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Sunday, May 17, 2020

यदि दयानंद जी ने अपना जन्म स्थान सही सही बताया था तो वह उनके किसी चेले को मिला क्यों नहीं?

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दयानंद जी ने अपना जन्म स्थान सही सही बताया था तो वह उनके किसी चेले को मिला क्यों नहीं?
आपको सारे आर्य समाजी भाई बहन सनातनी पंडितों और दूसरे धर्म के ज्ञानियों को अज्ञानी बताते हुए और उन पर हंसते हुए मिल जाएंगे।
लेकिन ख़ुद उनके ज्ञान का हाल यह है कि वे बता नहीं पाएंगे अगर आप उनसे यह पूछ लें कि जिस बस्ती में दयानंद जी पैदा हुए थे, वहाँ कोई आर्य समाज मंदिर है या नहीं?
क्योंकि दयानंद जी की मौत के बाद से पंडित लेखराम आदि उनके चेले उनका जन्म स्थान तलाशने में लगे हुए हैं लेकिन गूगल मैप और जीपीएस आने के बावुजूद वे आज तक अपने गुरू का जन्म स्थान नहीं खोज पाए।
दयानंद जी अपना सही जन्म स्थान और कुल गोत्र आदि छिपा कर चले गए। सही किया। जातिवादी भारतीय समाज में सम्मान पाने के लिए सभी समझदार लोग ऐसा करते हैं।
उनका दूसरा समझदारी भरा निर्णय उनके द्वारा अंधे व्यक्ति को गुरू बनाना था क्योंकि अंधा आदमी जाँच परख करने में अक्षम होता है।
अब आर्य समाजियों का पूरे दिन दूसरे धर्म वालों से प्रश्न करने का का काम है और ख़ुद इस प्रश्न का जवाब नहीं देते कि
यदि दयानंद जी ने अपना जन्म स्थान सही सही बताया था तो वह उनके किसी चेले को मिला क्यों नहीं?

Aapki facilitiy ke liye yh image bhi ready hai.
Ise bhi Indian Society me shanti ki niyyat se share karen.

Sunday, May 3, 2020

रोज़े का मक़सद तक़वा है और तक़वा वालों की विजय निश्चित है, अल्हम्दुलिल्लाह! -DR. ANWER JAMAL

Faiz-Asslamalaikum hazrat. Bhai gair muslim intellectual ki taraf se ques hai ki .....fast me khana chodna to theek hai lekin pani kyu chudwa diya jata hai. Vo PhD hen seculer mijaz ke. Plz jawab zrur djiyega.

DR. ANWER JAMAL- अरबी ज़ुबान (भाषा) का सौम या स्याम लफ़्ज़ ही दरअसल फ़ारसी में रोज़ा है। सौम या स्याम का संस्कृत/हिन्दी में मतलब होगा 'संयम'। इस तरह अरबी़ जबान का सौम या स्याम ही हिन्दी/संस्कृत में संयम है। इस तरह रोज़े का मतलब हुआ सौम या स्याम यानी 'संयम।' यानी रोज़ा 'संयम' और 'सब्र' सिखाता है।

