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Thursday, March 3, 2016

Dawah Psychology माफ़ी ‘दावा सायकाॅलोजी’ का बुनियादी तत्व (अन्सर) है

हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहम. देवबन्द के दीनदार आलिम घराने से ताल्लुक़ रखते थे। वह रामपुर के मदरसा ए आलिया में टीचर थे। उनकी दो किताबें बहुत मशहूर हैं-
1. क्या हम मुसलमान हैं?
2. अगर अब भी न जागे तो...
रिश्तेदारों से मिलने के लिए वह देवबन्द आते जाते रहते थे। मैं उनसे मिलने के लिए पहली बार उनके घर गया तो देखा कि उनका घर पुराने तजऱ् का बना हुआ था। उसमें कडि़या पड़ी हुई थीं। वह हमें ऊपर के कमरे में ले जा कर बिठाते थे। उस कमरे की कडि़या इतनी ज़्यादा पुरानी और कमज़ोर थीं कि तब्दीली ए क़ौम से पहले वे ख़ुद अपनी तब्दीली का तक़ाज़ा मौलाना से कर रही थीं।
मौलाना की आमदनी उस मकान की मरम्मत का तक़ाज़ा पूरा नहीं कर सकती थी। सो मौलाना का मकान उसी हालत में बदस्तूर क़ायम रहा, यहां तक कि उनके भतीजे मुराद ने अपनी फ़ाइनेन्शियल प्राॅब्लम को हल करने के लिए एक दिन उसे बेच दिया। मकान मुश्तरका था। उस मकान में दाखि़ले का एक ही दरवाज़ा था।
आज मैं आपको उनकी जि़न्दगी का एक ऐसा वाक़या बताता हूं कि अगर मैं न बताऊं तो फिर शायद कोई दूसरा तो इसे यहां दर्ज न करेगा और हज़रत मौलाना की ख़ूबी सामने आने से ही रह जाएगी।
मैं एक दिन मौलाना से मुलाक़ात के लिए पहुंचा तो देखा कि मौलाना बहुत दुखी हैं। उन्होंने बताया कि उनके भतीजे मुराद ने पूरा मकान ही बेच दिया है। मुराद भाई ने अपना हिस्सा भी बेच दिया था और उनसे इजाज़त लिए बिना ही उनका हिस्सा भी बेच दिया। इस तरह मौलाना दुनिया में अपने घर से बेघर हो गए थे।
मौलाना रहम. के इस वाक़ये से जो बात सीखने की है, वह यह है कि उन्होंने उसी दुख के हाल में भी अपने साथ बुरा करने वाले को माफ़ करना याद रखा।
हज़रत मौलाना ने फ़रमाया-‘लेकिन मैं मुराद से आखि़रत में इस पर कोई मुआखि़ज़ा नहीं करूंगा।’
हज़रत मौलाना रिश्तेदारों के साथ सिला रहमी और हुस्ने सुलूक से पेश आते थे। वह रिश्तों को इकतरफ़ा तौर पर निभाते थे। इसी ख़ूबी का आदमी दावत का काम कर सकता है।
जो अपना हक़ मारने वाले को माफ़ नहीं कर सकता, वह दावत का काम ज़्यादा देर तक नहीं कर सकता।

Tuesday, March 1, 2016

Dawah Psychology दावते दीन में मुहब्बत से पड़ती है जान

अल्लाह के दीन इसलाम की दावत काम का अल्लाह से बहुत ज़्यादा मुहब्बत करने का काम है। इस मुहब्बत का लाजि़मी तक़ाज़ा है कि उसके बन्दों से सिर्फ़ उसी के लिए मुहब्बत की जाए।
अल्लाह के बन्दों से मुहब्बत करने का तक़ाज़ा है कि उनके साथ भलाई की जाए। उन्हें ऐसी बातें सिखाई जाएं, जिनसे दोनों जहान में उनका भला हो।
इस तरह दावते दीन का काम भले लोगों का काम है, जो लोगों के साथ सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी के लिए भलाई करते हैं।
आज भी ज़मीन पर भले लोग आबाद हैं। यह अल्लाह के चुने हुए बन्दे होते हैं।
हमारे उस्ताद हज़रत मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहमतुल्लाहि अलैह अल्लाह के एक ऐसे ही चुने हुए बन्दे थे।
उनका वुजूद बस मुहब्बत ही मुहब्बत था। उनकी तालीम मुहब्बत थी। उनका अमल मुहब्बत था। उनके क़ौल से मुहब्बत ऐसे बहती थी जैसे कि शहद की नहर बहती है, जिससे हम सैराब होते थे।
उनके पास दीन सीखने की नीयत से काफ़ी लोग आते थे।
हमने उनके अहवाल में भी मुहब्बत का अन्सर ग़ालिब देखा।

