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Tuesday, May 1, 2018

Quantum Dawah Field Work for Love, Peace, Joy and Self Discovery क्वांटम दावा फ़ील्ड वर्क

तब्लीग़े दीन की दुनिया में एक अद्भुत और महान खोज
क्वांटम दावा फ़ील्ड वर्क
डा. अनवर जमाल
दुनिया का पहला दावती अफ़साना

यह एक दिलचस्प क़िस्सा है। मैं आपको यह क़िस्सा सुनाने से पहले यह बता दूँ कि मैं एक वेलनेस कोच हूँ। जब मैं कहता हूँ कि ‘मैं मुरादों और ख़ुशियों का डाॅक्टर हूँ’ तो सुनने वाला चैंक जाता है। मैंने अपनी रिसर्च में पाया है कि इन्सान की मुराद पूरी न हो और उसे ख़ुशी न मिले तो उसका दिल मुरझाने लगता है। उस पर ग़म, डर, ग़ुस्सा, मायूसी और तनाव हावी हो जाता है, जो उसके अन्दर और बाहर तरह तरह के काॅम्प्लेक्सेज़ पैदा करते रहते हैं। इसके बाद उसकी ज़िन्दगी उलझती ही चली जाती है। उसे किसी काम से ख़ुशी नहीं मिलती। वह ख़ुद को नाकाम और ज़िन्दगी को बेमक़सद मानने लगता है, जो कि नाशुक्री है। ज़्यादातर लोग नाशुक्री में जी रहे हैं और नाशुक्री की हालत में ही मर रहे हैं। नाशुक्री को अरबी में कुफ्ऱ कहते हैं। कुफ्ऱ की हालत में मरना इन्सानियत का सबसे बड़ा मसला है। इस मसले का हल बहुत आसान है, शुक्र करो और ख़ुश रहो। रब की नेमत को पहचानना और उसकी क़द्र करना शुक्र है। पवित्र क़ुरआन की सबसे पहली सूरह अल-फ़ातिहा शुक्र सिखाती है। इसीलिए अल-फ़ातिहा हर बीमारी से शिफ़ा देती है। हर बीमारी की जड़ दिल में है। दिल में शुक्र और ख़ुशी को रखने से बीमारी की जड़ कट जाती है। मैं मन की दुनिया में बीमारी की जड़ काटता हूँ। फिर तन की दुनिया में उसके फूल-पत्ते ख़ुद ही मुरझा जाते हैं। यही सीधा रास्ता है। इसी पर मैं चलता हूँ। यही मेरी दवा है और यही मेरी दावत है। यही मेरा शौक़ है और यही मेरा मिशन है।
बसीर साहब इसी सिलसिले में मुझसे मिलने मेरे घर आए थे। वह निज़ामुद्दीन दिल्ली में रहते हैं। उनका इलाक़ा इस्लाम की दावती और इस्लाही सरगर्मियों के लिए मशहूर है। निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह भी यहीं पर है। बसीर एक दीनदार नौजवान हैं। उन्होंने इस्लाम और दूसरे धर्मों की बहुत साल तक स्टडी की है। उन्हें यह जज़्बा पैदा हुआ कि मैं इस्लाम की बात सब तक पहुँचाऊं। उन्होंने अपने जैसे नौजवान लड़के लड़कियों को जमा किया और इस्लाम का काम शुरू कर दिया। उनके दावती सेन्टर का नाम बड़ा अलग सा था-‘मर्कज़ुल-अक़्ल’ यानि अक़्ल का सेन्टर। इस सेन्टर पर बसीर साहब हर महीने अलग अलग आलिम को बुला कर दावते दीन के सब्जेक्ट पर बोलने के लिए कहते थे। इन नौजवानों का कोई मुस्तक़िल मस्लक न था क्योंकि ये सभी नौजवानों के माँ-बाप अलग अलग मस्लकों से ताल्लुक़ रखते थे और ये ख़ुद यूनिवर्सिटी से एजुकेशन पाए हुए थे। सो मस्लक की अहमियत और तास्सुब दोनों से ये अन्जान से थे।
आम तौर से ये लोग तीन तीन की टोली बनाकर गाँव, शहर, पार्क और स्टेशन की तरफ़ निकल जाते थे और दस बीस लोगों को जमा करके बताते थे कि एक अल्लाह ही सबका रब है। उसी की इबादत करो। यह ज़िन्दगी अमल के लिए है और मौत के बाद की ज़िन्दगी फल के लिए है।’ आम तौर से लोग उनकी बात को सुनकर सराहते लेकिन फिर भूल जाते। 25 साल तक काम करने के बाद भी उनके असर से उनके मिलने वाले तक भी इस्लाम में दाखि़ल न हुए। उन्हें भी इसकी कोई फ़िक्र नहीं थी क्योंकि वे अपनी ज़िम्मेदारी सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचाने तक ही समझते थे। हिदायत देने की ज़िम्मेदारी वे अल्लाह पर छोड़ देते थे।
उनकी लगातार मेहनत और दीन की सच्चाई को साबित करने के लिए उनकी बेहतरीन अक़्ली दलीलों की वजह से मुस्लिमों के बड़े आलिमों तक भी उनका ज़िक्र पहुँचा। इन्डिया के हालात में मुस्लिमों के लिए नफ़रत की लहरें उठने लगीं तो आलिमों की नज़र ‘मर्कज़ुल-अक़्ल’ के लोगों पर पड़ी, जो पहले नौजवान थे और अब वे दावते दीन करते करते बुढ़ा गए थे। उनमें से ज़्यादातर लोग अलग अलग वजह से दावते दीन से हट गए थे। दस बारह अब भी लगे हुए थे और दो सौ के क़रीब नए नौजवान जुड़ गए थे। जहाँ पहले वे आलिमों को सीखने के लिए अपने सेन्टर पर बुलाया करते थे। वहीं अब आलिम हज़रात उनसे दावती काम सीखने के लिए उन्हें अपने मदरसों में बुलाने लगे।
यह इन्डिया है। यहाँ बहुत अजीब अजीब बातें देखने को मिलती हैं। उनमें से एक यह है कि शरई दाढ़ी और शरई पाजामा पहने हुए क़ुरआन और हदीस के हाफ़िज़ और मुफ़स्सिरों ने ‘मर्कज़ुल अक़्ल’ के क्लीन शेव्ड नौजवानों से सीखा कि ‘सब लोगों को इस्लाम की दावत कैसे दें?’
इसकी वजह यह रही कि मुग़ल पीरिएड में मौलवियों को हिन्दुओं को दीन की दावत देने की ज़रूरत नहीं पड़ी। यह काम सूफ़ियों ने सम्भाले रखा। अंग्रेज़ी दौर में अंग्रेज़ों से लड़ने में सारा वक़्त खप गया। एक आलिम ने लिखा है कि अंग्रेज़ों ने आज़ादी की जंग में एक लाख मुस्लिम आलिमों को क़त्ल किया। इसका असर भी आलिमों पर रहा। उनका सारा ध्यान इस्लाम के अक़ीदों और रस्मों की हिफ़ाज़त में लग गया। उसके बाद पार्टिशन हो गया। उसका असर भी मुस्लिम समाज के साथ आलिमों के तबक़े पर पड़ा। इस सख़्त मुश्किल वक़्त को आलिमों ने बड़े सब्र के साथ गुज़ारा। लगातार इन हादसों की वजह से आलिम अपने दायरे में सिकुड़ कर महदूद हो गए थे। वे नए नए इल्म में दिलचस्पी लेना भूल गए थे, जो कि मुस्लिम आलिमों की पहचान हुआ करती थी। अब उन्हें मुहब्बत और अम्न के कुछ दुश्मनों ने धमकियाँ देनी शुरू कर दी थीं। इन धमकियों के पीछे तबाही के पुराने खिलाड़ी थे। इसलिए आलिमों ने हर तरफ़ नज़र दौड़ाना शुरू की। आलिमों ने दावते दीन का काम शुरू कर दिया था।
‘मर्कज़ुल-अक़्ल’ की कुछ किताबें बहुत मशहूर हुईं। उनकी वजह से दावते दीन का काम ज़िन्दा हो गया था। दावत का काम शुरू हुआ तो दुश्मनों ने अदावत का काम शुरू कर दिया। कई जगहों पर दावते दीन करने वालों के साथ उन्होंने मार पिटाई की। उनकी पुलिस इन्क्वायरी हुई। बहरहाल वे डटे रहे। उनके साथ के लोग कुछ साल बाद हट जाते थे तो फिर नए लोग आ जाते थे। रानी मक्खी बाक़ी रहे तो वह अपने अण्डे बच्चे ख़ुद ही तैयार कर लेती है। बसीर भाई बड़े साहिबे बसीरत थे। जब भी उन्हें नए साथियों की ज़रूरत पड़ती। वे यूनिवर्सिटी और काॅलिज के स्टूडेन्ट्स का इज्तेमा करके उन्हें दीन के काम के लिए उभारते और नौजवान जोश में आकर उनके साथ दीन के काम में जुट जाते। इस तरह लगातार नए लोगों आते रहते और बसीर साहब का मर्कज़ ‘अक़्ल की बात’ करता रहता।
एक रोज़ जब मैं देवबन्द में अपने घर में अपनी प्यारी काली बिल्ली माइटी के साथ अन्जीर के नीचे धूप में बैठा हुआ मौज ले रहा था तो बसीर साहब तशरीफ़ लाए। यह जनवरी 2018 के आखि़री हफ़्ते का पहला दिन था। उनके साथ देवबन्द के कुछ नौजवान आलिम भी थे, जो उनके शागिर्द रहे होंगे। मैं बसीर साहब के टीवी पर दीनी प्रोग्राम देख चुका था। सो मैं उन्हें पहचानता था। मैं भी दीन के ज़रिए लोगों की भलाई के काम कर रहा था। सो हम दोनों में भलाई का जज़्बा काॅमन था। यूनिवर्सल लाॅ है कि जो जैसा होता है, वैसे को ही अट्रैक्ट कर लेता है। उनकी मेहनत को देखकर मैं उन्हें पसन्द भी करता था। शायद मेरे दिल में उनके लिए कोई जज़्बा रहा होगा। जिसकी वजह से वह उस दिन मेरे घर पर ख़ुद ही आ गए।