रोज़े का मक़सद यह है कि इंसान बुराई से बचने की शक्ति अर्जित कर ले और वह ऐसा तब कर पाएगा जब वह अपने मन और शरीर पर क़ाबू पा ले।
आम इंसान भूख, प्यास, नींद और और सैक्स की इच्छाओं के क़ाबू में होते हैं। जब उन्हें भूख, प्यास, नींद और और सैक्स में जिस काम की ज़रूरत महसूस होती है और मन और शरीर जिस काम के लिए उत्तेजित करते हैं, इंसान उसे उनके क़ाबू में होकर अपना विवेक इस्तेमाल किए बिना कर डालता है।
ऐसे ही लालच, डर, नफ़रत, ग़म, ग़ुस्सा और शक जैसी बहुत सी नकारात्मक भावनाएं हैं, जिनके क़ाबू में एक इंसान हमेशा रहता है और वह पूरी ज़िन्दगी अपनी नफ़्सियाती ख़्वाहिशात (मन की इच्छाओं और आवेगों) को 'इलाह और हाकिम' बनाए रखता है जबकि हक़ीक़त में ये 'इलाह और हाकिम' नहीं हैं, इंसान के दास हैं।
सौम अर्थात रोज़े का मकसद यही है कि इंसान हाकिम है तो अपने दासों का दास बनकर न रहे बल्कि उनका हाकिम बने और अपने दासों से अपनी सेवा ले और इसके लिए वह सबसे पहले अपने मन और शरीर में उठने वाली ख़्वाहिशात पर क़ाबू करे। अपनी भूख, प्यास, नींद, सैक्स, लालच, डर, नफ़रत, गुस्से, शक और वसवसों पर क़ाबू पाए।
जब एक इंसान रोज़ा रखता है तो उसके शरीर में भूख, प्यास, नींद और सैक्स की क़ुदरती डिमांड पैदा होती है लेकिन वह उन्हें रोक देता है और शरीर एक दास की तरह उसके फ़ैसले के सामने समर्पण कर देता है कि ठीक है, आपको यह नहीं करना है तो मैं यह नहीं करूंगा।
ऐसे ही उसके मन में नाजायज़ लालच, डर, नफ़रत, गुस्से, शक और वसवसों की तरंगें उठती हैं लेकिन वह अपनी ज्ञानदृष्टि से देखता है कि यह ग़लत है और मैं यह न करूंगा तो वह नहीं करता और वह अपनी नकारात्मक भावनाओं से ऊपर उठकर उन्हें क़ाबू करना सीख लेता है।
अधिकतर गुनाह और जुर्म ज्ञान की कमी और नकारात्मक भावना की अधिकता के कारण होते हैं और पूरा शहर वास्तव में मनोरोगियों का जमावड़ा मात्र है, जिसमें कोई एक दूसरे से सुरक्षित नहीं है कि न जाने दूसरा आदमी किसी औरत, बच्ची या सेठ के साथ कब क्या कर दे? कोई बाहुबली किसी ग़रीब के साथ क्या कर दे?
पूरे समाज के मनोवैज्ञानिक इलाज के लिए जितने मनोचिकित्सक चाहिएं, उतने न पहले थे और न आज ही किसी देश में हैं।
उनके मनोरोगों के इलाज के लिए अल्लाह ने रमज़ान के महीने में क़ुरआन उतारा और सबके लिए रमज़ान के रोज़े शिफ़ा (आरोग्य) के लिए रख दिए। रोज़े से शारीरिक रोग भी दूर होते हैं। जिनके दूर होने के बारे में मैं इस छोटे से कमेंट में नहीं लिख सकता। यह पूरी एक बुक का सब्जेक्ट है।
मैं यहाँ सिर्फ़ यह बताऊँगा कि रोज़े का मक़सद यह है कि इंसान अपने मन, शरीर और कर्म से बुराई से बचने की आदत डाल ले। एक काम को बार बार दोहराया जाए तो उसकी आदत पड़ जाती है। आदत सब्कान्शियस माईंड का पैटर्न है। आदत पड़ने के बाद वह काम आसान हो जाता है। एक महीने तक जागरूकता के साथ रोज़े रखने से तक़वा इंसान की आदत बन जाती है। बुराई से बचने को तक़्वा और संयम कहते हैं। व्यक्ति, परिवार और समाज में अच्छाई बढ़ाने के लिए तक़्वा और संयम ज़रूरी है।
सैनिकों को भी कठिन हालात के लिए तैयार करने के लिए भूख, प्यास, नींद और शारीरिक कष्ट बर्दाश्त करने की प्रैक्टिस कराई जाती है। हरेक नागरिक में भी ये गुण होना ज़रूरी है क्योंकि हर नागरिक भी अपनी जगह एक सिपाही है और उसे अपने समाज के बुरे लोगों को चुनौती देनी पड़ती है। जिसके बाद उसे कठिन हालात पेश आते हैं।  वह उनसे घबराकर बदमाशों के सामने समर्पण न करे बल्कि उन पर अपने मनोबल से विजय पा ले, रोज़े से यह बल मिलता है।
तक़्वा और विजय आपस में जुड़े हुए हैं। तक़्वा होगा तो विजय ज़रूर होगी।
दूसरों पर विजय पाने से पहले इंसान को ख़ुद पर विजय पानी होगी। इंसान पानी से पैदा हुआ है। उसे हर थोड़ी देर में पानी की ज़रूरत पड़ती है। इसलिए उसे अपनी ज़रूरत पर विजय पानी है तो उसे पानी की ज़रूरत पर भी विजय पानी होगी।
'अतः धैर्य से काम लो। निस्संदेह अन्तिम परिणाम तक़्वा (संयम रखने) वालों के पक्ष में है।'
-पवित्र क़ुरआन 11:49
तक़्वा एक ऐसा गुण है, जो बहुत से ऐसे गुणों को ख़ुद डेवलप करता है। जिनसे इंसान का भला होता है। यही इंसान का मक़सद है। जब इंसान रब के हुक्म पर चलता है तो उसका भला होता है। जिससे इंसान को ख़ुशी मिलती है। इंसान को भलाई और ख़ुशी मिलती देखकर उससे रब ख़ुश होता है।
रोज़े में पानी न पीने की वजह समझनी है तो रोज़े के मक़सद और उसके असर को समझना ज़रूरी है, जो व्यक्ति, परिवार और समाज पर पड़ते हैं।
शुक्रिया।