। बाद में पशु पाले और फ़सल उगाई। मक़सद अपने परिवार को भोजन देना था। आज भी कोई सैनिक ईमानदारी से अपनी जान हथेली पर लिए सरहद पर खड़ा है तो वह अपनी सैलरी अपने परिवार को भेजता है और जो डाकू चम्बल में पड़े रहते थे, वे भी लूट का माल अपने परिवारों को भेजते थे।
लिबास, मकान, शिकार, फ़सल, सैलरी और लूट यह सब करने का मक़सद अपनी और अपने परिवार की हिफ़ाज़त है।
जितने भी धर्म और दर्शन हैं, सबने व्यक्ति और उसके परिवार के कल्याण को केंद्र में रखा है।
आप जब अपने धर्म पर चलना शुरू करें तो सबसे पहले यही देखें कि इस धर्म के नियमों पर चलकर आपका और आपके परिवार का भला हो रहा है या नहीं?
दीन-धर्म का केंद्रीय विषय मनुष्य का व्यक्तिगत और उसके परिवार का और पूरे समाज का, ख़ासकर समाज के कमज़ोर वर्गों का, औरतों, बच्चों, अनाथों, बेघरों और क़र्ज़दारों का कल्याण करना है।
दीन-धर्म का जो आलिम/गुरु इन विषयों पर काम न करे और दूसरी जानकारियां बहुत दे कि एक बार यह हुआ था और उसने यह किया था और मरने के बाद यह होगा।
आप उसे दूसरे लोगों के लिए छोड़ दें, जिन्हें दीन-धर्म की सही समझ नहीं है।
जो आलिम/गुरु आपका दिल दुनिया से उचाट कर दे, आपके मन में वैराग्य जगा दे कि जगत निस्सार है, दुनिया में कुछ नहीं रखा; आप जान लें हमें पिछड़ा और निर्धन बनाने वाले यही लोग हैं। ये दुनिया के किसी पद पर पहुंचने का जोश ही ख़त्म कर देते हैं। ये लोग अपने लिए ठीक हैं कि अपनी ज़िंदगी चाहे जितनी इबादत, रोज़े और ज़िक्र में खपा दें लेकिन ये लोग आपके कल्याण के लिए ठीक नहीं हैं क्योंकि आपका लौकिक कल्याण इनके लिए कोई अहमियत नहीं रखता।
आपकी कमाई हो रही है या नहीं?, आपके बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं?, आपका परिवार बदमाशों के हमले से सुरक्षित है या नहीं?, ये लोग इन अहम मसलों पर तवज्जो नहीं देते।
अल्लाह आपके लौकिक कल्याण (दुनिया में फ़लाह wellness) के लिए आपसे कहता है कि
'दुनिया में से अपना हिस्सा न भूल'
“जो कुछ अल्लाह ने तुझे दिया है उससे परलोक का घर बनाने का इच्छुक हो और दुनिया में अपना हिस्सा मत भूल और भलार्इ कर जैसे कि अल्लाह ने तेरे साथ भलार्इ की है और ज़मीन में बिगाड़ न चाह, यक़ीनन अल्लाह जमीन में बिगाड़ व फ़साद करने वालों को पसन्द नहीं करता”।
-(क़ुरआन 28 : 77)
मैंने बचपन में देखा है कि देश में कुछ नफ़रती बुड्ढे ऐसे थे जो इस्लाम के प्रति नफ़रत की बातें करते थे। वे थोड़े से लोग थे। कोई उनकी बात सुनता न था।
अब वही नफ़रत मैं फ़ेसबुक पर नौजवानों की पोस्ट और कमेन्ट में देखता हूं। अपने धर्म की रक्षा के नाम पर नफ़रती बुड्ढे भी फ़ेसबुक पर भड़काऊ भाषण देते हुए देखे जा सकते हैं।
इसमें थोड़ी सी ग़लती मुस्लिम धर्मगुरुओं की भी है।
हरेक देश के लोगों को अपनी भाषा समझ में आती है और बचपन से सुन सुन कर उससे उन्हें विशेष प्रेम भी हो जाता है। वे बचपन से अपने धर्मगुरुओं से यह भी सुनते आए हैं कि 'सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका आज्ञापालन ही मनुष्य का धर्म है।'
यह बात उन्हें ज्ञान की बात लगती है और यह बात सुनकर, वे इसकी मज़ाक़ नहीं उड़ाते।
इसी बात को अरबी में एक शब्द में 'इसलाम' कहते हैं।
इसलाम=सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसका आज्ञापालन ही मनुष्य का धर्म है।
हिंदी जानने वाले अरबी के किसी शब्द या नाम की मज़ाक़ उड़ाने से पहले यह ज़रूर देख लें कि उसका क्या अर्थ है?
हो सकता है कि वही बात उनके धर्म में कही गई हो और वे अज्ञान के कारण अपने ही धर्म की शिक्षा की मज़ाक़ उड़ा रहे हों।
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दीन-धर्म में दूसरों के धर्म की मज़ाक़ उड़ाने की शिक्षा नहीं दी जाती। यह शिक्षा धर्म के नाम पर लड़ाने वाले बुड्ढे देते हैं और ये दूसरों के बच्चों को झगड़ों के लिए उकसाते हैं। इसे देखकर जो लोग इन्हें चंदा देते हैं, उससे ये अपने लड़के-लड़कियों को विदेश में पढ़ाते हैं। जहाँ गर्लफ़्रेंड-ब्वायफ़्रेंड कल्चर आम है। जहाँ हरेक रेस्टोरेंट में माँस पकता है और एक ही चम्मच सब बर्तनों में चलता है। ये लोग अपने धर्म के प्रति सच्चे होते तो ये अपने बच्चों को ब्रह्मचर्य खंडित और धर्म भ्रष्ट करने वाले वातावरण में न भेजते। जब आप जागरूकता के साथ देखेंगे तो आप पाएंगे कि नफ़रत इनकी दुकान का माल है। जिसकी सप्लाई से ये बिना हाथ पैर हिलाए दौलत खींचते हैं। दौलत जमा करके ये ख़ुद को शक्तिशाली बनाते हैं। वास्तव में सारा झगड़ा ख़ुद को शक्तिशाली बनाने का है, न कि धर्म रक्षा का।
जो लोग भूखे को भोजन, अनाथ को सहारा, बीमार को दवा और पीड़ित को न्याय देने का काम करते हैं, वास्तव में वे धर्म की रक्षा करते हैं। जो ये काम नहीं करता, वह धार्मिक नहीं है, पाखंडी है।
आप धर्म और पाखंड में अन्तर करना सीखें।
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संकीर्णता, अज्ञानता और नफ़रत के कारण मोबाईल जेनरेशन के कुछ पढ़े लिखे नौजवान #अल्लाह को मुस्लिमों का परमेश्वर मानकर मज़ाक़ उड़ाते देखे जा रहे हैं। कुछ नौजवान और अधिक हद से गुज़रते हैं तो वे गालियाँ भी देने लगते हैं। कुछ लोग #पवित्र_क़ुरआन के विरुद्ध दुख देने वाली बातें बोलते हैं। वे यह काम करके ख़ुद को #राष्ट्रभक्त दिखाते हैं।
अगर आप इन्हें समझाएं कि इस काम से आप सामाजिक सद्भाव बिगाड़ रहे हैं, जो राष्ट्र-हित में नहीं हैं तो भी वे आपकी बात मानने वाले नहीं हैं।
मैं संकीर्णता, अज्ञान और नफ़रत से ग्रस्त युवाओं से यह आग्रह नहीं करता कि वे निष्पक्ष होकर कंटेट देखें और फिर न्यायपूर्वक विचार करें कि सत्य क्या है?