मैंने उठकर उन सबका इस्तक़बाल किया। सबको लेकर मैं ड्राइंग रूम में गया। वहाँ चाय नाश्ते के बीच बसीर साहब ने हमें ‘मर्कज़ुल-अक़्ल’ आकर दावते दीन के बारे में कुछ सिखाने के लिए कहा। मैंने कहा कि मेरा सब्जेक्ट ‘तिब्बे नबवी और वेलनेस साईन्सेज़’ है। आप हमसे इसे सिखाने के लिए कहें तो ज़्यादा बेहतर है। बसीर साहब बोले-आप तिब्बे नबवी और वेलनेस साईन्सेज़ के ज़रिए ख़ुद भी तो दावते दीन का काम करते हैं। आप उसी ख़ास तरीक़े को हमें सिखाएं। आपके पास हमारे आने का ख़ास मक़सद यही है कि आज दावत के रास्ते में एक मुस्लिम के सामने जो चैलेन्ज हैं, उनका हल हमारे सामने आ जाए और हमारे दीनी वर्कर्स की वेलनेस का तरीक़ा पता चल जाए।
उनका तक़ाज़ा देखा तो हामी भर ली और उन्हें तारीख़ दे दी। चलते हुए बसीर साहब ने कहा कि इस प्रोग्राम में आपको अना की सिफ़ारिश पर बुलाया जा रहा है। अना अब हमारे साथ मिलकर तब्लीग़ कर रही है। वह सुनने वाले को बहुत जल्दी मुतास्सिर कर देती है। सबसे अनोखी बात यह है कि जहाँ हमसे लोग इस्लाम और मुसलमान को लेकर बहुत से सवाल करते हैं, वहीं उसकी बात लोग बहुत आसानी से बिना हील-हुज्जत किए मान लेते हैं।
अना का ज़िक्र मुझे हैरत में डाल गया। मैंने आॅनलाईन मैरिज कोर्स ‘जल्दी शादी कैसे हो?’, में अना की माइन्ड रि-प्रोग्रामिंग का पूरा क़िस्सा बयान किया है। जिन उसूलों से उसकी शादी में आसानी हुई, उन्हीं उसूलों को वह अब दावती काम में इस्तेमाल कर रही है। मैंने उसकी समझदारी की दिल ही दिल में तारीफ़ की। 
तयशुदा वक़्त पर हम बसीर साहब के पास दिल्ली पहुँच गए। हमें एक अच्छे होटल में ठहराया गया। सुबह को बसीर साहब हमें अपने साथ अपने घर ले गए। उनकी वाईफ़ और बच्चों ने हमें उम्दा और लज़ीज़ नाश्ता कराया। इस दौरान बसीर साहब के बीवी बच्चे हमसे तरह तरह के सवाल करते रहे। नाश्ते से फ़ारिग़ होकर हम निज़ामुद्दीन, दिल्ली में उनके मर्कज़ पर पहुंचे। उनका बड़ा सा हाॅल नौजवानों से भरा हुआ था। इनमें आलिम भी थे। एक साइड में रखी कुर्सियों पर औरतें और लड़कियाँ बैठी हुई थीं। मैंने अना को कभी देखा न था। इसलिए मैं उसे पहचान नहीं सकता था। वैसे भी उनमें ज़्यादातर चादर और बुर्क़े में थीं। हर चीज़ बहुत सलीक़े और इन्तेज़ाम की गवाही दे रही थी। हाॅल में दो सौ से ज़्यादा ही लोग थे। स्टेज पर माईक, लैपटाॅप और ज़रूरत की सभी चीज़ें मौजूद थीं।
बसीर साहब ने स्टेज सम्भाला। उन्होंने हमें और क़ुरआन के एक क़ारी को स्टेज पर कुर्सियों पर बिठाया। क़ुरआन की तिलावत से प्रोग्राम की शुरूआत की गई। क़ारी ने सूरह फ़तह की तिलावत की। फिर बसीर साहब ने सबको मेरा इन्ट्रोडक्शन दिया। ‘तिब्बे नबवी और वेलनेस साईन्सेज़’ पर मेरी रिसर्च और मेरी किताबों की जानकारी दी। फिर उन्होंने मुझसे कहा कि यहाँ वे लड़के लड़कियाँ और आलिम जमा हैं, जो इस्लाम की तब्लीग़ में लगे हुए हैं। इसलिए बराय करम आप इन्हें बताएं कि क्या ये लोग आज के चैलेन्जिंग टाईम में ‘तिब्बे नबवी और वेलनेस साईन्सेज़’ से दीन की दावत में कोई ख़ास मदद ले सकते हैं? और अगर ले सकते हैं तो कैसे मदद ले सकते हैं? इसी के साथ हम आपसे यह भी रिक्वेस्ट करेंगे कि इस प्रोग्राम में यूनिवर्सिटीज़ के स्टूडेन्ट्स और आलिम हैं। इसी के साथ औरतें और लड़कियाँ भी हैं। आप अपनी बात इतनी आसान ज़ुबान में कहें कि हरेक पूरी तरह और आसानी से समझ ले ताकि ये लोग आपकी बताई तकनीकों का दावत के फ़ील्ड में इस्तेमाल भी कर सकें।
उन्होंने अपने आखि़री जुमले में ‘दावत का फ़ील्ड’ बोला तो मेरे दिल में यह ख़याल आया कि ये लोग ‘अक़्ल और साईन्स’ वाले लोग हैं। हज़रत शाह वलीउल्लाह रहमतुल्लाहि अलैह जैसे रूहानी इल्म के माहिर बुज़ुर्ग ख़याल की जिस लतीफ़ ताक़त को अपनी किताबों में पुरानी टर्मिनोलाॅजी में बयान करके गए हैं, क्यों न आज उस इल्मो हिकमत को इनके सामने ‘क्वांटम फ़ील्ड में दावा वर्क’ के नाम से आसान ज़ुबान में बयान कर दिया जाए। यह ख़याल बिजली की तरह तेज़ी से हमारे दिल में रौशन हुआ तो हमें अपनी बात शुरू करने के लिए एक सिरा नहीं बल्कि पूरा सब्जेक्ट ही हाथ आ गया।

क्वांटम दावा फ़ील्ड वर्क
मैं रब की हम्द और नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पर सलातो-सलाम के बाद कहना शुरू किया-
मैं ख़ुद को बहुत ज़्यादा ख़ुशनसीब मानता हूँ कि मैं आप जैसे बहन भाईयों के बीज मौजूद हूँ जो सबको अच्छी और सच्ची बात बताते हैं। मैं इसके लिए अपने रब का बहुत ज़्यादा शुक्रगुज़ार हूँ। मैं आपके भलाई के जज़्बे की क़द्र करता हूँ। आप देश और दुनिया के ताज़ा हालात देखकर दुखी हैं और उनका कुछ भला करना चाहते हैं तो यह लेक्चर आपके लिए काफ़ी क़ीमती है। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ ख़ाँ रहमतुल्लाहि अलैह दारूल उलूम देवबन्द के उस्ताद थे। वह मेरे दादा के दादा थे। मौलाना हुसैन अहमद मदनी रहमतुल्ला िअलैह जैसे बहादुर आलिम उनके शागिर्द थे। मौलाना अब्दुल अज़ीज़ ख़ाँ रहमतुल्लाहि अलैह हज़रत शाह वलीउल्लाह रहमतुल्लाहि अलैह के रूहानी उलूम पर भी नज़र रखते थे। उनकी वजह से उनकी औलाद में, हर नस्ल में दीन के ज़ाहिरी इल्म के साथ रूहानी उलूम का एक हिस्सा भी लगातार पहुँचता रहा। अपने घर और देवबन्द के इल्मी माहौल की वजह से ही मेरे लिए बारीक रूहानी बातों को समझना और उन पर यक़ीन करना आसान हुआ। देवबन्द की बरकतों में से एक यह भी है कि मुझे बड़े आलिमों की सोहबत नसीब हुई और उनसे वे रूहानी राज़ सुनने को मिले, जो किसी किताब में पढ़ने को नहीं मिलते। ऐसे ही आलिमों में एक मेरे उस्ताद मौलाना शम्स नवेद उस्मानी हैं। जो हार की हालत में फ़तह के मन्ज़र को सामने रखने का हुनर सिखाते थे।
आप ख़ुद को मज़्लूम पाते हैं या हालात के सामने लाचार और बेबस पाते हैं तो आज यह लेक्चर आपको उस ज़बर्दस्त रूहानी ताक़त से वाक़िफ़ कराएगा, जो कि आपके अन्दर हमेशा से है। जो लगातार आपके यक़ीन और गुमान को आपकी ज़िन्दगी का सच बनाती रहती है। आपका ईमान, विश्वास आपकी रूहानी ताक़त है। हम जो भी विश्वास करते हैं, वह क़ुदरती क़ानून के तहत हमारे लिए सच हो जाता है। दिल अपने आपमें एक पूरी दुनिया है और अपने दिल की दुनिया में आप सबसे ताक़तवर हैं क्योंकि जो भी मानना चाहें, वहाँ सिर्फ़ आप ही मानते हैं। आप जो भी मानते हैं, वह आपको क़ानून के तहत मिलता है। अगर आप ख़ुद को मज़्ालूम मानते हैं, हालात के सामने लाचार और बेबस पाते हैं तो यही आपका विश्वास है। आपको क़ुदरती क़ानून के तहत ऐसे लोग मिलते रहेंगे, जो आपके विश्वास को पूरा करेंगे। वे आप पर ज़ुल्म करेंगे। तब आप ख़ुद को हालात के सामने लाचार और बेबस पाएंगे। जैसा कि आपका विश्वास है।
आप एक संवेदनशील (हस्सास) आदमी हैं। आप देश और दुनिया के हालात देखकर दुखी हैं। अगर आपकी नज़र मुसीबतों पर ही चिपक कर रह गई है और आप अपने माइन्ड में उसका हल नहीं देख पा रहे हैं तो मुसीबतों पर आपका फ़ोकस देश और दुनिया के हालात की ख़राबी में इज़ाफ़ा कर रहा है।
आप प्राॅब्लम को बाहर देख रहे हैं और उसका हल भी आप बाहर ही देख रहे हैं। आप मदद के लिए दूसरों की तरफ़ देख रहे हैं और ख़ुद को भूले हुए हैं। आप ख़ुदी की ताक़त को भूले हुए हैं। इसी ‘भूल’ की वजह से आप अपनी ज़बर्दस्त ताक़त का इस्तेमाल फ़लाह और कल्याण में नहीं कर पा रहे हैं।
मेरी समझ के मुताबिक़ अल्लाह की याद और उसकी अथाह ताक़त की याद इसीलिए की जाती है कि बन्दे को अपने वुजूद की हक़ीक़त और अपनी वह जबर्दस्त ताक़त की याद आ जाती है, जो उस पर उसके रब की ख़ास नेमत है। बन्दा अपने रब की नेमतों को याद करता है तो उसे उन नेमतों की पहचान होती चली जाती है, जो रब ने उसके अन्दर हमेशा से रखी हुई हैं और जिनमें रब ने उसे रखा हुआ है। इससे उसे अपनी सही पहचान हो जाती है।
आम तौर पर लोग ख़ुद को अपने बाहरी हालात की बुनियाद पर पहचानते हैं। यह पहचान अधूरी है। आपको अपनी ही नहीं अपने हालात की पहचान भी नहीं है। क्या कभी आपने ग़ौर किया है कि आपके बाहरी हालात कैसे बने?