मुहब्बत वह ताक़त है, जो आदमी का दिल जीत लेती है और फिर वह आदमी कभी उस मुहब्बत के असर से निकल नहीं पाता। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रह. की मुहब्बत दिलों पर ऐसा ही असर करती थी। यही वजह है कि लोग उनकी पुकार पर उठे और उन्होंने अपनी अपनी वुसअत के मुताबिक़ अपना तन, मन और धन सब कुछ अल्लाह के रास्ते में लगा दिया।
ऐसे ही भाईयों में एक हैं हमारे तारिक़ भाई, जिन्हें आज सारा ज़माना अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के नाम से जानता है।
दुनिया उन्हें तुलनात्मक धार्मिक रिसर्च स्काॅलर के तौर पर जानती है। यह हक़ीक़त है कि इस मैदान में वह अपनी तरह के अकेले आलिम हैं।
...लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि वह और भी बहुत से इल्म जानते हैं जैसे कि इल्मे जफ़र, कीरोलाॅजी, जि़क्र और मेडिटेशन के असरात, क्रिएटिव विज़ुलाइज़ेशन,  रूहानी इलाज, होम्योपैथी, बायोकैमिक तरीक़ा ए इलाज, मैकेनिकल इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर के बहुत से प्रोग्राम्स, सोशल इंजीनियरिंग, हिस्ट्री, शायरी, तसव्वुफ़ और लिट्रेचर, चाय की कि़स्में और उनके असरात,
जो मुझे इस वक़्त फ़ौरन याद आ गए, मैंने उन्हें लिख दिया है, वर्ना और भी बहुत से इल्म उन्हें आते हैं, जिनमें रूहानी उलूम भी शामिल हैं।
उनकी फ्रेन्च कट दाढ़ी देखकर अक्सर लोग मुग़ालिता खा जाते हैं और समझते हैं कि इन्हे रूहानियत से क्या सरोकार होगा?
वे सोचते हैं कि तारिक़ भाई ने वेद, बाइबिल और क़ुरआन के कुछ काॅमन प्वाइंट्स मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रहम. से सीख कर याद कर लिए होंगे और बस उन्हीं पर वे लेक्चर देते हैं।
तारिक़ भाई का इल्म इससे कहीं ज़्यादा है। उनके इल्म और ताज़ा फि़क्र ने एक नए जहान की तामीर में ज़बर्दस्त मदद की है।
हर आदमी की तरह मुझ पर भी उनके इल्म का असर पड़ा है लेकिन उनके इल्म से भी ज़्यादा असर मुझ पर उनकी मुहब्बत का पड़ा है।
उनकी मुहब्बत के जिस वाक़ये का गवाह मैं बना, उसे अगर मैं यहां बयान न करूं तो फिर उसे कोई दूसरा बयान करने वाला नहीं है। लिहाज़ा मैं उसे आप सबकी तालीम के लिए ‘दावा सायकोलाॅजी’ में एक लेसन के तौर पर बताना चाहता हूं।
बात बरसों पुरानी है। यह बात उस वक़्त की है जब हज़रत मौलाना उस्मानी साहब रहम. हमारे दरम्यान चलते फिरते थे। देवबन्द के एक शायर मैराज देवबन्दी मौलाना रहम. की दावती सोच को लेकर कुछ सवाल रखते थे। उन्होंने हमसे पूछा तो हमने उन्हें काफ़ी मुतमइन कर दिया और फिर उनसे कहा कि चलो रामपुर चलते हैं, हज़रत मौलाना से मिलकर आप ख़ुद पूछ लेना। 
हम मैराज देवबन्दी साहब को लेकर रामपुर पहुंचे। हमारा प्रोग्राम था कि हम उन्हें पहले तारिक़ भाई से मिलवा देंगे और इन शा अल्लाह, वह इन्हें इनके बाक़ी बचे सवालों का भी जवाब दे देंगे।
दिन का वक़्त था। बाज़ार नसरूल्लाह ख़ां पहुंचकर हम रिक्शे से उतर गए। तारिक़ भाई के महलनुमा वसीअ घर में दाखि़ल हुए। सीढि़यां चढ़कर हम दोनों ऊपर गए। मैंने काॅलबेल बजाई तो उनकी अहलिया मोहतरमा डा. शमा साहिबा ने दरवाज़े के पीछे से हमसे पूछा कि कौन हैं?
हमने अपना नाम बताया कि देवबन्द से अनवर हूं।
वह हमें जानती ही थीं। हम उन्हें शमा बाजी कहते हैं। उन्होंने कहा कि आप ड्राइंग रूम में बैठिए, मैं उन्हें बताती हूं।
yh photo hamne apne mobile se liya tha. us waqiye ke barson baad.
yh unke oopar ke room ka manzar hai.