क्योंकि वे ऐसा करने में अक्षम बना दिए गए है। उन्हें यह समझाया गया है कि क़ुरआन बर्बर अरबों ने ख़ुद ही लिख लिया और उसमें दूसरे धर्म वालों को मारने की बातें लिख लीं और वृद्ध यति तो यहां तक कह चुके हैं कि 'मैं तो मुस्लिमों को मनुष्य ही नहीं मानता।'
मैं ऐसे विकट हालात में वृद्ध यति से तो निष्पक्षता और न्यायपूर्वक विचार की आशा नहीं करता क्योंकि वह सत्य को एक आम मुस्लिम से बेहतर जानते हैं लेकिन वह यह सब एक व्यूह रचना के कारण करते हैं। वह सब कुछ जानते हुए भी अपने चुने हुए मार्ग पर ही आगे बढ़ेंगे लेकिन अधिकतर युवाओं को सत्य का ज्ञान देकर भ्रम से मुक्त किया जा सकता है। मुस्लिम उन्हें उनकी भाषा में पवित्र क़ुरआन का संदेश सही सही समझाएं।
हल:
इसका हल यह है कि आप उनके मनोविज्ञान को समझते हुए उनकी डिक्शनरी में बात करें। वे अल्लाह का सम्मान नहीं करते लेकिन वे परमेश्वर का सम्मान ही नहीं बल्कि उसका ध्यान भी करते हैं। उससे प्रार्थना भी करते हैं।
आप क़ुरआन की आयतों में अल्लाह नाम की जगह परमेश्वर लिखकर पेश करें और #संस्कृतनिष्ठ #हिन्दी में आयतों का अनुवाद करें तो उन्हें उसमें 'ज्ञान' और 'अपनत्व' का दर्शन होगा। तब अधिकतर युवा परमेश्वर से और परमेश्वर की वाणी से नफ़रत नहीं कर पाएंगे क्योंकि उनके माइंड को उनके धर्मगुरुओं ने #संस्कृत और क्लिष्ट हिंदी बोल बोल कर प्रोग्राम्ड कर दिया है कि
ज्ञान ऐसा होता है और इस भाषा शैली में होता है।
आपको उनसे कोई सत्य बात मनवानी है तो आपको उनके #अवचेतन_मन में उसी भाषा शैली में बात पहुंचानी होगी, जिसे वे #दिव्य मानते हैं।
#atmanirbharta_coach का ऑफ़र:
अगर आप पसंद करें तो मैं आपको सूरह फ़ातिहा का एक ऐसा अनुवाद तैयार करके दिखा सकता हूँ।
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बिस्मिल्लाहिर्-रहमानिर्-रहीम
उर्दू अनुवाद: शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है।
इस अनुवाद के शब्द एक वर्ग को अजनबी लगते हैं और उनमें से कुछ उर्दू भाषा से बिदकते हैं। इसलिए जब आप हिंदी भाषियों में क़ुरआन की कोई बात समझाएं तो इस तरह के उर्दू अनुवादों से बचें।
इसके बजाय आप उन्हें दिव्य अनुवाद की भाषा में बात समझाएं:
#बिस्मिल्लाह का #दिव्य_अनुवाद
'अनंत दयावान सदा करूणाशील मनमोहन परमेश्वर के नाम से।'
अब नफ़रत करने वाले संकीर्ण, अज्ञानी युवाओं को इस अनुवाद में कोई ऐसी बात नज़र न आएगी, जिससे वे बिदकें या जिसे वे अपने हंसी-ठठ्ठे का विषय बना सकें या जिसे ग़लत बता सकें।
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#अल्लाह शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। मेरी नज़र में सबसे सही बात यह है कि आलिमों ने पवित्र #क़ुरआन और हदीसों में आए अल्लाह के 450 सिफ़ाती (सगुण) नाम जमा किए हैं। उन सबको पढ़कर जो सेंस बनता है, वह सेंस 'अल्लाह' नाम का अर्थ है।
फिर भी जो लोग अल्लाह नाम का अर्थ 'हक़ीक़ी माबूद' अर्थात 'स्तुति और उपासना का वास्तविक अधिकारी' बताते हैं, वह भी ठीक है।
#मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह को #हिंदी भाषा से विशेष प्रेम था। उन्होंने #पवित्र_क़ुरआन की कुछ आयतों का हिंदी में अनुवाद किया तो उन्होंने अल्लाह नाम का भी हिन्दी में अनुवाद किया है 'मनमोहन'
और यह अर्थ भी ठीक है।
मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान #गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह उस #अंग्रेज़ी दौर के आलिम हैं, जिसमें देवबंदी और बरेलवी जुदा न थे, एक थे और सब मौलाना फ़ज़्लुर्रहमान गंजमुरादाबादी रहमतुल्लाहि अलैह को बहुत बड़ा आलिम मानते थे और अब तक मानते हैं।
उनके अनुवाद और संकलन का नाम है मनमोहन की बातें यानी 'अल्लाह की बातें'
#मिशनमौजले रब के नाम से मौज लेना सिखाता है।
पिछली पोस्ट से आगे...