नहीं, आपने कभी ग़ौर नहीं किया। बस, आपने इन्हें तक़दीर और भाग्य का नाम दे दिया।
क्या कभी आपने अपने दिमाग़ और दिल की ताक़त को जानने पर कुछ महीने का वक़्त लगाया?
नहीं, आपको कभी ऐसा नहीं लगा कि आपको इनकी ताक़त के बारे में जानना चाहिए। आपको लगता है कि आप जानते हैं।
अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आप ग़लत सोचते हैं। आप इन्टरनेट पर दिल की ताक़त पर किसी अच्छे स्काॅलर के दो चार वीडियो देखिए और फिर अपने आप से पूछिए कि क्या आप दिल की ताक़त के बारे में ये बातें जानते थे?

क्वांटम फ़ील्ड क्या है?
क्वांटम फ़ील्ड सूक्ष्म (लतीफ़) जगत है। जिसे कोई भी अपने पाँचों सेन्स से नहीं पकड़ सकता। यही वह मक़ाम है, जहाँ से हालात के बनने की शुरूआत होती है। अगर आप पुराने हालात की जगह नए हालात लाना चाहते हैं तो आपको क्वांटम फ़ील्ड की समझ ज़रूरी है। नए लोगों की तरह आप नए हालात को भी दावत दे सकते हैं।

क्वांटम फ़ील्ड में दावा वर्क करने के लिए क्या जानना ज़रूरी है?
क्वांटम फ़ील्ड में दावा वर्क करने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि आपका वुजूद एक ‘नाम’ है जोकि सबसे बड़ा सीक्रेट है। आपकी मुसीबतें जहालत की वजह से आपके वुजूद से ही ज़ाहिर हो रही हैं और इनका हल भी आपके वुजूद में ही है। जब आप इस राज़ को जान लेते हैं तो आपके हाथ में हर मसले के हल की ‘मास्टर की’ आ जाती है।
यह ‘मास्टर की’ ख़ुदी (चेतना) है। अन्दर और बाहर के हालात, सब ख़ुदी (चेतना) की हालतें हैं। हरेक हालत से ख़ुदी की हालत ज़ाहिर हो रही है। जब हम अपने दिल और दिमाग़ में संतुलन और तालमेल बना लेते हैं तो हमें अपने वुजूद में प्रेम, आनन्द और शांति का एहसास होता है। हम ख़ुद को हल्का महसूस करते हैं। तब यह सब हमारी ज़िन्दगी में भी आ जाता है। अक्सर लोग किसी काम को करने पर प्रेम, आनन्द और शाँति का मिलना मानते हैं। वे भूल चुके हैं कि ये हमारी ख़ुदी की फ़ितरत है। कुछ न किया जाए तब भी यह ख़ुदी में हमेशा से मौजूद हैं। अपने कामों से हम अपने प्रेम, आनन्द और शाँति को अपने हालात में ज़ाहिर करते हैं। ऐसे कामों को ही स्वालेह अमल और सत्कर्म कहा जाता है। संस्कृत में ‘सत्’ शब्द अस्तित्व (वुजूद) के लिए बोला जाता है।
  • क्वांटम फ़ील्ड में दावा वर्क से फ़ायदा पहुंचाने के लिए आपको उन बातों को जानना भी ज़रूरी है, जिन्हें ख़ुदी की ज़बर्दस्त ताक़त को पहचानने वालों ने बताया है, जैसे कि   ज़िन्दगी में एक वहदत (एकत्व) है। इसकी सारी ख़ूबियाँ आपस में जुड़ी हुई हैं। ज़िन्दगी बहुत फैली हुई है। दिल से लेकर अर्श तक फैली हुई ज़िन्दगी आपस में जुड़ी हुई है। जिस बात का आप अपने दिल में यक़ीन और गुमान करते हैं या किसी बात के होने की उम्मीद करते हैं या अपने दिल में किसी बात से डरते हैं, आपका वह जज़्बा अर्श तक जा सकता है।
  •     हमारी ताक़त का पल हमेशा इसी पल में होता है, जिसमें हमारी सांस चल रही है, जिसमें हम ज़िन्दा हैं।
  •     हमारा हरेक ख़याल और जज़्बा हमारा भविष्य बना रहा है।
  •     हरेक के दिल पर ग़म, डर, ग़ुस्सा, नफ़रत और शिकायतें हावी हैं।
  •     हरेक दूसरे लोगों से अपनी तुलना करता है और अपने दिल में यक़ीन करता है कि ‘मैं इनके मुक़ाबले कुछ भी नहीं हूं।’
  •     हरेक दूसरों से अपने लिए ऐसी उम्मीदें करता है, जो वे पूरी नहीं कर सकते। इससे वह अपने दिल पर चोट महसूस करता है। वह अपने दिल को टूटा हुआ महसूस करता है। उसे अपने अन्दर दर्द महसूस होता है।
  •     हरेक अपने दिल में कुछ बातों को लेकर ख़ुद को मुजरिम और घटिया मानता है। पुरानी कड़वी यादें उसे ‘अब’ के पल में बेचैन रखती हैं। वह अपने दिल में शर्मिन्दा है और ख़ुद को इल्ज़ाम देता रहता है। वह ख़ुद को माफ़ नहीं कर पा रहा है। जिससे सज़ा की डिमांड पैदा होती है और फिर क़ुदरत के क़ानून के तहत उसे सज़ा के हालात में रखा जाता है।
  •     ग़ुस्सा, अपराध-बोध और ख़ुद को और दूसरों को हर वक़्त कमी के पहलू से देखना सबसे ज़्यादा नुक़्सान देने वाला काम है।
  •     हम अपनी ज़िन्दगी के ज़्यादातर हालात के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं।
  •     हम जिन लोगों की सोहबत में परवरिश पाते हैं या जिनसे शिक्षा पाते हैं, उनके नज़रिए को हम अन्जाने में अपना लेते हैं। वे जैसे हमें देखते थे, हम भी ख़ुद को वैसा ही मानने लगते हैं। वे जिस बात को कामयाबी का पैमाना मानते थे, हम भी उसे कामयाबी का पैमाना मान लेते हैं। वे दूसरों को जैसे देखते थे, हम भी उनकी नक़ल में दूसरों को वैसे ही देखने लगते हैं। दूसरों ने हमारे माइन्ड को प्रोग्राम कर दिया है। इसीलिए हमारी ज़िन्दगी में वैसे ही हालात ज़ाहिर होते हैं, जैसे हालात उनके थे, जिन्होंने हमारे माइन्ड को प्रोग्राम किया है। माइन्ड प्रोग्रामिंग और बाहरी हालात आपस में जुड़े हुए हैं। आपकी ज़िन्दगी में ऐसे हालात हैं, जो आपके विकास को रोकते हैं और आपको दुख देते हैं तो आप अपनी माइन्ड प्रोग्रामिंग में उन हालात से जुड़े  विश्वासों को बदलें, आपके बाहरी हालात बदल जाएंगे।
  •     बदलाव की शुरूआत हमेशा अपने अन्दर से ही करनी है क्योंकि यहीं से होती है और यहीं से हो सकती है।
  •     दिल की निगेटिव फ़ीलिंग्स से ग़रीबी, क़र्ज़, झगड़ों और बीमारियों के हालात ज़ाहिर होते हैं।
  •     हरेक हालत सिर्फ़ एक हालत है। जो आपकी दावत पर आपकी ज़िन्दगी में आई है। जब आप अपने दिल की निगरानी नहीं करते, तब आपके दिल में समाज के एलीट क्लास के लोग अपना प्रोग्राम इंस्टाॅल कर देते हैं और उस प्रोग्राम के मुताबिक़ आपकी ज़िन्दगी में हालात आ जाते हैं। आप नए हालात को दावत देंगे तो नए हालात आ जाएंगे। तब पुराने हालात मिट जाएंगे। किसी हालत में अपने आप में कोई ताक़त नहीं है। हरेक हालत बदली जा सकती है।
  •     किसी इन्सान या शैतान को आप पर कोई ताक़त और क़ब्ज़ा हासिल नहीं है, जब तक कि आप उसकी ताक़त और क़ब्ज़े में यक़ीन न करें।
  •     डर और ग़ुस्से को मुहब्बत और माफ़ी के अमल से दूर कर दिया जाए तो ग़रीबी, क़र्ज़, झगड़ों और बीमारियों को भी दूर किया जा सकता है।
  •     कैंसर जैसी बीमारियों को इस तरीक़े से दूर होते देखा गया है।
  •     हमें अपनी भलाई के लिए पुरानी बातों को भूलकर सभी को माफ़ कर देना चाहिए।
  •     दूसरों ने हमें कैसे देखा और क्या समझा?, हमें इसे भी भूल कर अपने दिल में ख़ुद के साथ मुहब्बत, माफ़ी, रहम, इज़्ज़त और सलामती का बर्ताव करना चाहिए। फिर उसी के मुताबिक़ बाहर भी अमल करना चाहिए।
  •     ‘सेल्फ़ काॅन्सेप्ट’ में अपने दिल में अपने पास वे सब शक्तियां देखें, जो आप पाना चाहते हैं और वे सब काम करें, जो आप बाहर करना चाहते हैं।
  •     हम ‘अब’ के पल में ख़ुद को अपने अन्दर एक नया जन्म देकर ही पाॅज़िटिव चेन्ज ला सकते हैं। हम ख़ुद को, चीज़ों को और भविष्य को देखने का नज़रिया बदलते हैं तो ज़िन्दगी में सब कुछ ठीक होने लगता है।
  •     आप ख़ुद को और दूसरों को सलामती, रहमत और बरकत की दुआ देने की आदत डाल लें क्योंकि जो आप ‘अब’ बोल रहे हैं, इसी एनर्जी से आपके भविष्य की घटनाएं रूप और आकार लेंगी।
  •     अगर आप सिर्फ़ एक ही काम कर सकें तो आप ख़ुद पर और दूसरों पर रहम करें। रहम का तक़ाज़ा यह है कि आप ख़ुद को और दूसरों को कमियों के पहलू से देखना छोड़ दें। आपकी या दूसरों की बाहरी हालत चाहे जो हो, आप अपने ‘विज़न’ में ‘अब’ के पल में ख़ुद को और दूसरों को वैसा भला देखें और महसूस करें जैसा कि आपको ख़ुशी दे। जब आप ऐसा करते हैं तो आप अपनी ज़बर्दस्त ताक़त का इस्तेमाल करते हैं और आप क्वांटम लेवल पर हालात को बदलते हैं। इस तरह आप दुनिया के पर्दे पर ‘नए हालात को दावत’ देते हैं।
  •     पवित्र क़ुरआन (2ः144) में अल्लाह के नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ‘देखने से क़िब्ला बदलने’ का ज़िक्र आया था। सीरत के इस बहुत बड़े वाक़ये से आप देखने की ताक़त को समझ सकते हैं। यक़ीनन यह नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ज़बर्दस्त नज़र का असर था लेकिन आपके दर्जे के मुताबिक़ आपके देखने का भी असर पड़ता है। अपने देखने की ताक़त को समझने के लिए आप एक तजुर्बा कर सकते हैं।
तुरन्त चमत्कार देखें
तिब्बे नबवी में नज़र के अच्छे और बुरे असर पर इब्ने क़य्यिम रहमतुल्लाहि अलैह और दूसरे स्काॅलर्स ने बहुत तफ़्सील से जानकारी दी है। आपका देखना और मानना आपकी ज़िन्दगी में चमत्कार दिखाता है। तिब्बे नबवी और वेलनेस साईन्सेज़ में जो पाॅवरफ़ुल तकनीकें सिखाई जाती हैं, वे आपकी ज़िन्दगी में बहुत बड़ा चमत्कार करती हैं। आप इसे खुद अपनी आँखों से देख सकते हैं। आप देख सकते हैं कि आपका यक़ीन आपकी फ़िज़िकल रिएलिटी को कितना ज़्यादा प्रभावित करता है। हम आपको यहाँ एक बहुत आसान तकनीक सिखा रहे हैं। आप इसे कीजिए और तुरन्त चमत्कार देखिए।
आप अपने दोनों हाथों को अपने सामने खोलकर देखिए। आप अपने दोनों हाथों की कलाईयों और हथेलियों पर बनी लकीरों को देखिए और फिर आप उन्हें आपस में मिलाते हुए दोनों हाथों को जोड़ लीजिए। अब आप चेक कीजिए कि आपके किस हाथ की उंगलियाँ दूसरे हाथ से छोटी हैं? आपके एक हाथ की उंगलियाँ दूसरे हाथ से मामूली सी छोटी होंगी। आप दोनों हाथों को अलग कर लें और फिर से पहले की तरह सावधानी से जोड़कर चेक करें कि किस हाथ की उंगलियाँ दूसरे हाथ के मुक़ाबले छोटी हैं?
