दोस्तों, आज मैं आपको अपने एक आर्य मित्र से हुई बात बताता हूं। वह चीनी सु-जोक तरीक़े से रोगों की चिकित्सा करते हैं।
एक दिन मैंने उनसे कहा कि दयानंद जी कहते हैं और आर्य समाजी मानते हैं कि परमेश्वर ने लगभग एक अरब छियानवे करोड़ साल पहले औषधि और चिकित्सा पर अथर्ववेद दिया।
मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि अब जो भी रोग होगा परमेश्वर के दिए हुए इस ग्रंथ में उसकी दवा देखकर सब लोग चिकित्सा कर लिया करेंगे।
मैंने अथर्ववेद पूरा पढ़ लिया लेकिन उसमें नज़ला, बुख़ार, खांसी, जोड़ों के दर्द, गैस, एसिडिटी, बवासीर थायराइड और कैंसर का तो क्या सिर और पेट दर्द के उपचार तक की कोई औषधि लिखी हुई नहीं मिली। न ही उसमें मनुष्य शरीर की रचना के बारे में बताया गया है।
मुझे बहुत अजीब लगा कि परमेश्वर का यह कैसा ग्रंथ है, जो औषधि और रोगों की चिकित्सा पर है और मनुष्य के शरीर और दवा के बारे में नहीं बताता।
अथर्ववेद पढ़कर रोगों की चिकित्सा कोई आर्य वैद्य नहीं करता। इसलिए यह ग्रंथ परमेश्वर की वाणी नहीं है, जैसा कि दयानंद जी लिखवा गए हैं।
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जिस आर्य समाजी को हमारी बात पर संदेह हो, वह आदमी सारे मददगारों को बुला ले और अथर्ववेद से रोगों की चिकित्सा करके दिखा दे।
आर्य मित्र ने हंसते हुए मेरी बात से अपनी सहमति जताई।
आर्य मित्र ने हंसते हुए मेरी बात से अपनी सहमति जताई।
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दयानंद जी अभ्रक भस्म बनाकर खाया करते थे। जब उन पर उस भस्म का विषैला प्रभाव पड़ा तो स्वयं दयानंद जी को अपने लिए अथर्ववेद में कोई औषधि न मिली। उन्हें मजबूरी में इधर उधर के मुस्लिम हकीम और एलोपैथी के डाक्टर आदि से इलाज करवाना पड़ा।
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दयानंद जी ने सत्य कहा है कि
अंतकाल में सब सत्य प्रकट हो जाता है।
वास्तव में अथर्ववेद परमेश्वर की नहीं बल्कि ऋषियों की वाणी है। अथर्वा ऋषि ने अथर्ववेद के बहुत से मंत्रों की रचना की है। उसका नाम अथर्ववेद में ही कांड से पहले लिखा हुआ भी है। अथर्ववेद में पेड़ पौधों पर कविताएं हैं और उनकी हम्दो सना (स्तुति) के साथ उनसे दुआएं की गई हैं।
हम अथर्ववेद को ऋषियों की वाणी मानकर भी आदर दे सकते हैं। यही मान्यता सनातनी पंडितों की है।
एक बार सनातनी पंडितों का अनुवाद पढ़ लें। फिर अपनी राय क़ायम करें।
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