पवित्र क़ुरआन की पहली आयत शुक्र की शिक्षा देती है, जो कि वास्तव में इंसान का मक़सद है और इसी के लिए इंसान को पैदा किया गया है और यहां इसे ज़िंदगी और नेमतें देकर शुक्र का प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इसी बात की परीक्षा ली जा रही है कि क्या इसने इंसान होने का मूल स्वभाव डिस्कवर कर लिया है कि इस नेचर में 'मैं हूँ' तो मेरे होने की कोई वजह है क्योंकि यहां जो भी चीज़ है, किसी वजह से है। मेरे होने की वजह शुक्र है। मैं शुक्र करता हूँ तो मैं यहाँ फलूँगा और मैं नाशुक्री करूंगा तो कष्ट में पडूंगा और फिर भी शिक्षा लेकर अपना स्वभाव न सुधारा तो यह नेचर मुझे अपने कचरा फेंकने वाले गड्ढे में धकेल देगी और फिर उस कचरे को जला दिया जाएगा।
मैंने ये बातें पैग़म्बर साहब मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की हदीसों में और इस्लाम के आलिमों और सूफियों की किताबों में पढ़ी हैं। इब्ने तैमिया रह० ने 'सब्र और शुक्र' नाम से एक बहुत प्यारी किताब लिखी है। जिसमें इस विषय पर क़ुरआन की आयतों और हदीसों को जमा कर दिया है। इसके अलावा भी आलिमों ने बहुत सी उर्दू-फारसी और अरबी किताबों में इंसान को शुक्र के विषय में बताया है।
आम तौर से अपनी आदत की वजह से मैं और आप किसी को सूरह फ़ातिहा की पहली आयत समझाना चाहेंगे तो उसकी व्याख्या में नबियों की और आलिमों की बातें लिख देंगे। मुस्लिमों को समझाना हो यो यह तरीक़ा परफ़ेक्ट है क्योंकि मुस्लिमों को उनमें विश्वास है।
... लेकिन इस्लाम से नफ़रत करने वालों को समझाना हो तो यहाँ एक गड़बड़ हो जाती है। यहाँ पैग़म्बर साहब का नाम आ जाता है और उनके दिल में पैग़म्बर साहब से नफ़रत और दुश्मनी डाल रखी है। यहां हज़रत अबू बक्र र० और हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का नाम आ जाता है, जिन्हें मैं और आप सबसे ज़्यादा ज्ञानी मानते हैं। उन्हें नफ़रती इंसान बर्बर, जाहिल और ज़ालिम मानता है, नऊज़ूबिल्लाह!
यहाँ इब्ने तैमिया का या इमाम राज़ी का नाम आ जाता है, जिन्हें वह जानता ही नहीं है। जिन्हें वह नहीं जानता, उन्हें वह ज़र्रा बराबर सम्मान नहीं देता और जिन्हें वह सम्मान नहीं देता, वह उनकी बात मानेगा क्यों?
इसलिए जब आप क़ुरआन की किसी आयत को समझाने चलें तो यह देख लें कि इस नफ़रत के रोगी की अक़्ल किस गुरू के पास बंधक पड़ी है?
फिर आप उसी गुरू के हवाले से शुक्र की इम्पोर्टेंस समझाएंगे तो आपकी बात उसकी समझ में आ जाएगी। उसे ऐसा लगेगा जैसे कि यह बात तो वह पहले से जानता और मानता है क्योंकि वह उस बात को अपने गुरूजी की किताब में पढ़ चुका है। उसके गुरूजी इंग्लिश लिट्रेचर में वह बात पढ़कर अपनी भाषा में उसे 'आत्मसात' करके अपने शिष्यों के सामने परोस चुके हैं और यह भी कह चुके हैं कि हम तो सदा से (सनातन) यही मानते आए हैं। जब यहाँ फ़ारसी का दौर था, तब गुरुओं ने मौलाना रूमी और शैख़ सादी का साहित्य अपनी भाषा में रूपांतरित कर लिया। अमिताभ बच्चन के पिताजी हरिवंशराय बच्चन ने हाफ़िज़ के दीवान के कांसेप्ट का एक रूपांतर 'मधुशाला' के नाम से तैयार किया। जिसकी वजह से आज साहित्य में उनकी पहचान है और मधुशाला 'दीवाने हाफ़िज़' के सामने एक घटिया स्तर का साहित्य है। ये बातें केवल आपके समझने के लिए हैं, किसी मनोरोगी से कहने की नहीं हैं।
कहने का मक़सद यह है कि इस्लाम की कितनी ही शिक्षाओं का रूपांतरण करके वे उन्हें अपनी किताबों में जगह देकर मान चुके हैं और अपने शिष्यों से मनवा चुके हैं। जैसे कि 'बराबरी और भाईचारे' को हिंदी में 'समता और समरसता' का शीर्षक दे चुके हैं। काम की बातें गुरु जी ले चुके हैं और लगातार ले रहे हैं और उसे संस्कृतनिष्ठ हिंदी का रंग देकर यह दिखाते हैं कि यह सनातन है। वे आपका एहसान नहीं लेना चाहते। इसलिए वे आपका नाम नहीं देते कि यह बात हमने इनसे सीखी है। इससे उनकी महानता पर प्रश्न चिन्ह लगता है कि तुच्छ बर्बर अज्ञानी विदेशियों के पास भला ज्ञान की ऐसी कौन सी बात हो सकती है, जिसे सब विद्याओं को यथावत जानने वाले हम जैसे प्राचीन लोग उनसे सीखें?
यह दिखावा करते करते वे चुपचाप सीखते रहते हैं।
वे इसे ज़ाहिर नहीं करते कि वे आपसे सीख रहे हैं।
आप भी ज़ाहिर न करें कि आप उन्हें कुछ सिखा रहे हैं।
सारा मसला ' फ़ाल्स ईगो' अर्थात् तामसिक अहंकार का है।
आप उनके गुरुओं की किताबें पढ़ें। आपको उसमें शुक्र की शिक्षा भरी हुई मिल जाएगी। जब आप उनके गुरूजी के नाम के साथ उनके शब्दों में शुक्र का महत्व और उसके लाभ बताएंगे तो वे आपकी बात मानेंगे क्योंकि वास्तव में वह आपकी बात नहीं बल्कि अपने गुरु जी की बात मान रहे है। वे अपने धर्म की बात मान रहे हैं।
यानी कि आपको घुमाकर नाक पकड़नी है।
कैसे पकड़नी है यह हम आपको आगे बताएंगे।
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*पिछली पोस्ट से आगे... एक अहम पोस्ट*
इस्लाम से नफ़रत करने वाला किस गुरू से मुहब्बत करता है?