इसके बाद आप किसी एक उंगली को चुन लीजिए। अब आप दोनों हाथ अलग अलग कर लीजिए। जिस उंगली को आपने चुना है, आप उसे अपने सामने रखकर उसे देखिए और अपने दिल में यह मानिए कि यह उंगली तेज़ी से लम्बी हो रही है। आप 25 सेकंड तक ऐसा कीजिए। इस बीच आप न तो किसी और चीज़ को देखिए और न ही किसी दूसरी बात को सोचिए। आप 25 सेकंड तक सिर्फ़ अपनी उंगली को देखते रहें और यह मानते रहें कि आपकी यह उंगली तेज़ी से लम्बी हो रही है। यह काम आराम से करना है। अपने दिल या दिमाग़ पर किसी तरह का ज़ोर डालने की कोई ज़रूरत नहीं है।

आप 25 सेकंड के बाद अपने दोनों हाथों को बताए गए तरीक़े से जोड़कर चेक कीजिए। आपकी वह उंगली पहले के मुक़ाबले लम्बी हो चुकी होगी। यह चमत्कार आपने अपने अन्दर की ताक़त से काम लेकर ख़ुद किया है। यह तकनीक हमने अपने आॅनलाईन मैरिज कोर्स से ली है। जिसे हमने शादी की रूकावटों को दूर करने के लिए खास तरीक़े से डिज़ायन किया है। अब आप विश्वास कर सकते हैं कि माइन्ड की तकनीकें सचमुच ज़बर्दस्त चमत्कार करती हैं और क्वांटम लेवल पर तुरन्त करती हैं।

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह का एक्सपेरिमेन्ट
हमारे उस्ताद मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ख़ुदी के बहुत बड़े पहचानने वाले और बुलन्द ख़ुदी के इन्सान थे। वे माइन्ड पाॅवर के क़ानून को बहुत गहराई से जानते थे और अपने शागिर्दों को सिखाते भी थे। उनकी हरेक मजलिस और उनका हरेक लेक्चर अगर लिखा जाता तो हज़ार से ज़्यादा किताबें बन जातीं और हरेक किताब में इल्मो हिकमत के अनमोल मोती होते जो कि दूसरी जगह मिलने मुश्किल हैं।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह मुहब्बत के बहुत बड़े प्रचारक थे। अक्सर वे अपनी मजलिसों में मुस्लिम शागिर्दों को हिन्दुओं से मुहब्बत से पेश आने की ताकीद करते थे। वे कहते थे कि हिन्दू क़ौम बहुत हस्सास (संवेदनशील) होती है। वे कहते थे कि आप इसे चेक करके भी देख सकते हैं। इसके लिए वह एक तजुर्बा करने के लिए कहते थे कि आप किसी रास्ते पर जा रहे हों तो अपने आगे जा रहे किसी हिन्दू भाई की गर्दन पर नज़र जमा कर मुहब्बत से देखें और यह नीयत करें कि वह पीछे मुड़कर देखे। वह पीछे मुड़कर चैंक कर देखेगा। इसका मतलब यह होगा कि उसके दिल तक आपका मुहब्बत भरा मैसेज पहुँच गया।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ऐसी बेशुमार बातें सिखाते थे। ये सब बातें उनके शागिर्दों को याद हैं। इनका तज़्करा किसी किताब में नहीं है। ‘अगर अब भी न जागे तो ...’ में उनका जितना इल्म महफ़ूज़ हुआ है, वह उनके तमाम इल्मी ख़ज़ाने का एक बहुत अहम हिस्सा है। उसी इल्म ने एशिया के उर्दू-हिन्दी जानने वालों की सोच में बड़ी तब्दीली कर दी है। इसके बावुजूद यह उनके पूरे इल्मो हिकमत का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है, जिसे उनके शागिर्द सामने लाते तो मुहब्बत का मैसेज और ज़्यादा तेज़ी से फैलता। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह अपने नफ़्स और दिल के सुधार पर बहुत ज़्यादा और बार बार ज़ोर देते थे।

अपनी तवज्जो शैतान के हाथों पर नहीं बल्कि रब के हाथों पर रखिए
अब आप यह आसानी से समझ सकते हैं कि आप जो हालत देखते हैं और जिस बात का यक़ीन करते हैं, आप उसे इस दुनिया में वुजूद में आने की दावत देते हैं। अगर आप दुनिया को शैतान के पंजों में देखते हैं तो आप ऐसे हालात को ‘दावत’ देते हैं जिनमें शैतान को दुनिया पर क़ब्ज़े में सपोर्ट मिलती है क्योंकि आपका फ़ोकस उस नागवार प्राॅब्लम पर है, जिसे आप हटाना चाहते हैं। आप उसे अपनी किताब का टाइटिल बना देते हैं तो लाखों लोगों की नज़र उस निगेटिव इमेज पर पड़ती है। आप उन्हें भी ‘दुनिया को शैतान के पन्जों में’ दिखाते हैं। अब इनका यह यक़ीन होता है कि दुनिया पर शैतान का बहुत मज़बूत क़ब्ज़ा है। उनकी ताक़त भी क्वांटम लेवल पर शैतान को मज़बूत करती है। यह सुनने में बहुत अजीब लगता है कि अल्लाह के बन्दे अपनी ताक़त शैतान को मज़बूत करने में लगा रहे हैं और फिर उसे मिटाने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह उनकी अपनी ताक़त ही अपने खि़लाफ़ इस्तेमाल हो रही है।
इसीलिए ये लोग दावते दीन और इस्लाह का काम शुरू करते हैं लेकिन इन्हें अपना टारगेट हासिल नहीं होता। पूरी दुनिया को ये शैतान के पन्जे से छुड़ा नहीं पाते, अपने मुहल्ले की एक गली के लोग भी इनकी जमात को ज्वाइन नहीं करते। इनके रास्ते में पहले के मुक़ाबले और ज़्यादा रूकावटें आने लगती हैं।
एक नौजवान लड़के ने हाथ उठाकर सवाल की इजाज़त चाही। मेरी इजाज़त पाकर उसने पूछा-अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने भी दावत के काम में रूकावटें आई थीं। उसकी क्या वजह थी?
मैंने उसके सवाल को सराहते हुए कहा-यह बात सही है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने रूकावटें आई थीं लेकिन उनकी वजह सामूहिक मन (मास माइन्ड) का रेज़िस्टेन्स थी। इन लोगों के सामने सामूहिक मन की वजह से भी रूकावटें आती हैं और ख़ुद अपने ‘नफ़्स’ की ख़राबी की वजह से भी। प्रेम, आनन्द, शाँति और समृद्धि से भरी हुई मानव जाति, जो इनका टारगेट होती है, उसकी कोई इमेज इनकी किसी किताब पर नहीं होती। ये लोग जो चाहते हैं, उस पर इनकी नज़र नहीं है बल्कि इनकी नज़र उस चीज़ पर है, जिसे ये नहीं चाहते। क़ुदरत के क़ानून की सही समझ के बाद ये अपनी किताबों के टाईटल्स ज़रूर बदल डालेंगे।
आम समझ का आदमी कहेगा कि अपने टाइटिल में हम मौजूदा हालात की अक्कासी (छायांकित) का रहे हैं। जैसा हम देख रहे हैं, उसी को टाइटिल की शक्ल में दिखा रहे हैं। इसमें क्या ग़लत है? क्या ऐसे ही हालात नहीं हैं?
