आज मैंने फ़ेसबुक पर Abu Shariq भाई की पोस्ट पढ़कर उस पर अपना कमेंट दर्ज किया। मैं उनकी पोस्ट और अपना कमेंट दोनों को यहां दर्ज कर रहा हूँ:
पोस्ट
जब भी क़ुरआन को सिर्फ हिदायत हासिल करके अमल करने के लिए पढ़ा मुझे कभी मायूसी नहीं हुई । क़ुरआन थोड़ा पढ़िये, रोज़ पढ़िये और उस को दिल और दिमाग़ मे उतार कर अमल कीजिए तो महसूस होगा कि ख़ुदा की ग़ुलामी मे ही असल आज़ादी पोशीदा है। क़ुरआन की हिदायत के अलावा दूसरे मज़हबी रीति रिवाज में ज़्यादातर ख़ुराफ़ात और अंधविश्वास है ।
कमेंट
आपकी बात सच है।
दूसरे मज़हब भी शुरू में सच और सरल थे क्योंकि रब ने सब क़ौमों में अपना संदेश अवतरित किया है। इसीलिए सब क़ौमों में कुछ नियम एक मिलते हैं।
फिर सब धर्मों में अत्याचारी राजा, ख़लीफ़ा और उनके दरबारी पंडित आलिम हुए।
उन्होंने धर्म में फेर बदल किए।
दूसरे धर्मों में ज़्यादा हुए और इस्लाम में कम हो पाए क्योंकि
ख़लीफ़ा, बादशाह और उनके ख़ुशामदी आलिम क़ुरआन को नहीं बदल पाए।
फिर भी उन्होंने नक़ली हदीसें और फ़र्ज़ी मसले गढ़े और मुस्लिमों को उन मसलों के आधार पर बांटा।
अब सब मज़हबों के पंडित और आलिम जो पहले मुग़ल, अंग्रेज़ और कांग्रेस के साथ थे, वे अपनी ख़ैर के लिए संघ के साथ हैं।
दरबारी आलिमों का हित पूंजीपतियों के साथ होता है और वे जनता को अपने हित में गधे और बैल की तरह जोते रखते हैं।
पवित्र क़ुरआन इंसान को गधे और बैल के जैसी इस ग़ुलामी से निकालता है।
वह बताता है कि
अल्लाह ने आदम में अपनी रूह में से फूंक कर ज़िंदगी दी थी। आदम के बेटे बेटियों में वही ख़ुदाई रूह मौजूद है
जिसे रूह/ख़ुदी/आत्मा कहते हैं।
यह रब का हुक्म (अम्रे इलाही) है।
इस कायनात का हर ज़र्रा रब के हुक्म के अधीन है।
रब के हुक्म से हर चीज़ का वुजूद है।
जब इंसान अपने अंदर रब का हुक्म मौजूद पाता है और ख़ुद को सरापा रब का हुक्म पाता है और फिर अगले मरहले में वह इससे अपनी पसंद के काम लेने के तरीक़े सीखता है जो कि रब ने उन आयतों में सिखाए हैं जिनमें 'अम्रे रब' का ज़िक्र है तो फिर इंसान हर चीज़ की ग़ुलामी से आज़ाद हो जाता है।
मैंने गीता के उपदेश में भी इस आत्मज्ञान को देखा है और इस सहज योग को लुप्त कर दिया गया है ताकि जनता गधे और बैल की योनि में जीती रहे।
इस आज़ादी का पाठ न मंदिरों में बचा है और न मस्जिदों में।
दोनों जगह सिर्फ़ रस्में हैं।
मस्जिद से काबा तक, आज सिर्फ़ रस्में हैं। मान्यताप्राप्त शाही आलिमों ने इस्लाम की रूह निकालकर दीनी मक़ामात को महज़ रस्म अदायगी की जगह बना दिया है।
ख़ुशी की बात यह है कि
पवित्र क़ुरआन पूरी तरह सुरक्षित है और इसे समझकर पढ़ने से इंसान मानसिक, आर्थिक, सामाजिक आज़ादी हासिल कर सकता है।
अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन के रूप में पूर्ण आज़ादी की होम डिलीवरी कर दी है।