नफ़रत करने वाला मनोरोगी किस टाईप का है?
आसानी के लिए इन्हें 3 प्रकार का मान सकते हैं।
1. धर्मग्रंथों में आस्था रखने वाला व्यक्ति। यह धर्म की हरेक परंपरा का चाहे पालन न करे लेकिन यह उन सबका समर्थन करेगा और उनके वैज्ञानिक लाभ बताएगा। यह यज्ञ के धुएं से वायु का शुद्ध होना और पीपल द्वारा 24 घंटे आक्सीजन छोड़ना बताएगा। यह औरतों की नाक छेदने तक के वैज्ञानिक लाभ बता देगा। आम तौर से इस तरह के लोग अपने मुहल्ले के पंडित जी तक के शिष्य हो सकते हैं। इनका स्टैंडर्ड ज़्यादा ऊंचा हुआ तो ये बाबा रामदेव तक आ जाते हैं। इन्हीं में के कुछ लोग श्री श्री रविशंकर और सद्गुरु जग्गी जी के समूह में मिलते हैं।
2. दूसरे नास्तिक व्यक्ति। ये कहते हैं कि हरेक धर्मग्रंथ को जला देना चाहिए। मैंने ऐसे लोगों के घरों में ओशो रजनीश की किताबें सम्मान के साथ रखी देखी हैं। ये सब धर्मगुरुओं को मूर्ख समझते हैं। ये समझते हैं सब धर्मगुरू लूटने को बैठे हैं। ये पहले से चली आ रही धार्मिक व्यवस्था के नास्तिक होते हैं और जटिल कर्मकांड नहीं करते। फिर भी आध्यात्मिकता की बातें करते हैं और किसी न किसी गुरू को वही दर्जा देते हैं, जो दूसरे लोग परमेश्वर को देते हैं। यानी कि वास्तव में ये नास्तिक नहीं होते। ये ख़ुद को बहुत प्रबुद्ध मानते हैं। 'वेद में यह लिखा है' सुनकर ये कुछ नहीं मानते।
3. इस ग्रुप में इन दो अतियों के बीच के सब लोग आते हैं।
जब आप उनके घर जाएंगे तो वहाँ उनके श्रृद्धेय आदरणीय गुरूजी की बहुत बड़ी तस्वीर लगी होगी। जिससे आप पहचान लेगे कि यह इस गुरू की बात को ज्ञान की बात मानता है। तब उसी गुरू की बात का हवाला प्रमाण के रूप में दे सकते हैं कि इन गुरू जी ने भी शुक्र के गुण को एक बहुत बड़ा गुण माना है। तब वह मानेगा कि हाँ, शुक्र करने से कल्याण होता है। हमारा मक़सद भी यही है कि जो हमसे नफ़रत करता है, उसका कल्याण हो जाए। उसका कल्याण करने के लिए ही यह सब स्टडी की जा रही है।
अब हम मिसाल दे रहे हैं। आप इसी माडल पर आगे ख़ुद बहुत कुछ कर सकते हैं:
*अहोभाव के साथ समस्त स्तुतियाँ सब जगतों के सृष्टा, पालनहार और परिणाम के दाता मनमोहन परमेश्वर ही के लिए हैं।*
-#दिव्य_आनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत नंबर 1
व्याख्यान:
1. शिकायत नहीं अहोभाव में जियो
अहोभाव की इस दशा को थिर रखना, इससे बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। अहोभाव से बड़ा कोई सेतु नहीं है परमात्मा से जोड़ने वाला।
जो कृतज्ञ है वह धन्यभागी है। और जितने तुम कृतज्ञ होते चलोगे उतनी ही वर्षा सघन होगी अमृत की। इस गणित को ठीक से हृदय में सम्हाल कर रख लेना।
जितना धन्यवाद दे सकोगे उतना पाओगे। शिकायत भूलकर न करना।
और ऐसा नहीं है कि शिकायत करने के अवसर न आएंगे। मन की अपेक्षाएं बड़ी हैं, तो हर पल हर कदम पर शिकायतें उठ आती हैं; ऐसा होना था, नहीं हुआ। जब भी ऐसा लगे कि ऐसा होना था नहीं हुआ, तभी स्मरण करना कि भूल होती है; क्योंकि शिकायत अवरोध बन जाती है।
शिकायत का अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा पर अपनी आकांक्षा आरोपित करना चाहते हो।
और ऐसा मत सोचना कि शिकायत तुमसे न होगी, जीसस जैसे परम पुरुष से भी शिकायत हो गई थी। आखिरी घड़ी में सूली पर लटके हुए एक क्षण को निकल गई थी पुकार, आकाश की तरफ सिर उठाकर जीसस ने कहा था. 'हे प्रभु, यह तू क्या दिखला रहा है ???
सोचा नहीं होगा कि सूली लगेगी। सोचा नहीं होगा कि परमात्मा इस तरह से असहाय छोड़ देगा। पर तत्थण अपनी गलती पहचान गए, फिर आंखें झुका लीं और क्षमा मांगी और कहा. तेरी मर्जी पूरी हो!
तू कर रहा है तो ठीक ही कर रहा होगा।
और इतना ही फ़ासला है अज्ञान और ज्ञान में। इतना ही फासला है अंधेरे में और प्रकाश में।
इतना ही फासला है भटके हुए में और पहुंचे हुए में। बस इतने से फासले में सारी घटना घट गई; जरा—सी कमी रह गई थी, वह भी पूरी हो गई। जो तेरी मर्जी हो!
