पवित्र क़ुरआन में अल्लाह का नाम अग्नि, आग (यानि अरबी में 'नार' ) नहीं है। किसी भी ईश्वरीय ग्रंथ में रब का नाम आग नहीं है। स्वामी दयानन्द जी मानते हैं कि वेदों में परमेश्वर का नाम अग्नि है।
वेदों में अग्नि का अर्थ आग और अरणी का अर्थ आग जलाने वाली लकड़ी है। जिससे वेद मंत्र का अर्थ बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। स्वामी दयानंद जी ने वेदों का अर्थ बदलने के लिए इन नामों के साथ खिलवाड़ किया है।
इसी तरह 'पुत्र' नाम भी परमेश्वर का सिद्ध किया जा सकता है कि 'पु' नाम नरक का और 'त्र' का अर्थ तारने वाला अर्थात् नरक से तारने वाला। नरक से तारने वाला केवल परमेश्वर है। अत: 'पुत्र' नाम परमेश्वर का है लेकिन क्या वास्तव में पुत्र नाम परमेश्वर का है यह विचारणीय है। हर धर्म के लोग जानते हैं कि पुत्र नाम परमेश्वर का नहीं है।
ऐसे ही हर धर्म के लोग जानते हैं कि भाई, दादा, परदादा, अग्नि और सूर्य नाम परमेश्वर के नहीं हैं। हमारे लिए पवित्र क़ुरआन कसौटी है। पवित्र क़ुरआन के अनुसार भाई, दादा, परदादा, अग्नि और सूर्य नाम परमेश्वर के नहीं हैं।
अगर दयानंद जी की अत्याचारपूर्ण कुटिल व्याख्या के अनुसार भाई, दादा, परदादा, आग, सूरज, राहु, केतु और देवी को परमेश्वर के नाम न जान माना जाए तो वेदों में परमेश्वर का नाम तक स्पष्ट नहीं है। जोकि परमेश्वर की वाणी में होना आवश्यक है। उसी नाम के साथ भक्त उससे हम्द के साथ सहायता की प्रार्थना करते हैं।
वेदों का ईश्वरीय होना उसके अंदर के प्रमाण से सिद्ध नहीं है और न ही वेदों में ऐसा कोई दावा मौजूद है।
मानने वाले हिंदू तो विष्णु पुराण, भागवत और गीता को भी परमेश्वर की वाणी मानते हैं लेकिन हिंदुओं के मानने से वेदों को ईश्वरीय मानने वाले मुस्लिम मुबल्लिग़ भी उन्हें ईश्वरीय नहीं मानते और मानना भी नहीं चाहिए, जब तक कि ग्रंथ का कंटेंट ख़ुद सिद्ध न करे कि वह ईश्वरीय है।
ज़ुबुरिल अव्वलीन के शाब्दिक अर्थ के दायरे में उपनिषद और पुराण आदि वे सब ग्रंथ आते हैं, जिन्हें पहले के लोग ईश्वरीय मानते हैं, न कि सिर्फ़ वेद।
वेदों से ज़्यादा क्लियर तौहीद उपनिषदों में है। हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के वाक़ये का बयान वेदों से ज़्यादा साफ़ पुराणों में है। सो वे भी ज़ुबुरिल अव्वलीन में हैं।
कोई भी शिलापट्ट ऐसा नहीं मिला जो अशोक के काल तक का हो। इसलिए संस्कृत भाषा दो-ढाई हज़ार वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। इसलिए हम यक़ीन करते हैं कि संस्कृत भाषा हज़रत नूह के बाद वुजूद में आई है और हज़रत नूह पर उतरे सहीफ़े वेद नहीं हो सकते। हाँ, वेद में हज़रत नूह और दूसरे नबियों की तालीम की यादगार हो सकती है। जिसे पंडितों ने किसी से सुनकर कविताबद्ध कर दिया हो, जैसे कि उन्होंने उपनिषद रचे।
वेद और उपनिषद काव्य हैं। इनकी रचना अनगिनत कवियों ने की है। जिस कवि ने जिस विषय पर जो कविता लिखी है, उस कवि और उस विषय का नाम वेदों में सूक्त से पहले लिखा रहता है।
जब वेद के किसी मंत्र को समझना हो तो केवल उस एक मंत्र को ही न लिया जाए बल्कि उसे उस सूक्त के सारे मंत्रो के साथ जोड़कर देखा जाए और उस मंत्र में जिस विषय की चर्चा है, उस विषय को वेदों के दूसरे सुक्तों के साथ भी जोड़कर देखा जाए, जिन सूक्तों में उस विषय की चर्चा है। तब वेद का अर्थ स्पष्ट समझ में आता है। वेद का कोई एक मंत्र या मंत्र का एक टुकड़ा ले लेने से वेद का अर्थ स्पष्ट नहीं होता और एकेश्वरवाद का प्रमाण देते समय दयानंदी यकारभाष् यही कुटिलता पूर्ण चतुराई करते हैं कि बस वेद का एक शब्द 'अकायम्' लिख देंगे और बाक़ी व्याख्या मनमाने तौर से खुद करते हैं।
यह ठीक तरीक़ा नहीं है।
जब वेद का शाब्दिक अनुवाद स्पष्ट अर्थ दे रहा हो और वह परंपरा से भी पुष्ट हो तो वहाँ अलंकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अरणी मंथन से आग जलाना और फिर आग को दूत बनाना और उसमें खाने पीने की चीज़े जलाकर उन चीजों को देवताओं तक पहुंचाने की प्रार्थना करने वाले मंत्रों का शाब्दिक अनुवाद स्पष्ट अर्थ देता है और यह वैदिक लोगों की परंपरा भी है और स्वयं स्वामी दयानन्द जी ने भी यह माना है कि हवन में डाली गई हवि देवताओं को पहुंचती है तो अग्नि परमेश्वर का नाम नहीं, अरणी मंथन से जलने वाली आग सिद्ध होती है।