आम सतह की समझ के ऐतबार से निगेटिव टाइटिल को उचित कहा जा सकता है क्योंकि आम लोग ‘नज़र की करिश्माई तासीर’ को नहीं समझते लेकिन जब आप समाज के लोगों के हालात की इस्लाह करने चलें तो आपको आम सतह से चीज़ों को देखने के बजाय बुलन्द ख़ुदी से काम लेना होगा। आपको यूनिवर्सल लाॅ को जानना होगा ताकि आप उनसे काम लेकर अपना और समाज का भला कर सकें।
यूनिवर्सल लाॅ यह है कि ‘जिस बात को आप तवज्जो देते हैं, उसे आप एनर्जी देकर और ज़्यादा पाॅवरफ़ुल बना देते हैं।’ इसलिए आप जिस प्राॅब्लम को कमज़ोर करके मिटाना चाहें तो सबसे पहले आप उससे अपनी तवज्जो हटाएं और हमेशा उसके हल को एक इमेज पर अपनी तवज्जो जमाए रखें। यक़ीन रखें कि अभी यह दिल की दुनिया में सच है और हम बाहर की दुनिया में भी इसे बहुत जल्दी देखेंगे।
जब आप कोई दावती किताब या आर्टिकल लिखें तो उसके टाइटिल में हमेशा उस टारगेट को दिखाएं जो कि आप पाना चाहते हैं, जिसकी आप ‘दावत’ दे रहे हैं। जब आप कोई तक़रीर करें तब भी आप अपने पीछे जो बैनर लगाएं, उसमें अपने टारगेट की बिल्कुल साफ़ इमेज सब लोगों के सामने रखें और उसी पर बात करें। उसके हक़ में इतनी दलीलें दें कि लोगों को यक़ीन आ जाए कि यह काम होने जा रहा है। अपनी बातों में अपने टारगेट की हालत का इतना साफ़ मन्ज़र खींचें कि सुनने वाले उसे अपने दिल में आसानी से देख सकें। जब आप ऐसा करते हैं तो आप क्वांटम फ़ील्ड में दावा वर्क करते हैं।

पहले दिल में मैसेज दें, बाद में बाहर मैसेज दें
क़ानूने क़ुदरत यह है कि आपका हर काम दो बार में होता है। पहले अन्दर और फिर बाहर। आपके दिमाग़ के मुक़ाबले आपके दिल का इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक फ़ील्ड 5,000 गुना ज़्यादा पाॅवरफ़ुल होता है। आपका दिल लगातार ज़बर्दस्त एनर्जी पैदा करता रहता है। हर चीज़ एनर्जी की ही एक शक्ल है। इसलिए जब आप किसी प्रोग्राम में लोगों को भलाई की बात बताने के लिए जाएं और आप चाहें कि लोग आपकी बात को क़ुबूल करें तो आप अपने दिल की ज़बर्दस्त ताक़त से काम लें। इसका तरीक़ा यह है कि किसी कमरे में सबसे अलग हो जाएं और कमरे को अन्दर बन्द कर लें। आप आराम से अपने बदन को ढीला छोड़कर बैठ जाएं या लेटना चाहें तो लेट जाएं। आप पेट तक दस बार गहरे साँस लें ताकि आपके अन्दर एनर्जी का पैटर्न बदले और आपका माइन्ड सुकून की हालत में आ जाए क्योंकि आपका दिल सुकून की हालत में अच्छा काम करता है।
अब आप उस प्रोग्राम की मूवी अपने माइन्ड में देखें। आप उसमें ख़ुद को एक असरदार मैसेज देते हुए देखें और फिर सब लोगों को ख़ुश होते हुए और उसे क़ुबूल करते हुए देखें। आप अपने पीछे, अपने साथ उन सब लोगों को सज्दा करते हुए देखें तो और ज़्यादा अच्छा है। आप ऐसे फ़ील करें गोया यह सब सचमुच आपके सामने हो रहा है। इसके लिए आप उस कल्पना में देखना, सुनना, सूंघना, छूना और चखना, इन सभी सेन्सेज़ का इस्तेमाल करें। जिन लोगों ने प्रोग्राम आॅर्गेनाइज़ किया है, उनके चेहरों को बिल्कुल साफ़ देखें। अगर एक दो दिन का वक़्त हो तो आप यह अमल रात को सोते वक़्त करें और तहज्जुद के वक़्त भी करें। उस वक़्त सभी लोग सो रहे होते हैं। उनका काॅन्शियस माइन्ड भी सोया हुआ होता है, जो कि एक चैकीदार की तरह काम करता है और हरेक मैसेज को चेक करके ही दिल तक जाने देता है। सोते वक़्त आप इमेज के रूप में जो मैसेज उन्हें भेज रहे हैं, वह सीधा उनके दिल में जा रहा है। जब वे बाद में आपके प्रोग्राम में आपका मैसेज सुनेंगे तो वे वही रेस्पाॅन्स देंगे, जिसका मैसेज आपने उनके दिल में पहले ही फ़ीड (इल्क़ा) कर दिया था।
जब भी कोई आदमी कुछ सोचता या बोलता है तो वह क्वांटम फ़ील्ड में ज़रूर एक असर छोड़ता है। ज़्यादातर लोगों का एटीट्यूड निगेटिव है। इसलिए वे क्वांटम फ़ील्ड में अपने खि़लाफ़ हालात की दावत देते हैं। जब वे अपने नफ़्स की ख़राबी की वजह से किसी हादसे का शिकार हो जाते हैं तो लोग समझते हैं कि उन्होंने अल्लाह की राह में क़ुर्बानी दी है या शहादत पाई है। दावत के काम में लगने के बावुजूद कोई दाई ज़लज़ले में मर जाता है और कोई एक्सीडेन्ट में। इन घटनाओं से लोग बड़े अचम्भित होते हैं। इनकी व्याख्या ‘पेराडाइम’ (शाकिलह) के आधार पर ही मुमकिन है। मानव मन के विश्वासों पर काम करके दुनिया भर में अपनी खोज की वजह से इज़्ज़त और शोहरत पाने वाली लुईस एल. हे लिखती हैं-
‘दुर्घटनाएं दुर्घटना नहीं होतीं। अपने जीवन में दूसरी चीज़ों की तरह हम स्वयं उन्हें जन्म देते हैं। ऐसा नहीं है कि हम ज़रूर यही कहते हैं, ‘मैं चाहता हूँ कि मेरी दुर्घटना हो जाए।’ लेकिन हमारे मानसिक विचार ऐसे होते हैं, जो हमारी ओर दुर्घटना को आकृष्ट करते हैं। कुछ लोगों के साथ अधिक दुर्घटनाएं होती हैं और कुछ को जीवन भर एक खरोंच तक नहीं लगती।’
-यू कैन हील योर लाईफ़, हिन्दी अनुवाद, प्रभात प्रकाशन, पेज नं. 144


आप हमेशा अपने दिल में ख़ुद ब ख़ुद और बार बार चलने वाली तस्वीरों को चेक करें। अपने दिल में बार बार उठने वाली मायूसी और तनाव के एहसास पर नज़र रखें। अपने दिल पर नज़र रखना सिर्फ़ आपका काम है और यह बहुत अहम ज़िम्मेदारी है। जब आप इन पर ख़बरदार हो जाएं तो आप हमेशा इन्हें अपनी पसन्द की तस्वीर और फ़ीलिंग से बदल दें। इस मक़सद के लिए आप कोई कलिमा या दुआ भी रिपीट कर सकते हैं। बार बार ऐसा करने से आपके दिल से निगेटिव तस्वीरें और निगेटिव फ़ीलिंग्स दूर हो जाएंगी। आपका दिल ज़्यादा सुकून और ख़ुशी महसूस करेगा, जिसे पाने के लिए इन्सान सारे काम करता है।
माइन्ड लफ़्ज़ के साथ तस्वीरों में भी सोचता है। एक साफ़ तस्वीर मैसेज को हज़ार अल्फ़ाज़ से ज़्यादा क्लियर करती है। जब आप अपने और दूसरों के दिल को एक तस्वीर के रूप में क्रिस्टल क्लियर मैसेज देते हैं तो फिर दूसरों का और आपका दिल उसे हक़ीक़त बनाने में ज़मीन और आसमान एक कर देता है और अपने ठीक वक़्त पर वह बात ख़ुद पूरी हो जाती है, जिसके पूरी होने का आप यक़ीन करते हैं और दूसरों को यक़ीन दिलाते हैं।

इस बार एक लड़की ने सवाल के लिए हाथ उठाया। हालाँकि सवाल जवाब का सेशन बाद में किए जाने थे लेकिन यह सब्जेक्ट उनके लिए बिल्कुल नया था। इसलिए वे ख़ुद को सवाल रोक नहीं पा रहे थे। मैं भी चाहता था कि वे जितना सुनें, उतना समझते हुए भी चलें। इसललिए मैंने उसे भी इजाज़त दे दी।
लड़की ने कहा-मेरा नाम वाक़िफ़ा है। मैं यह जानना चाहती हूँ कि क्या आप यह कहना चाहते हैं कि हम सिर्फ़ इमेजिनेशन में ही लोगों को तब्लीग़ किया करें और हक़ीक़त में लोगों को दीन की तब्लीग़ न करें?