अहोभाव को बनाए रखना।
उसकी तरफ से थोड़ा—सा भी प्रकाश मिले, नाचना, मस्त होना।
ऊर्जा उठे, धन्यवाद में बह जाना।
और उठेगी ऊर्जा। और फूल खिलेंगे।
जितना तुम्हारा धन्यवाद का भाव बढ़ेगा, उतने ही फूलों पर फूल खिलेंगे।
-ओशो
मराै है जोगी मरौ-(प्रवचन-16)
2. आभारी होना या शुक्रिया अदा करना या कृतज्ञता आखिर है क्या? अगर हम अपनी आंखें खोलकर अपने आसपास नजर डालें और देखें कि हमें जिंदगी में जो कुछ भी हासिल हो रहा है, उसमें किन-किन चीजों और लोगों का योगदान है, तो हम उन सबके प्रति आभारी हुए बिना नहीं रह पाएंगे। जैसे आपके सामने खाने की थाली आ जाती है। क्या आपको पता है कि उस रोटी को तैयार करने में कितने लोगों का योगदान है? बीज बोने और फसल तैयार करने वाले किसान से लेकर अनाज बेचने वाले और फिर उसे ख़रीदने वाले दुकानदार तक और फिर दुकान से खरीदकर रोटी बनाने वाले तक, जरा सोचिए कि एक बनी-बनाई रोटी के पीछे कितने लोगों की मेहनत और योगदान छिपा है।
ठीक इसी तरह से आप जिंदगी के हर पहलू पर गौर करें, आपको हर पल मिल रही सांस से लेकर भोजन तक और आपको हासिल होने वाली हर चीज़, जिसका आप आनंद ले रहे हैं या अनुभव कर रहे हैं, पर गौर कीजिए। अब आप यह मत सोचिए कि हमने पैसे चुकाए और उसके बदले में यह चीज मिली तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। अगर एक प्रक्रिया की पूरी कड़ी में जुड़े लोगों ने अपना-अपना काम नहीं किया होता, तो आप चाहे जितने भी पैसे खर्च कर लेते, आपको वो सब नहीं मिल सकता था, जो मिल रहा है। जरा अपनी आंखें खोलिए और यह देखिए कि किस तरह संसार में मौजूद हर प्राणी आपके भरण पोषण में सहयोग दे रहा है। अगर आप यह सब देख पाएंगे तो फिर आपको कृतज्ञ महसूस करने के लिए कोई नजरिया विकसित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। कृतज्ञता कोई नजरिया नहीं है; कृतज्ञता एक ऐसा झरना है, जो उस समय खुद ब खुद फूट पड़ता है, जब कुछ प्राप्त होने या मिलने पर आप अभिभूत हो उठते हैं। असीम कृतज्ञता से भरा एक क्षण भी आपके पूरे जीवन को बदलने के लिए काफी है। अगर यह एक नज़रिया है तो फिर यह ठीक नहीं है, क्योंकि कृतज्ञता सिर्फ ‘धन्यवाद’ कह देना भर नहीं है।
कृतज्ञता कोई नज़रिया नहीं है; कृतज्ञता एक ऐसा झरना है, जो उस समय खुद ब खुद फूट पड़ता है, जब कुछ प्राप्त होने या मिलने पर आप अभिभूत हो उठते हैं। असीम कृतज्ञता से भरा एक क्षण भी आपके पूरे जीवन को बदलने के लिए काफी है।
दूसरे शब्दों में, अस्तित्व में जितनी भी चीज़ें फ़िलहाल मौजूद हैं, सभी आपको जीवित और सुरक्षित रखने के लिए आपस में मिलकर काम कर रही हैं। अगर आप अपने जीवन के सिर्फ एक घटनाक्रम पर ध्यान दें, तो आप उन सब लोगों व चीज़ों के प्रति कृतज्ञ हुए बिना नहीं रह पाएंगे, जिनका आपकी ज़िंदगी से कोई लेना देना नहीं है, फिर भी वे आपके जीवन को हर पल कितना कुछ देते रहे हैं।
जब आप नज़र दौड़ाकर और देखेंगे कि आपकी जिंदगी दरअसल कैसे चल रही है, तो आप कृतज्ञ हुए बिना कैसे रह सकते हैं? अगर आप यह समझकर बिंदास जिंदगी जी रहे हैं कि आप इस दुनिया के राजा हैं, तो फिर हर चीज को खो रहे हैं। हां, अगर आप बहुत ज्यादा अपने आप में या अपने अहम् में डूबे हुए हैं तो फिर आप जीवन की इस संपूर्ण प्रक्रिया को चूक सकते हैं, वरना अगर आप ध्यान से देखेंगे तो सब कुछ आपको अभिभूत कर देगा। अगर आप कृतज्ञ हैं, तो आप ग्रहणशील भी होंगे। अगर आप किसी के प्रति आभारी होते हैं तो आप उसकी ओर आदर भाव से देखते हैं। जब आप किसी चीज को आदर भाव से देखते हैं तो आप और अधिक ग्रहणशील हो जाते हैं। योग का मक़सद भी यही है। आपको बहुत गहराई में ग्रहणशील बनाना है, जिनके बारे में आप अब तक जानते भी नहीं। इसलिए कृतज्ञता से अभिभूत हो जाना ग्रहणशील होने का एक ख़ूबसूरत तरीक़ा है। आपकी सीमाओं का इससे कुछ हद तक विस्तार होता है।
अगर कोई चीज़ दी जाती है तो उसे लेने वाला भी होना चाहिए। अगर इस दुनिया में हर कोई पूरी तरह से ग्रहणशील बन जाता है तो मैं पूरी दुनिया को एक ही पल में प्रबुद्ध कर दूंगा। लेकिन लोगों को ग्रहणशील बनाना ही सबसे मुश्किल काम है। अगर वे अपनी ग्रहणशीलता पर ख़ुद काम करें, तो उनको वह देना बड़ा आसान है, जो वे चाहते हैं। अगर कोई भूखा है, तो उसे खाना खिलाना कोई मुश्किल काम नहीं। लेकिन किसी के अंदर भूख जगाना बेहद मुश्किल काम है।
-जग्गी जी
अर्रहमानिर्-रहीम.
उर्दू अनुवादः
बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला.
दिव्य अनुवादः
अनंत दयावान सदा करूणाशील।
सूरह फ़ातिहा की आयत नंबर 2
नोटः रहमान उसे कहते हैं जिसमें रहम हो और रहीम उसे कहते हैं जो रहम करता है और सदा करता है।
रहमान नाम में जोश है। जैसे समुद्र में जोश आता है तो उसकी ऊँची- ऊँची लहरें आसमान की तरफ़ उठती हैं। आज भी हम पर सूरज की रौशनी पड़ रही है और हम पर बादल बरस रहे हैं और धरती की गुरूत्वाकर्षण शक्ति हमारे क़दम अपने ऊपर जमाए हुए है और असंख्य सौर मंडल निरंतर उचित गति और उचित दूरी से घूम घूम कर हमारे जीवन को सम्भव बनाए हुए हैं तो यह हमारे किसी अच्छे कर्म का फल नहीं है बल्कि यह मनमोहन परमेश्वर की अनंत दया और सदा बरसने वाली करूणा के कारण है। जिसे हम हर पल देख सकते हैं। अगर हमें इन वरदानों से अपने पैदा करने वाले की दया और करूणा का एहसास हो और हम उसके शुक्रगुज़ार हों तो ही हम मानव या इंसान कहलाने के हक़दार हैं। जिसकी शिक्षा हमें सूरह फ़ातिहा की पहली आयत में मिलती है।
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(हे!) विधान दिवस के स्वामी! (अर्थात् विधान के अनुसार कर्मफल के दाता!)
