हरेक नास्तिक जब मुझे ईश्वर और धर्म को छोड़ने की सलाह देता है तो मैं उससे एक ऐसी बात कहता हूँ, जिस पर वह चुप हो जाता है। साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा के नास्तिक भी चुप रह जाते हैं। यह दलील उन्होंने पहले कभी सुनी ही नहीं होती।
सच्चा वाक़या
फ़ेसबुक पर नीर गुलाटी एक समाजवादी विचारधारा के नास्तिक हैं। उन्होंने हमारी एक पोस्ट पर जो कमेंट दिया, आप उस पर हमारा जवाब पढ़िए:
नीर गुलाटी: पोस्ट अच्छी है. यदि अल्लाह का हवाला न भी देते तो भी अच्छी ही रहती. मेरी आज की पोस्ट पढ़िए यही प्रश्न उठाया है. की साहित्य और धरम की स्थापित परम्पराओं को तोड़े बगैर सामाजिक चिंतन विज्ञानं नहीं हो सकता.
जवाब: Neer Gulati जी, पोस्ट की सराहना के लिए शुक्रिया।
आपकी दावत पर मैं ने आपकी पोस्ट पढ़ी। उसके अन्त में आपने लिखा है कि 'यदि भारतीय दर्शन को और मार्क्सवाद को भी वैज्ञानिक होना है तो उसे सहित्य और धर्म द्वारा स्थापित परम्पराओं से बाहर आना ही होगा'
मैं पूर्ण आदर के साथ यह कहना चाहूंगा कि आप स्वयं धर्म द्वारा स्थापित परम्परा से बाहर नहीं आ पाए हैं तो आपकी सलाह पर दूसरा क्यों बाहर आ जाए?
प्रमाण: आप आज भी बाप बेटी और बहन भाई के 'रिश्तों की पवित्रता' की परम्परा का पालन करते होंगे जो कि धर्म ने निर्धारित की है।
यह पवित्रता का भाव हमें ईश्वर अल्लाह देता है, जो हमें इंसान बनाती है। जो इस परम्परा से बाहर निकल गया, वह फिर पशु है।
इसलिए ईश्वर अल्लाह का नाम लेना और उसका शुक्र करना ज़रूरी है।
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एक दूसरे नास्तिक विचारक को हमने इन अल्फ़ाज़ में यह बात कही:
मेरा आपकी विचारधारा पर यह सवाल है कि
क्या नास्तिकता माँ बेटे और भाई बहन के रिश्तों की पवित्रता सिखा सकती है,
जो हर इंसान की अनमोल पूँजी है?
यह पूँजी सिर्फ़ दीन धर्म देता है,
जिसे नास्तिक भी लेता है और उसे निभाता है.
रिश्तों की पवित्रता निभाने वाले नास्तिक हक़ीक़त में नास्तिक नहीं केवल पाखंडी हैं.
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रिश्तों की पवित्रता की दलील के सामने हरेक नास्तिक सिर झुका कर चुप हो जाता है।
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