मैंने मुस्कुराकर कहा-मैं यह चाहता हूँ कि आप एक ही आदमी या जमात को दो बार तब्लीग़ करें ताकि आपको दोहरा अज्र (बदला) मिले। पहले आप उन्हें अपने दिल में तब्लीग़ करें और फिर आप उन्हें बाहर की दुनिया में तब्लीग़ करें। आप इस दुनिया को हक़ीक़त समझ रही हैं, जिसकी चीज़ें हर पल बदलती रहती हैं तो दिल की दुनिया इससे कहीं ज़्यादा हक़ीक़ी है क्योंकि वहाँ एक नूर है, जो कभी नहीं बदलता। वह नूर ‘शुऊर का नूर’ है। यही इन्सान की हक़ीक़त है। मैं चाहता हूँ कि आप पूरे वुजूद की ताक़त से अन्दर और बाहर, दोनों दुनियाओं में दावत का काम करें ताकि आपकी दावत सिर्फ़ अक़्ल को ही अपील न करे बल्कि वह दिलों को भी बदल डाले।
आप सिर्फ़ अक़्ल से ही काम न लें बल्कि अपने दिल की ताक़त से भी काम लें। किसी काम को बाहर की दुनिया में होने से पहले अच्छे रूप में देखना और महसूस करना, अच्छा गुमान करना है। जब आप सिर्फ़ एक अल्लाह को ही काफ़ी और काम बनाने वाला मानकर अपने दिल में अच्छा गुमान करती हैं तो आप अल्लाह से अच्छा गुमान करती हैं। अल्लाह आपके साथ वैसा ही मामला करता है, जैसा कि आप उससे गुमान करती हैं। आपके दिल का गुमान आपकी उस मेहनत पर असर डालता है, जो आप बाहर की दुनिया में करती है।
मैं यह चाहता हूँ कि आप वही गुमान करें, जो बाहर आपकी तब्लीग़ को सपोर्ट करे। जब आप किसी अन्जान आदमी से या किसी ग्रुप से बात करते हैं तो आपका दिल में तरह तरह के वसवसे के रहते हैं जैसे कि पता नहीं ये मुझसे क्या पूछेंगे?, मैं इन्हें मुत्मइन कर पाऊंगी या नहीं?, ये मानेंगे या हठधर्मी दिखाएंगे? और कई बार आदमी यह गुमान करके चलता है कि ये मानने वाले नहीं हैं लेकिन हमारी ड्यूटी है कि हम इन्हें हक़ पहुँचाएं, इसलिए इन्हें दीन की दावत दे रहा हूँ। ये सब वसवसे और बदगुमानियाँ हैं, जो आपकी दावत को ख़त्म कर रही हैं। अक्सर दावती भाई बहन इस तरह के वसवसों के साथ दावत का काम करते हैं। मैं चाहता हूँ कि आप ख़ुद अपनी दावत के असर को बर्बाद करने से बाज़ आ जाएं। जब आप बाहर की दुनिया में दावत देने से पहले उसी आदमी को या उसी ग्रुप को अपने दिल में हाज़िर करके दावत देती हैं और उन्हें ख़ुशी के साथ अपनी दावत को क़ुबूल करते हुए देखती और महसूस करती हैं तो यह एक सायको-साइबरनेटिक टेक्नीक होती है, जो आपके दिल को सारे वसवसों और बदगुमानियों से पाक कर देती है।
यह एक साईन्टिफ़िक टेक्नीक है। जिसे खिलाड़ियों की परफ़ाॅर्मेन्स सुधारने के लिए इस्तेमाल की जाती है। इस टेक्नीक से एक दाई भी अपनी परफ़ाॅर्मेन्स सुधार सकता है। इससे आपके दिल में आपका गोल क्लियर हो जाएगा। दिल की यह ख़ूबी है कि जो चीज़ इस पर क्लियर हो जाए और और उसे आप मुमकिन भी मानते हों तो यह उसके असबाब और माफ़िक़ हालात आपको दिखाने लगता है ताकि आप वह काम कर सकें जिसे आप अपने दिल में कर रहे थे।
मैं चाहता हूँ कि आप पाक दिल से और पूरी यकसूई (काॅन्सनट्रेशन) से तब्लीग़े दीन करें ताकि आपकी मुराद पूरी हो। मैं चाहता हूँ कि जब आप तब्लीग़ करें तो आपकी तब्लीग़ का असर भी हो। जब आप ऐसी तब्लीग़ करेंगे तभी आप दुनिया में वैसे लोग देख पाएंगे जो मुहब्बत, माफ़ी, मदद, रहम, शुक्र, सब्र और ख़ुशी से भरे हुए होंगे।
मैं चाहता हूँ कि पहले आप ख़ुद मुहब्बत, माफ़ी, मदद, रहम, शुक्र, सब्र और ख़ुशी से भर जाएं, इसके बाद दूसरों के पास जाएं ताकि वे आपके ‘टच’ में आएं तो उनमें भी आपकी सिफ़तें रेफ़्लेक्ट हों। आप ख़ुद जैसे होते हैं, दूसरों पर वैसा ही असर डालते हैं।
मैं चाहता हूँ कि आपका दावती काम दूसरों से पहले ख़ुद आपको बदल दे। अगर आप ख़ुद अपनी मानसिकता और अपनी आदतों को बदल सकते हैं तो फिर आप दूसरों को भी बदल सकते हैं। बदलाव की शुरूआत हमेशा आपके वुजूद से शुरू होगी। यह शुरूआत वुजूद में भी अन्दर से शुरू होगी क्योंकि वहीं से होती है और वहीं से हो सकती है।
मैंने देखा कि वाक़िफ़ा के आँखों में रौशनी थी, जो इत्मीनान के बाद ज़ाहिर होती है। उसने रज़ामन्दी में अपना सिर हिलाया और फिर वह अपनी डायरी में कुछ नोट करने लगी। मैंने हाॅल में मौजूद सभी लोगों को देखा। उन सभी की आँखों में रौशनी थी। एक नया इल्म उनकी ‘अक़्ल’ में आ रहा था और साथ ही वह उनके दिल में भी समा रहा था क्योंकि इस नए इल्म को साईन्स के हवाले से बताया जा रहा था। जिसकी सच्चाई में वे यक़ीन रखते थे थे। दूसरी बात यह थी कि एक ही बात को बार बार दोहरा कर बताया गया था।
मैंने अपनी बात जारी रखते हुए कहा-
हर आदमी किसी न किसी बात में या किसी किताब में या किसी तरीक़े में विश्वास रखता है। जब आप किसी से मिलें तो आप उसकी बातें पूरी तवज्जो से सुनें और पता लगाएं कि वह किसमें विश्वास रखता है?
हो सकता है कि वह वेद और गीता में, बाइबिल या क़ुरआन में विश्वास रखता हो। हो सकता है कि वह साईन्स में विश्वास रखता हो। हो सकता है कि वह वेदान्त में या सूफ़ी दर्शन में विश्वास रखता हो या हो सकता है कि वह धर्म के नाम पर फैले आडम्बर को देखकर ख़ुद के नास्तिक होने में विश्वास रखता हो। हर आदमी अलग बात में विश्वास रख सकता है लेकिन जो तरीक़ा हरेक के दिल को जीत लेता है, वह एक ही तरीक़ा है क्योंकि हरेक का दिल यही चाहता है कि उसे प्यार और सराहना मिले। उसे तवज्जो और क़ुबूलियत मिले। कोई आदमी किसी भी मान्यता का हो, आपको उसकी बातों में हमेशा कुछ ऐसी बातें ज़रूर मिलेंगी, जिनकी आप सराहना कर सकते हैं। जिनसे आप सहमत हो सकते हैं। जिन पर आप यह कह सकते हैं कि मैं भी यही मानता हूँ। उसकी ऐसी ही बात से आप अपनी बात शुरू करें क्योंकि वही बात आपको दिल की गहराई में जोड़े हुए है। जोड़ने वाली बात को आप बार बार उसके सामने दोहराएं। आप उसे प्यार दें। आपकी उसकी बात की सराहना करें। आप उसकी बात को क़ुबूल करें कि वाक़ई, बहुत अच्छी बात है। इससे ज़िन्दगी में प्रेम, आनन्द और शान्ति मिलती है। इससे ज़िन्दगी संवरती है। जैसे ही आप उसकी बात को अच्छा कहते हैं। आप उसे अच्छा कहते हैं। आपके ऐसा कहने से उसे ख़ुशी मिलती है। वह अपनी आत्मा में लाइट फ़ील करता है। आपकी बात सुनकर उसे अच्छा महसूस होता है। उसका दिल आपके लिए खुल जाता है। जिससे मिलकर इन्सान का दिल ख़ुशी से खिल जाता है, उसके लिए इन्सान का दिल खुल भी जाता है। उसके दिल में आपकी छाप एक अच्छे आदमी के रूप में नक़्श हो जाती है।
जब सामने वाले का दिल खुल जाए तब आप अपना मैसेज पूरी हिकमत के साथ दें। आपका मैसेज उसके दिल में सीधा उतर जाएगा। दिल में ही वह क्रिएटिव एनर्जी है, जो आपके मैसेज को उसकी ज़िन्दगी में हक़ीक़त बनाएगी। आपको उससे बार बार सम्पर्क करना है। उसे एक ही मैसेज बार बार देना है। हर बार आप अलग वाक़या और अलग मिसाल बयान कर सकते हैं लेकिन मैसेज हमेशा एक ही रखें।
मैसेज छोटा हो। मैसेज क्रिस्टल की तरह बिल्कुल क्लियर हो। जब आप बात करें तो आपकी बात से उसके माईन्ड में आसानी से एक साफ़ छवि बन जानी चाहिए। जैसे कि जब आप ‘सिराते मुस्तक़ीम’ और ‘जन्नत’ लफ़्ज़ बोलते हैं तो सुनने वाले के दिल में सीधा रास्ते और बाग़ की तस्वीर आसानी से बन जाती है। सुनने वाला अगर अरबी या गाढ़ी उर्दू न जानता हो तो आप उससे ये अल्फ़ाज़ न बोलें। अगर वह उर्दू-हिन्दी जानता है तो आप ‘सीधा रास्ता’ और ‘बाग़’ लफ़्ज़ बोलें। आपकी बात सुनने वाला जिस ज़ुबान को जानता है, उसी ज़ुबान में मैसेज दें।
मैसेज देने का मक़सद सुनने वाले का धर्म बदलना नहीं होना चाहिए क्योंकि सब एक ही धर्म पर पैदा होते हैं जिसे क़ुरआन में दीने फ़ितरत और गीता में स्वभाव नियत कर्म कहा गया है। हर बच्चा दीने फ़ितरत पर पैदा होता है। फिर माँ-बाप और माहौल के संस्कार उसे उसकी फ़ितरत (स्वभाव) से दूर कर देते हैं। आप बच्चे की फ़ितरत को देखना चाहें तो आप उसे ध्यान से देखें। हरेक बच्चा अपनी माँ की गोद में ख़ुश होता है। वह अपने होने पर ही ख़ुश और शाँत होता है। वह सिर्फ़ तभी रोता है, जब वह गीला हो या भूखा हो। जब वह तीन साल का हो जाता है, तब भी अपने साथ के बच्चों के साथ खेलता रहता है। उसे मिट्टी में खेलना अच्छा लगता है। इस उम्र तक उसे मिट्टी और सोने में अन्तर का पता नहीं होता। इस उम्र में उसे जाति की ऊँच नीच या छूत-छात का पता नहीं होता। किसी से उसका झगड़ा हो जाता है तो थोड़ी ही देर बाद वह उसी बच्चे के साथ खेलने लगता है। उसे नफ़रत का पता नहीं होता। आप बच्चे से कोई बात करें तो वह उस पर आसानी से यक़ीन कर लेता है। उसकी इमेजिनेशन पाॅवर बहुत ज़बर्दस्त होती है। उसका ब्रेन अल्फ़ा लेवल पर रहता है। उसकी मासूमियत अपने क्रिएटर की तस्बीह ज़ाहिर करती है।
फिर बच्चे को बाहर से काॅन्सेप्ट दिए जाते हैं। उसे अमीर, ग़रीब और मिडिल क्लास का लेबल दिया जाता है। उसे ऊँच-नीच और छूत-छात का ज्ञान दिया जाता है। उसके मासूम दिल में दोस्त और दुश्मन की पहचान नक़्श कर दी जाती है। उसे जायज़-नाजायज़ कामों और पुरानी परम्पराओं की लिस्ट दी जाती है। उसे पूजा और कर्मकांड सिखाया जाता है। उसे पूरा बिलीफ़ सिस्टम दिया जाता है। वह मासूम बच्चा उसके अन्दर ही कहीं दबकर खो सा जाता है। जो लोग मर चुके हैं, वे ज़िन्दगी को जैसे देखते थे, वह बच्चा भी उन्हीं के चश्मे से ज़िन्दगी को देखने लगता है। उसके दिल पर भूतों का राज क़ायम हो जाता है। मरे हुए लोग भूतकाल के लोग हैं। वे ख़ुद अब ज़िन्दा नहीं हैं लेकिन उनकी सोाच और उनकी परम्पराएं आज भी ज़िन्दा हैं। जिनमें से कुछ ऐसी हैं, जो इंसान को इंसान से जोड़ती नहीं हैं बल्कि तोड़ती हैं। जिनसे इन्सान अपने स्वभाव प्रेम, आनन्द और शाँति को ज़ाहिर नहीं कर पाता बल्कि उसके दिल में डर, ग़म और मायूसी का क़ब्ज़ा हो जाता है।
जो ख़याल, जज़्बा या रस्म दिल पर छा जाए और इन्सान को अपने हुक्म पर नचाने लगे, वह इन्सान के लिए ‘इलाह’ यानि ‘महबूब-माबूद’ का दर्जा इख़्तियार कर लेती है। हर इन्सान अपने दिल में देखे कि वह सुबह से शाम तक किस चीज़ के लिए भाग-दौड़ करता रहता है? उस चीज़ से वह किसे ख़ुश करना चाहता है? किसने उन कामों को उस पर लाज़िम ठहराया?