-दिव्य अनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत 3
हर आदमी अपने चारों तरफ़ अपराध और अन्याय को खुली आँखों देखता है। आदमी आदमी के साथ अन्याय कर रहा है तो संगठित जातियाँ बिखरी हुई जातियों पर और बड़े बम वाले देश कमज़ोर देशों पर चढ़े हुए बैठे हैं। वे जो भी करते हैं, शाँति स्थापना के नाम पर करते हैं और वे अन्याय करके उसे न्याय कहते हैं। ये वे अपराध हैं, जिनका दुनिया की किसी अदालत में मुक़द्दमा क़ायम नहीं होता और न ही दुनिया की कोई अदालत उन्हें सज़ा देती है। ये सब मुक़द्दमे एक ऐसे दिन की माँग करते हैं, जिसमें विधान के अनुसार इनका न्याय किया जाए। जिस दिन वह न्याय-दिवस आएगा, उस दिन इस दुनिया को पूर्णता और सार की प्राप्ति होगी। हर चीज़ को पूर्णता और सार की प्राप्ति परिणाम मिलने से होती है।
जो लोग उस दिन के आने से बेख़बर हैं, वे इस दुनिया को निस्सार समझते हैं। उन्हें लगता है कि यह जीवन और जगत व्यर्थ है।
हर आदमी कभी न कभी अपनी ज़िन्दगी में ख़ुद को भी अन्याय का शिकार पाता हैं। वह अत्याचारियों से ख़ुद बदला लेने की ताक़त नहीं रखता और अपने साथ हुए अन्याय को वह कभी भुला नहीं पाता। वह अपनी आत्मा में न्याय की ज़रूरत को महसूस करता है। जहाँ माँग है, वहाँ आपूर्ति भी है क्योंकि यहाँ माँग और आपूर्ति (डिमाँड एंड सप्लाई) का नियम काम करता है। हर तरफ़ अराजकता है। जिसका कारण यह है कि मनुष्य को भलाई और बुराई में चुनाव की आज़ादी की शक्ति मिली हुई है। यह शक्ति रचयिता परमेश्वर का एक बड़ा वरदान है। जो लोग इस शक्ति का ग़लत प्रयोग कर रहे हैं। एक दिन उनसे यह शक्ति छीन ली जाएगी। जो लोग इस शक्ति का सही प्रयोग कर रहे हैं। परमेश्वर उन्हें और अधिेक शक्तियाँ देगा। विधान के अनुसार दण्ड और पुरस्कार मिलने का यह दिन वर्तमान सृष्टि के पूर्ण विनाश के बाद नवीन सृष्टि के सृजन के दिन आएगा। उस दिन सबको वही मिलेगा, जो उन्होंने किया होगा। जो लोग उस दिन के आने का विश्वास रखते हैं, वे आज अन्याय और अपराध से बचते हैं। वैज्ञानिक धरती पर जीव और जीवन के नष्ट होने की ख़बर दे चुके हैं। यहाँ से मरने के बाद और विधान दिवस में नया जीवन मिलने तक की बीच की अवधि में मनुष्य की आत्मा इस दुनिया से पर्दे में रहती है। पर्दे को अरबी में बरज़ख़ कहते हैं। इसलिए इस अवधि में आत्मा जिस दुनिया में रहती है, उसे आलमे बरज़ख़ कहते हैं। आलमे बरज़ख़ में हरेक आत्मा अपनी दशा के अनुसार स्वयं ही सुख-दुख भोगती है। जैसे स्वस्थ और रोगी मनुष्य इस दुनिया में सोते समय भी सुख-दुख भोगते रहते हैं।
उस दिन से पहले यहाँ भी कर्मों के फल मिलते रहते हैं। जो उस दिन की निशानी मात्र हैं, जिस दिन पूर्ण न्याय किया जाएगा। लोगों को वह दिन दूर दिखता है परंतु वह जब आएगा तो गुज़रा हुआ जीवन एक स्वप्न जैसा लगेगा। जैसा कि यह है भी स्वप्न ही। हमारे सपने सुंदर हों। हमारे विचार सुंदर हों। हमारा मन सु-मन हो। हमें अपनी शक्ति से ये काम करने हैं। हमें भलाई का चुनाव करना है।
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*दिव्य अनुवाद*
3. मालिकि यौमिद्-दीन.
4. इय्याका ना‘बुदु व इय्याका नस्तईन.
5. इह्दिनस्-सिरातल्-मुस्तक़ीम.
6. सिरातल्-लज़ीना अन्अ़मता अलैइहिम.
7. ग़ैइरिल मग़्ज़ूबि अलैइहिम व लज़्ज़ाल्लीन.
शब्दार्थः
मलिक=स्वामी
यौम=दिवस
दीन=विधान
इय्याका=आप ही की
ना‘बुदु=हम इबादत करते हैं अर्थात पूरे सर्मपण भाव से नियम और आदेश मानते हैं
व=और
इय्याका= आप ही से
नस्तईन=मदद माँगते हैं
इह्दिना=हमें दिखाएं और चलाएं
सिरात=मार्ग
मुस्तक़ीम=सबसे अधिक सीधा
सिरात=मार्ग
अल्लज़ीना=उन लोगों का
अन्अमता=कृपा हुई
अलैइहिम=जिन पर
ग़ैइरिल=न हुए
मग़्ज़ूब=क्रोध के भागी
व=और
ला=न
अज़्ज़ाल्लीन=भटके हुए
#दिव्य_अनुवादः
3. (हे!) विधान दिवस के स्वामी! (अर्थात् विधान के अनुसार कर्मफल के दाता!)