हम ड्राइंग में बैठ गए। तारिक़ साहब ने हमें कभी इंतिज़ार नहीं कराया। वह कुछ भी और कितना ही ज़रूरी काम करते हुए क्यों न रहे हों, हमेशा फ़ौरन ही आ जाते हैं। इस बार भी वह फ़ौरन ही आ गए।
तारिक़ भाई हम दोनों से मिले। हम सोफ़ों पर बैठे थे और वह तख़्त पर। वह हस्बे आदत मुस्कुरा कर बात करने लगे। जब वह बोले तो उनकी आवाज़ बदली हुई थी। हमने उनके मुंह से ऐसी अजीब तरह की आवाज़ पहले कभी न सुनी थी। उनकी कमज़ोर सी आवाज़ ऐसे आ रही थी, जैसे कहीं दूर से आ रही हो। उनके चेहरे पर कुछ ज़रा सी दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी।
मैंने कहा कि तारिक़ भाई क्या बात है, आपकी आवाज़ को क्या हुआ, आपकी तबियत तो ठीक है?
इसके जवाब में जो बात उन्होंने बताई, उसे सुनकर हमें अपने लिए उनकी शदीद मुहब्बत का एहसास हुआ।
तारिक़ भाई ने कहा कि ‘अनवर, मैं सात दिन और आठ रातों से मुसलसल जाग रहा था। बेंग्लोर से एक साहब आए थे, दावत के सिलसिले में चचा मियां के पास। दिन में उनके साथ जागता था और रात को अपना लिखना पढ़ना करता था। आज वह साहब गए तो मैं आज बस अभी एक घंटे पहले ही सोया था कि शमा ने बताया कि आप आए हैं, सो मैं उठकर आ गया।’
मैं अपनी रूह की गहराई तक लरज़ गया। कितनी ज़्यादा मुहब्बत करने वाले लोग हैं ये!
क्या कोई इस मुहब्बत को नाप या तौल सकता है?
तारिक़ भाई की मुहब्बत अपनी जगह लेकिन उनकी अहलिया मोहतरमा डा. शमा ने जो अपनापन दिखाया और जो इज़्ज़त दी है, उसकी मिसाल भी बस वह ख़ुद ही हैं।
अपनी तरह का यह अकेला जोड़ा है। इनके दिल जि़न्दा हैं, अल्हम्दुलिल्लाह!
अल्लाह का शुक्र व एहसान है कि उसने हमें ऐसे लोगों से मिलवाया, जो हर वक़्त लोगों की भलाई में लगे हुए हैं, महज़ अल्लाह की रिज़ा के लिए।
ख़ैर, जब यह ज़लज़ला हमारे वुजूद के बहुत से नक़्शों को बदलकर गुज़र गया और हम कुछ सोचने के लायक़ हुए तो हम यह सोचने लगे कि एक आम इन्सान की यह ताक़त नहीं है कि वह सात आठ दिन-रात बराबर बिना सोए लगातार जागता ही रहे और पूरे होशो हवास के साथ काम भी करता रहे और यह तो बिल्कुल नामुमकिन है कि ज़हनी और जिस्मानी तौर पर इतना ज़्यादा थकने के बाद वह सो जाए तो फिर वह सोने के एक घंटे बाद ही उठकर आ भी जाए!’
यह नाक़ाबिले यक़ीन बातों में से है लेकिन यह सच है।
बहरहाल हम बहुत शर्मिन्दा हुए और उस दिन के बाद से हम जब भी तारिक़ भाई के घर जाते थे तो पहले यह ज़रूर पता करते थे कि तारिक़ भाई सो तो नहीं रहे है?
इसी मुलाक़ात में हमने तारिक़ भाई के चेहरे पर पहली बार फ्रेन्च कट दाढ़ी देखी थी। फिर हम दोनों वहां से हज़रत मौलाना के पास चले गए। मैराज भाई के ऊपर भी इस वाक़ये का असर पड़ा।
आज ‘वर्क’ का दावती काम जिस मक़ाम पर है। उसमें इल्मी इन्फि़रादियत तो है ही लेकिन उसे ख़ूने जिगर से भी सींचा गया है, यह बात सामने रखनी चाहिए।
अब मा शा अल्लाह वर्क का दायरा रोज़ ब रोज़ बढ़ता जा रहा है। उसमें नए लोग लगातार जुड़ रहे हैं। उनमें हर मिज़ाज और अन्दाज़ के लोग हैं। सभी लोगों को यह बात सामने रखनी चाहिए कि मुहब्बत ही वह ताक़त है, जो अलग अलग तरह के मिज़ाजों के लोगों को एक मक़सद के लिए आपस में जोड़ सकती है और ‘सीसा पिलाई हुई दीवार’ बना सकती है।
यह बात सामने रहे तो दावत का काम करने वालों में ‘दावा सायकोलाॅजी’ डेवलप होगी। इसके बिना अदावत का काम तो हो सकता है लेकिन दावत का नहीं।

Bismillahir-Rahmanir-Raheem