इस आज़ादी के बाद धरती स्वर्ग लगेगी और मरकर भी आत्मा स्वर्ग देखेगी। जैसी आत्मा होगी, उसकी गति और प्रगति वैसी होती है।
पोस्ट
जब भी क़ुरआन को सिर्फ हिदायत हासिल करके अमल करने के लिए पढ़ा मुझे कभी मायूसी नहीं हुई । क़ुरआन थोड़ा पढ़िये, रोज़ पढ़िये और उस को दिल और दिमाग़ मे उतार कर अमल कीजिए तो महसूस होगा कि ख़ुदा की ग़ुलामी मे ही असल आज़ादी पोशीदा है। क़ुरआन की हिदायत के अलावा दूसरे मज़हबी रीति रिवाज में ज़्यादातर ख़ुराफ़ात और अंधविश्वास है ।
कमेंट
आपकी बात सच है।
दूसरे मज़हब भी शुरू में सच और सरल थे क्योंकि रब ने सब क़ौमों में अपना संदेश अवतरित किया है। इसीलिए सब क़ौमों में कुछ नियम एक मिलते हैं।
फिर सब धर्मों में अत्याचारी राजा, ख़लीफ़ा और उनके दरबारी पंडित आलिम हुए।
उन्होंने धर्म में फेर बदल किए।
दूसरे धर्मों में ज़्यादा हुए और इस्लाम में कम हो पाए क्योंकि
ख़लीफ़ा, बादशाह और उनके ख़ुशामदी आलिम क़ुरआन को नहीं बदल पाए।
फिर भी उन्होंने नक़ली हदीसें और फ़र्ज़ी मसले गढ़े और मुस्लिमों को उन मसलों के आधार पर बांटा।
अब सब मज़हबों के पंडित और आलिम जो पहले मुग़ल, अंग्रेज़ और कांग्रेस के साथ थे, वे अपनी ख़ैर के लिए संघ के साथ हैं।
दरबारी आलिमों का हित पूंजीपतियों के साथ होता है और वे जनता को अपने हित में गधे और बैल की तरह जोते रखते हैं।
पवित्र क़ुरआन इंसान को गधे और बैल के जैसी इस ग़ुलामी से निकालता है।
वह बताता है कि
अल्लाह ने आदम में अपनी रूह में से फूंक कर ज़िंदगी दी थी। आदम के बेटे बेटियों में वही ख़ुदाई रूह मौजूद है
जिसे रूह/ख़ुदी/आत्मा कहते हैं।
यह रब का हुक्म (अम्रे इलाही) है।
इस कायनात का हर ज़र्रा रब के हुक्म के अधीन है।
रब के हुक्म से हर चीज़ का वुजूद है।
जब इंसान अपने अंदर रब का हुक्म मौजूद पाता है और ख़ुद को सरापा रब का हुक्म पाता है और फिर अगले मरहले में वह इससे अपनी पसंद के काम लेने के तरीक़े सीखता है जो कि रब ने उन आयतों में सिखाए हैं जिनमें 'अम्रे रब' का ज़िक्र है तो फिर इंसान हर चीज़ की ग़ुलामी से आज़ाद हो जाता है।
मैंने गीता के उपदेश में भी इस आत्मज्ञान को देखा है और इस सहज योग को लुप्त कर दिया गया है ताकि जनता गधे और बैल की योनि में जीती रहे।
इस आज़ादी का पाठ न मंदिरों में बचा है और न मस्जिदों में।
दोनों जगह सिर्फ़ रस्में हैं।
मस्जिद से काबा तक, आज सिर्फ़ रस्में हैं। मान्यताप्राप्त शाही आलिमों ने इस्लाम की रूह निकालकर दीनी मक़ामात को महज़ रस्म अदायगी की जगह बना दिया है।
ख़ुशी की बात यह है कि
पवित्र क़ुरआन पूरी तरह सुरक्षित है और इसे समझकर पढ़ने से इंसान मानसिक, आर्थिक, सामाजिक आज़ादी हासिल कर सकता है।
अल्लाह ने पवित्र क़ुरआन के रूप में पूर्ण आज़ादी की होम डिलीवरी कर दी है।
इस आज़ादी के बाद धरती स्वर्ग लगेगी और मरकर भी आत्मा स्वर्ग देखेगी। जैसी आत्मा होगी, उसकी गति और प्रगति वैसी होती है।
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