4. हम आप ही के नियम-आदेश पूरे सर्मपण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।
5. आप हमें सबसे अधिक सीधा मार्ग दिखाएं और चलाएं।
6. उनका मार्ग जिन पर आपकी कृपा हुई।
7. जो न आपके क्रोध के भागी बने और न ही भटके।
-दिव्य अनुवाद, सूरह फ़ातिहा आयत 3-7
*इय्याका ना‘बुदु व इय्याका नस्तईन*
हम आप ही के नियम-आदेश पूरे समर्पण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।
-#दिव्य_अनुवाद, सूरह #फ़ातिहा आयत 4
व्याख्याः
सूरह फ़ातिहा की यह आयत जीवन को सहारा देने वाली एक बहुत बड़ी आयत है। हर आदमी ख़ुद को कभी न कभी ऐसी मुसीबत में फंसा हुआ पाता है। जिससे बाहर आने के लिए वह किसी #ग़ैबी #मदद की ज़रूरत महसूस करता है। आदमी इस आयत के ज़रिए वही ग़ैबी मदद पा सकता है।
यह आयत आदमी को यह बोध कराती है कि वह हर समय अपने पैदा करने वाले के सामने है। आदमी इस आयत के बोल ‘हम आप ही के नियम-आदेश पूरे समर्पण भाव से मानते हैं और आप ही से मदद माँगते हैं।’ के ज़रिए बिना किसी बिचौलिए के ख़ुद ही अपने पालनहार से मदद माँगता है। आपको अपने अनकहे भावों को कहने के लिए सबसे अच्छे शब्द इस आयत से मिलते हैं। परमेश्वर से ‘आप ही के’ और ‘आप ही से’, ये शब्द कहकर आप अपनी शुद्ध हृदयता और उसके प्रति पूर्ण समर्पण को व्यक्त करते हैं। आप ख़ुद को पूरी तरह उसी पर आश्रित जान रहे हैं और आपको केवल उसी एक से आशा है। शुद्ध निष्ठा, पूर्ण समर्पण, हरेक से ध्यान हटाकर केवल एक परमेश्वर पर आश्रित हो जाना, ख़ुद को उसके सामने पाना, उसी से मदद की आशा रखना और उसके नियम-आदेश का ज्ञान रखना और उनका पालन करना, ये वे गुण हैं जो इस आयत से मनुष्य में पैदा होते हैं। जिनके बिना कोई प्रार्थना वास्तव में प्रार्थना ही नहीं होती। यह आयत अपने आप में एक सम्पूर्ण प्रार्थना भी है और यह आयत आपको उस ऊर्जा से भी अनुप्राणित करती, जिससे आपकी प्रार्थना सूक्ष्म जगत को आंदोलित करके आपके अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सके।
आगे की आयत से जुड़कर यह आयत सबसे अधिक सीधे मार्ग की प्रार्थना है। अगर सिर्फ़ इसी एक आयत को पढ़ें तो यही एक आयत, यही एक प्रार्थना हरेक मुराद और हरेक कामना पूर्ति के लिए पर्याप्त है। जिस कार्य की पूर्ति का मन में संकल्प लेकर आप यह आयत पढ़ेंगे, आपको उस काम के साधन, अवसर और सहायक मिल जाएंगे और आपका संकल्प पूर्ण हो जाएगा।
यह सृष्टि नियमबद्ध है। एक चीज़़ का दूसरी चीज़ से तालमेल है। हर चीज़ नियम के अनुसार काम कर रही है। आप अपने कामों में परमेश्वर की ग़ैबी मदद चाहते हैं तो आप भी दूसरी सब चीज़ों की तरह नियम के अनुसार काम करें। अपने पैदा करने वाले के कृतज्ञ बनें।
#प्रार्थना की स्वीकार्यता के भी नियम हैं। यदि आप चाहते हैं कि परमेश्वर आपकी प्रार्थना स्वीकार करे तो आप #परमेश्वर के वचन को स्वीकार करें। अगर आप चाहते हैं कि परमेश्वर आपकी मदद करे तो आप परमेश्वर के वचन की पूर्ति में समाज के निर्बल वर्ग के लोगों की, अनाथों, बेघरों, विधवाओं और भूखे-प्यासों की मदद करें। इस सृष्टि का नियम यह है कि जो आप दूसरों के साथ करते हैं, वही आपके साथ किया जाता है। आप जिस पैमाने से दूसरों को नापते हैं। उसी पैमाने से आपको नापा जाता है।
अगर आप परमेश्वर से ज़्यादा धन चाहते हैं तो आप #ज़कात के अनुसार अपने धन का 40वाँ भाग ज़रूरतमंद हक़दारों को दें। आपका धन बढ़ेगा। अगर आप समाज में सम्मान चाहते हैं तो आप दूसरों को सम्मान दें। अगर आप ख़ुशी चाहते हैं तो आप दूसरों को ख़ुशी दें। यह परमेश्वर के कृपा पाए हुए सभी कृतज्ञ व्यक्तियों का मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर परमेश्वर की मदद मिलती है। इस मार्ग पर चलने से इस ब्रह्मांड से हमारा तालमेल हो जाता है। जिससे बहुत से कष्टों का निवारण अपने आप हो जाता है।
यह हमने संक्षेप में लिखा है। पूरा #पवित्र_क़ुरआन परमेश्वर के नियमों के ज्ञान से भरा हुआ है। आप उसे पढ़कर जितना अधिक नियमों को जानेंगे। आप उतनी अधिक परमेश्वर की मदद और उसकी कृपा पाते जाएंगे।
ब्हुत लोग अज्ञानियों से पूछते हैं कि बाबा हम पर परमेश्वर की कृपा क्यों नहीं हो रही है? हम जीवन में कष्ट क्यों भोग रहे हैं? हम क्या करें कि हम पर भी परमेश्वर की कृपा हो जाए? अज्ञानी बाबा इन सवालों के जवाब में बेकार के टास्क देते रहते हैं।
वास्तव में ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर इस आयत में निहित है। यह आयत ज्ञान के सागर को एक प्याले में भर देने जैसी है। हमें यह आयत मिली। यह भी परमेश्वर की एक अतुलनीय कृपा है कि उसने हमें यह #आयत दी। हम इसके लिए भी परमेश्वर को #धन्यवाद कहते हैं।
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*सूरह फ़ातिहा से इंसान ख़ुद को क्या फ़ायदा पहुंचा सकता है?*
बल्कि क्या क्या फ़ायदे पहुंचा सकता है?