अक्सर आपको जवाब मिलेगा कि समाज ने इन्सान पर उन कामों को लाज़िम ठहराया, जिन्हें वह कर रहा है और वह रस्मों की पूर्ति के लिए सुबह से शाम तक पूरी ज़िन्दगी भाग-दौड़ करता रहता है और उसका मक़सद सिर्फ़ यह होता है कि वह अपने समाज में क़ाबिले-क़ुबूल (स्वीकार्य) बना रहे। इस कोशिश में वह अपने वुजूद और अपनी सारी नेमतों के सोर्स से, अपने क्रिएटर को भूल जाता है। उसकी सारी वफ़ादारियाँ अपने समाज के चैधरियों और पुरोहितों के लिए हो जाती हैं, जो समाज के नियम और रस्में तय करते हैं। बचपन से ही विचार और संस्कार के नज़र न आने वाले बन्धनों से मासूम मन को बाँध दिया जाता है। हरेक इन्सान अपने मन में ही बंधुआ और ग़ुलाम बन जाता है।
इन नियमों और रस्मों के ज़रिए ये चैधरी और पुरोहित समाज के अन्न और धन का बहाव अपनी तरफ़ कर लेते हैं। इसे ये धर्म कहते हैं। हर इलाक़े के चैधरी और पुरोहित अलग धर्म बताते हैं। इस तरह समाज में बहुत से धर्म हो जाते हैं। आम लोग इन्हें बाप दादाओं की परम्परा और धर्म मानकर चलते हैं और उनका कल्याण नहीं होता। उनका भला नहीं होता। कोई बात धर्म है या नहीं, इसका पता उसके नतीजों से चलता है। जिस बात से समाज के आम लोगों का भला न हो, वह धर्म नहीं हो सकती। हरेक बच्चे का ‘इलाह’ (इष्ट) और ‘धर्म’ तो पहले ही बदला हुआ है।
आप इसी नज़र से मुस्लिम को देखें कि सुबह से शाम तक वह किसे ख़ुश करने के लिए भाग-दौड़ कर रहा है? जब भी अल्लाह के हुक्म और समाज की रस्मों में से एक को चुनने का मौक़ा आता है तो वह अल्लाह के हुक्म को चुनता है या फिर समाज की रस्म को?
इस तरह आप देखेंगे कि ज़्यादातर लोगों ने अपने नफ़्स की ख़्वाहिश को ही अपना इलाह और माबूद बना रखा है। इसीलिए ज़्यादातर मुस्लिमों का भला नहीं हो रहा है।
जब हम होश और आगाही के साथ अपने जैसे लोगों को चारों तरफ़ डर, ग़म और मायूसी का शिकार देखते हैं। जब हम उन्हें दुख-दर्द पाते हुए देखते हैं तो यह हमारी ज़िम्मेदारी हो जाती है कि हम उन्हें सच्चे इलाह और दीने फ़ितरत की जानकारी दें। यह हमारी इन्सानियत का तक़ाज़ा होता है कि अगर हम उन बन्धनों से आज़ाद हैं और हम अपनी आत्मा में प्रेम, आनन्द और शाँति पा रहे हैं तो हम उन्हें भी अपने मन में फ़िज़ूल रस्मों के बन्धनों से आज़ाद होना सिखाएं। ग़ुलामों की ग़ुलामी और भूतराज से मन की मुक्ति के मनोवैज्ञानिक प्रयोग का नाम है दावते दीन। दरअसल यह तौबा यानि पलटना है। पलटना है अपनी फ़ितरत की तरफ़। यह समाज की बुरी रस्मों से ख़ुद को बरी कर लेना है। यह अपने वुजूद को हर तरह की गंदगी से पाक कर लेना है और सबसे बड़ी गन्दगी यह है कि बहुत सारी चीज़ों को अपनी तक़दीर का बनाना और बिगाड़ने वाला मान लिया जाए। पवित्र क़ुरआन ने इसे एक लफ़्ज़ ‘शिर्क’ का नाम दिया है।
शिर्क एक सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक रोग है। इसमें इन्सान भ्रम को सत्य मान लेता है और फिर दुख-दर्द पाता है। हदीस में आया है-‘ख़ैरूद्-दवाइल्-क़ुर्आन’ यानि क़ुरआन सबसे अच्छी दवा है।
क़ुरआन यह सत्य बताता है कि ‘उसने आसमानों और ज़मीन और की हर चीज़ को तुम्हारे लिए मुसख़्ख़र (वश में) कर दिया है।’ यह एक ऐसा सत्य है, जिसे हरेक खुली आँखों से देख सकता है कि सूरज, चाँद, हवा, पानी और हर चीज़ इस तरह अपना काम करती है कि इन्सान की ज़िन्दगी परवान चढ़ती है। जब इन्सान चीज़ों को वैसा ही मानता है, जैसी कि वे हैं और उनके लिए रब का शुक्रगुज़ार होता है तो ये चीज़ें उसे और ज़्यादा नफ़ा पहुँचाती हैं और उसे और ज़्यादा नेमतें और आसानियाँ मिलती हैं। इसके खि़लाफ़ जब वह सूरज, चाँद, हवा और पानी को आज़ाद मानकर उनसे डरने लगता है और उन्हें अपनी तक़दीर का बनाने बिगाड़ने वाला मानने लगता है तो इन्सान को कई तरह से नुक़्सान पहुँचने लगता है।
पहला नुक़्सान उसे ‘सेल्फ़ काॅन्सेप्ट’ में पहुँचता है। वह अपनी ही नज़र में अपने से कम दर्जे की चीज़ों का ग़ुलाम बन जाता है। हक़ीक़त में वह अपने रब के हुक्म से चीज़ों से खि़दमत लेने का हक़दार है लेकिन अब वह चीज़ों का खि़दमतगार बन जाता है।
दूसरा नुक़्सान उसे यह होता है कि उसे शक और वहम का रोग लग जाता है। जब भी उसका कोई काम बिगड़ता है तो वह उसकी वजह अपने नफ़्स में और अपने फ़ैसलों में न देखकर सितारों की चाल में देखने लगता है। उसे लगता है कि सितारे उसके खि़लाफ़ हैं, इसलिए उसके काम बिगड़ रहे हैं।
तीसरा नुक़्सान उसे रूपये पैसे का होता है कि ग्रहों की शाँति और सेटिंग के नाम पर पुरोहित उससे काफ़ी रूपये ज़िन्दगी भर लेता रहता है।
चैथा नुक़्सान उसे मन की शाँति का होता है। उसे हर तरफ़ से धड़का लगा रहता है कि कहीं यह नाराज़ न हो और कहीं वह नाराज़ न हो। इस तरह वह मनोरोगी बन जाता है।
पाँचवा और सबसे बड़ा नुक़्सान उसे यह होता है कि उसके यक़ीन के मुताबिक़ चीज़ें अमल करती हैं और उसे नुक़्सान पहुँचाने लगती हैं। यहाँ तक कि हवा और पानी के तूफ़ान उसे डुबोने लगते हैं क्योंकि वह उन्हें नफ़ा नुक़्सान पहुँचाने में आज़ाद मानने लगता है। अब उसकी नैया समुद्र में डूबने लगती है। बहुत लोग अपने ग़लत विश्वास (या लिमिटिंग बिलीफ़) की वजह से मर जाते हैं। हज़रत नूह अलैहिस्सलाम की क़ौम ग़लत विश्वास की वजह से डूब गई। सिर्फ़ हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के साथ थोड़े से लोग ही बचे। उस भयानक तूफ़ान में सिर्फ़ वे ही बचे थे, जिन लोगों ने अपना दीन अल्लाह के लिए ख़ालिस कर लिया था। वे सारी ताक़त अपने रब में मानते थे और हर चीज़ को उसी के हुक्म के अधीन मानते थे। उनके यक़ीन के मुताबिक़ उनकी ज़िन्दगी में हालात ज़ाहिर हुए और वे बच गए।
एक लड़की खड़ी हुई। उसने कहा-सर मेरा नाम बाज़िला है। पाँचवा पाॅइन्ट मुझ पर क्लियर नहीं हुआ है। मैं समझती हूँ कि यक़ीन के साथ जब तक अमल न हो तब तक हमारे बाहर के हालात सिर्फ़ यक़ीन और दुआ से चेन्ज नहीं हो सकते। आप क़ुरआने हकीम से कोई सुबूत दीजिए, जिससे साबित होता हो कि हमारा यक़ीन बाहर के हालात पर असर डालता है।
मैंने कहा कि बाज़िला मेरी सबसे छोटी बहन का नाम है। वह भी हर बात को पूरी तरह समझने की कोशिश करती है। मुझे उसकी यह आदत बहुत पसन्द है। पवित्र क़ुरआन में ऐसी बहुत सी आयतें हैं, जिनसे पता चलता है कि यक़ीन का असर इन्सान के बाहरी हालात को बदल देते हैं। आप सूरह यूनुस की आयत नम्बर 22 व 23 पर ध्यान दीजिए-
‘वह अल्लाह वही है जो तुम्हें ज़मीन और समुद्र में सैर कराता है, यहाँ तक कि जब तुम किश्ती में थे और माफ़िक़ हवाएं चलीं और सारे मुसाफ़िर ख़ुश हो गए तो अचानक एक तेज़ हवा चल गई और मौजों ने हर तरफ़ से घेरे में ले लिया और यह ख़याल पैदा हुआ कि चारों तरफ़ से घिर गए हैं तो दीन ख़ालिस के साथ अल्लाह से दुआ करने लगे कि अगर इस मुसीबत से नजात मिल गई तो हम यक़ीनन शुक्रगुज़ारों में हो जाएंगे। उसके बाद जब उसने नजात दे दी तो ज़मीन में नाहक़ ज़ुल्म करने लगे।’
आप देखिए कि जब किश्ती के मुसाफ़िर समुद्री तूफ़ान घिर गए और वे डूबने लगे तो उनके यक़ीन के अन्दर बदलाव आया और उस बदलाव का असर उनके हालात पर पड़ा। उन्होंने दीन ख़ालिस करके अल्लाह को पुकारा कि अगर इस मुसीबत से नजात मिल गई तो हम यक़ीनन शुक्रगुज़ारों में हो जाएंगे। अल्लाह ने उनकी पुकार का जवाब उन्हें मुसीबत से नजात के रूप में दिया।
आप इस बेहतरीन और सच्चे वाक़ये पर ग़ौर कीजिए कि मुसाफ़िरों ने समुद्री तूफ़ान से बचने के लिए क्या अमल किया?