अगर मैं इस सवाल का जवाब ठीक तरह से दूँ तो 100 पेज की एक किताब तैयार हो जाएगी।
सूरह फ़ातिहा में पूरा क़ुरआन समाया हुआ है। जो भी आदमी सूरह फ़ातिहा को पढ़ और समझ लेता है तो वह पूरा क़ुरआन समझ सकता है।
जो सूरह फ़ातिहा को समझ गया। उसके पास ज़िंदगी का एक नज़रिया है। जिसके पास सूरह फ़ातिहा है, उसके पास एक विश्वास है। एक ऐसा विश्वास है, जो उसके जीवन में उसे हर समस्या का समाधान देगा। जो आदमी सूरह फ़ातिहा को बार बार पढ़ता है, उसके अवचेतन मन में यह विश्वास गहरा होता जाता है कि मैं जीवन के इस संघर्ष में अकेला नहीं हूँ। मेरा रचयिता पालनहार परमेश्वर मेरे साथ है। जो अनंत दयालु और सदा करूणाशील है। मैं उसी का काम हूँ और वह अपने काम को अंजाम तक ज़रूर पहुंचाएगा। जो तमाम जहानों का, सभी ब्रह्मांडों का पैदा करने वाला, पालने वाला और उनका अंत करने वाला है; जो हरेक की ज़रूरत को जानने वाला और उसे पूरी करने वाला है, वह मुझे और मेरी ज़रूरत को जानता है। वही मुझे पाल रहा है। मैं उसके नियम-आदेश मानते हुए अपनी ज़रूरत की और अपने मार्गदर्शन की जो भी दुआ इस समय करूंगा, वह उसे सुनेगा और वह उसे पूरी करेगा। मुझ पर और हर चीज़ पर नेचुरली उसी के नियम-आदेश लागू हैं और मैं पूरी तरह उसी पर निर्भर हूँ और मैं केवल उसी से अपने कल्याण की आस रखता/रखती हूँ। वह मुझे सबसे अधिक सीधा मार्ग दिखाएगा। जो कृपा पाए हुए लोगों का मार्ग है। मैं भी अपने पैदा करने वाले की कृपा पाना चाहता/चाहती हूँ।
वास्तव में कृपा पाने का सबसे अधिक सीधा मार्ग शुक्र करने का यानी क़द्र करने का मार्ग है। जिसकी तरफ़ सूरह फ़ातिहा के शुरू में ही ध्यान दिलाया गया है। परमेश्वर है तो हम उसकी क़द्र करें। उसने हमें आत्मा दी है, जिसमें इरादे, कल्पना और विचार की सृजनात्मक शक्तियां (creative powers) दी हैं। जिनसे हम अपने लिए नए हालात का, बेहतर हालात का ख़ुद निर्माण कर सकते हैं, जो कि हम चाहते हैं।
हम जिस सुख-शाँति और समृद्धि की इच्छा और सपना रखते हैं, उनके हालात बनाने और अपनी मुराद को ग़ैब की दुनिया से इस लौकिक जगत में खींचने की शक्ति हमारे अंदर है, जो नियम के अनुसार हमारे सोते-जागते लगातार काम करती रहती है। वही शक्ति हमारे अंदर हड्डी और माँस बनाती है। वही शक्ति हमें रात को सोते हुए करवट दिलाती है और वही शक्ति हमारे अंदर साँस खींचती है। इसे हम अपने अवचेतन मन और अति चेतन मन की शक्ति कह सकते हैं क्योंकि किसी शक्ति को पहचानने के लिए उसे कोई नाम देना ज़रूरी है। हम अपनी शक्तियों को पहचानें और इनकी क़द्र करें यानी इनसे अपने कल्याण के काम करें।
जीवन का नियम विश्वास का नियम है। जब सूरह फ़ातिहा बार बार पढ़ने से उसके विश्वास हमारे अवचेतन मन के पैटर्न बन जाते हैं यानी सूरह फ़ातिहा हमारी आदतन सोच (habitual thinking) बन जाती है तो वह हमारे जीवन में जीवन को सपोर्ट देने वाले हालात के रूप में रेफ़्लेक्ट होती है। जैसा कि यूनिवर्स के सीक्रेट जानने वाले जानते हैं कि हमारे जीवन के बाहरी हालात हमारे दिल के अंदरूनी नज़रिए का मैनिफ़ैस्टेशन हैं। जब हम दिल के यक़ीन को अच्छा बनाने पर काम करते हैं तो हम बाहरी दुनिया के हालात के सोर्स पर काम करते हैं, जहां से हमारे हालात आ रहे हैं। हमें अपने बुरे हालात बदलने हैं तो हम अपने दिल का नज़रिया बदलकर अपने बुरे हालात बदल सकते हैं।
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हम अपनी नेमतें ज़्यादा करना चाहते हैं तो हम शुक्र और क़द्र करें और अपनी नेमतें दूसरों के साथ शेयर करें तो हमारी नेमतें बढ़ेंगी और वे हमारे बाद हमारी नस्लों में ट्राँसफ़र होंगी। हमारी औलाद शुक्र के मार्ग पर चलेगी तो उस पर भी नेमतें बरसेंगी। इसलिए अपनी औलाद को सिखाने वाली सबसे बड़ी चीज़ शुक्र करना सिखाना है। यह सबसे सीधा मार्ग है। हरेक धर्मग्रंथ इसकी शिक्षा देता है। हरेक बुद्धिजीवी इसका समर्थन करता है।
सूरह फ़ातिहा की चौथी आयत में एक दुआ है। जब भी कोई आदमी सच्चे दिल से अपनी मुराद पर तवज्जो (फ़ोकस) करके इस आयत को पढ़ता है या इसके अनुवाद को बोलता है और बार बार बोलता है तो उसकी वह मुराद पूरी हो जाती है।
सच्चे दिल से मुराद यह है कि दिल में दुविधा न हो कि एक पल दिल एक बात कहे और दूसरे पल दिल में उस पर शक करे। जो चीज़ या हालत चाहिए, उसे अपने दिल में हाज़िर कर लें और उस पर तवज्जो देते हुए सबसे अलग होकर कमरा बंद करके या अकेले में दुआ करें क्योंकि आपकी तवज्जो आलमे ग़ैब से उस चीज़ को या उस चीज़ तक पहुंचने के साधनों को इस दुनिया में खींच लेती है। इसलिए फ़ोकस्ड अटेंशन के साथ दुआ करें। सूरह फ़ातिहा की चौथी आयत एक क़ुबूल हो चुकी दुआ है। जिसे पूरा होने से केवल शक, जल्दबाज़ी और मायूसी ही रोक सकते हैं।
संक्षेप में हम यही कहेंगे कि बंदे की शक्ति उसकी दुआ है, उसका एटीट्यूड है। सूरह फ़ातिहा के रूप में हमें एक पावरफ़ुल दुआ मिलती है और इससे हमें एटीट्यूड ऑफ़ ग्रेटीट्यूड मिलता है।
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*-Dr. Anwer Jamal*
#अगरअबभीनाजागेतो #मिशनमौजले #atmanirbharta_coach #अल्लाहपैथी