अरब के व्यापारी समुद्री सफ़र करते रहते थे। समुद्री तूफ़ान में घिरने का तजुर्बा हरेक को अपनी ज़िन्दगी में हो चुका था। हर तरफ़ नज़र की हद तक फैले हुए पानी में जब किश्ती डूबने लगी और हरेक तदबीर और हरेक अमल के बाद वे डूबने लगे, तब उन्हें उस अमल ने बचाया जिसे ‘अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके पुकारना’ कहा है। पूरे क़ुरआन में बार बार इसी बात की ताकीद की गई है कि अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके पुकारो। यह अपने यक़ीन में बदलाव लाने का अमल है। यह वह बुनियादी अमल है, जो कि नजात के लिए सबसे पहले और सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। इमाम मुहम्मद बिन मुहम्मद रह. ने अपनी मस्नून दुआओं की किताब में आदाबे दुआ बयान करते हुए लिखा है कि इख़्लास और यक़ीन दुआ के रूक्न हैं। अगर ये रूक्न हैं तो दुआ, दुआ है और अगर इनमें से एक भी नहीं है तो दुआ नहीं है।
इख़्लास और यक़ीन दिल की अन्दरूनी नफ़्सियाती हालतें हैं। इन हालतों का इज़्हार इन्सान के सोचने, बोलने और करने पर पड़ता है। जब इन्सान किसी मुसीबत से नजात के लिए अपने जिस्म से कोई अमल कर सके तो ज़रूर करे लेकिन कई बार ऐसी हालत होती है कि इन्सान अपने बचाव के लिए जिस्म से कोई ज़ाहिरी अमल नहीं कर सकता। तब भी वह इख़्लास और यक़ीन के ज़रिए दुनिया में मुसीबत से अपना बचाव कर सकता है। अल्लाह के हुक्म से ऐसा होता है और हमेशा ऐसा ही होगा। यह क़ुदरत का क़ानून है। जब आप यक़ीन करते हैं कि आपके रब को आपको बचाने की पूरी क़ुदरत हासिल है तो फिर आपका रब आपको ज़रूर बचाएगा। आप तदबीर ज़रूर करें लेकिन जब आप सिरे से कोई तदबीर ही न कर सकें तब भी आप अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके पुकारें। आपके लिए मदद आएगी। आपको बचाया जाएगा। आपके यक़ीन यानि बिलीफ़ सिस्टम का आपके बाहरी हालात से ऐसे ही जोड़ है, जैसे कि आईने बाहर की चीज़ का जोड़ आईने में नज़र आने वाले रेफ़्लेक्शन से है। जब भी आप असल चीज़ में कोई बदलाव करेंगे तो वह बदलाव उसके रेफ़्लेक्शन में ज़रूर ज़ाहिर होगा। जो कुछ आपके नफ़्स में आपके अन्दर है, आपके हालात में बाहर वही झलक रहा है। जब भी आप अपने अन्दर बदलाव करते हैं तो आपके हालात में वह ज़रूर ज़ाहिर होता है।
बाज़िला ने फिर सवाल किया-ओ.के.। यह बात मैं समझ गई कि अन्दर का यक़ीन और बाहर के हालात एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। आपका शुक्रिया। ...लेकिन क्या हम इससे अपनी दावत और तब्लीग़ में कोई फ़ायदा उठा सकते हैं?
मैं बे-इख़्तियार मुस्कुराने लगा। मैंने कहा-मेरी बहन! आप हर तरफ़ मौजूद लोगों पर नज़र डालिए और देखिए कि वे सब किस बात की तलाश में हैं। आप पाएंगी कि वे किसी मुसीबत में घिरे हैं और दुख पा रहे हैं। वे उस मुसीबत से नजात पाने का तरीक़ा तलाश कर रहे हैं। अल्लाह उस तरीक़े की तालीम अपने क़ुरआन में दे चुका है। अल्लाह ने आपको ‘उम्मते वसत यानि उम्मते वासिता’ बनाया है और तमाम इन्सानों की तालीम के लिए निकाला है। आपका काम यही है कि मुसीबत से नजात का जो तरीक़ा अल्लाह आपको सिखा चुका है, आप उसे उन सब लोगों को सिखा दें, जो तलाश में भटक रहे हैं।
सबसे पहले आप अपने दिल में यह ख़ूब जमा लें कि इस बात की तब्लीग़ सबसे पहले होनी है। यह बात अपने अन्दर ख़ुद ही तब्लीग़ का सब्जेक्ट है। इसके बाद यह बात है कि आप इस बात से अपनी दावत और तब्लीग़ में क्या फ़ायदे उठा सकती हैं?
आप ख़ुद सोचें कि आपके इल्म में क़ुदरत का वह सबसे बड़ा क़ानून आ चुका है, जिससे हरेक दुखियारे का दुख दूर हो सकता है तो आप उससे क्या क्या फ़ायदे उठा सकती हैं?
आप ख़ुद सोचें कि जब आप लोगों के सामने मुसीबत से नजात का तरीक़ा रखेंगी और उनकी मुसीबतें दूर होंगी तो वे लोग आपके पास बार बार ख़ुद आएंगे और अपने साथ दूसरों को भी लाएंगे। इससे आपकी दावत और तब्लीग़ को कितना ज़्यादा फ़ायदा होगा और आपकी दावत और तब्लीग से मानव जाति का कितना ज़्यादा भला होगा?
याद रखें कि दावत और तब्लीग़ का मक़सद फ़लाह औ कल्याण है। आप अपनी दावत और तब्लीग़ से जितने ज़्यादा लोगों का जितना ज़्यादा भला कर पाएंगे, आपकी दावत और तब्लीग़ अल्लाह की नज़र में उतनी ज़्यादा अच्छी मानी जाएगी।
एक नौजवान औसाफ़ ने सवाल किया-मैं लोगों से बात शुरू करने में हिचकिचाता हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मैं नए मिलने वाले लोगों से दावती बात किस पाइंट से शुरू करूं?
मैंने कहा-जब आप नए लोगों से मिलते हैं तो वे आपको अपना नाम बताते हैं। उनके नाम में एक पूरा काॅन्सेप्ट मौजूद है जो कि ज़्यादातर लोगों का मालूम नहीं होता। हरेक आदमी अपने नाम को पसन्द करता है। डेल कारनेगी कहता है कि इन्सान को दुनिया में जो आवाज़ सबसे ज़्यादा पसन्द है, वह उसका नाम है। हरेक अपनी बातों में गहरी दिलचस्पी रखता है। आप नए मिलने वालों से उनके नाम से ही बात शुरू कर सकते हैं।
हमारे उस्ताद मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह तक़रीबन सभी लोगों से उनके नामों के बारे में ज़रूर बात करते थे। जब वह किसी से उसके नाम के बारे में बात करते थे तो वह उनकी बात को बहुत ध्यान से सुनता था। उन्हें अरबी, फ़ारसी, उर्दू, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी और इलाक़ाई ज़ुबानों और लहजों का गहरा इल्म था। इसलिए वह हरेक नाम के बारे में बहुत गहरी नाॅलिज रखते थे। आप भी लोगों के नामों के मीनिंग समझने की कोशिश करें। जिस नाम के मीनिंग का आपको पता न हो तो आप उस मिलने वाले से उसके नाम का मीनिंग पता कर सकते हैं। अगर वह जानता है तो वह आपको ज़रूर बताएगा और उसे बताते हुए ख़ुशी होगी।
आप उसके माँ बाप की तारीफ़ कर सकते हैं कि उन्होंने उसके लिए इतना अच्छा नाम रखा। ऐसा उसके साथ किसी ने न किया होगा। उसे आपकी बात सुनकर अच्छा लगेगा। यही वह पल होगा, जब उसका दिल आपके लिए खुल जाएगा।
आप उसे बता सकते हैं कि हरेक नाम अपने अन्दर एक पूरा काॅन्सेप्ट है। अच्छा नाम अच्छा काॅन्सेप्ट है। माँ बाप अपने बच्चे का जो नाम रखते हैं, उससे यह पता चलता है कि वे अपने बच्चे में कौन से गुण देखना चाहते हैं। बच्चे की यह ज़िम्मेदारी है कि वह अपने नाम की अच्छाई को ज़ाहिर करे। यह अच्छाई ज़ाहिर करना ही रब की तस्बीह है, जोकि हरेक इन्सान की नेचुरल ड्यूटी है।
आप देख रहे हैं कि आखि़री लाईन में बताया गया है कि रब की तस्बीह करना इन्सान की नेचुरल ड्यूटी है। अब आप इसे किस तरह और कितना बता सकते हैं, यह आपकी समझ पर है और इस बात पर है कि आप दोनों के पास कितना वक़्त है!
आप उसकी बातें ग़ौर से सुनें। आप ध्यान दें कि वह किस मसले का हल तलाश कर रहा है और अल्लाह ने उस मसले का हल पवित्र क़ुरआन में क्या बताया है? आप उसे वह हल बताएं। इस पाॅइंट से भी आप अपनी बात शुरू कर सकते हैं।

(...अफ़साना अभी जारी है)