कह दो, "हर एक अपने ढब पर काम कर रहा है, तो अब तुम्हारा रब ही भली-भाँति जानता है कि कौन अधिक सीधे मार्ग पर है।"
पवित्र क़ुरआन 17:84
सोसायटी सराहना (स्तुति) और मज़म्मत (निंदा) के ज़रिए लोगों के नज़रिए को कन्ट्रोल करती है।
मेरे साथ हिन्दु, मुस्लिम, आर्य समाजी और नास्तिक लोग इंटरनेट पर लिखित रूप में बद्तमीज़ी कर चुके हैं। यहां तक कि कुछ दावती साथी भी लेकिन मैं उनकी निंदा, स्तुति और मान्यता की परवाह किए बिना वही कहता रहा, जिसे मैंने अपनी तहक़ीक़ में और प्रैक्टिकल लाईफ़ में हक़ और फ़लाहबख़्श पाया।
इस्लाम के मुबल्लिग़ दाई के लिए सबसे ज़रूरी गुण यह है कि
'उसकी नज़र में सराहना (स्तुति) और मज़म्मत (निंदा) बराबर हो जाए।'
इसी के बाद वह अपने साथियों के और अपनी सोसायटी के दबाव से आज़ाद होकर उस बात का प्रचार कर सकता है, जिसे वह दिल से सच मानता है।
मुझे यह तालीम इस्लामी शरीअत के पाबंद सूफियों से पहुंची है। मैंने इसकी प्रैक्टिस की तो मुझे इससे फ़ायदा हुआ। मुझे यह पता चला कि हमारे साथी और हमारे समाज के लोग Peer Pressure से लोगों को ग़ुलाम बनाए रखते हैं।
आप उनकी पसंद की बात करते हैं तो वे आपकी तारीफ़ करते हैं। इससे आप उनकी पसंद की बातें और ज़्यादा करते और आप उन्हें वे बातें नहीं बताते, जो उन्हें नापसंद हैं।
जब आप उनकी पसंद के ख़िलाफ़ बोलते हैं तो वे आपकी निंदा करते हैं, आपको बहका हुआ और पागल कहने लगते हैं। वे आपकी मज़ाक़ उड़ाते हैं। वे समाज में आपकी छवि बिगाड़ते हैं और आपकी इज़्ज़त पर हमले करते हैं ताकि आप डर जाएं और अपनी बात कहना बंद कर दें।
जो लोग अपने साथियों से और अपने समाज में अपनी सराहना चाहते हैं और उनके बीच अपनी मान्यता बनाए रखना चाहते हैं, वे लोगों के बुरे बर्ताव से डर कर ऐसी बातें नहीं कहते, जिन्हें वे अपनी आत्मा में सच मानते हैं। नतीजा यह होता है कि
वे समाज में प्रचलित नज़रियों और रस्मों के ग़ुलाम बदस्तूर बने रहते हैं और इसी हाल में वे मर जाते हैं।
आप ज़हनी (मानसिक) गुलामी से तभी मुक्त हो सकते हैं जबकि आपकी नज़र में सराहना (स्तुति) और मज़म्मत (निंदा) बराबर हो जाए।
जो नौजवान लड़के नए नए बैनर तले दावती काम कर रहे हैं, वे दूसरों को दिल खोलकर अपने मैसेज पर ग़ौर करने और साथ मिलकर काम करने की दावत देते हैं लेकिन दूसरे मुस्लिमों के बारे में ख़ुद उनकी अपनी राय यही होती है कि हम बढ़िया तरीक़े पर हैं। अल्लाह हमें ईनाम देगा और बाक़ी मुस्लिम, जो दावते दीन का काम नहीं करते, अल्लाह इन्हें मार देगा या सख़्त अज़ाब देगा। ऐसे लोगों को सच्चे सूफियों की दावती तरबियती हिकमत और उनके अच्छे अख़्लाक़ को ज़रूर देखना चाहिए।
आज नई नस्ल के लिए सच्चा सूफ़ी देखना इतना मुश्किल है, जितना उनके बिना मिलावट का असली दूध पीना। जिन लोगों ने सच्चे सूफ़ी की कल्याणकारी सोहबत नहीं पाई, वे तसव्वुफ़ का मतलब आम तौर से क़ब्र परस्ती, क़व्वाली और तावीज़ गंडे करना समझते हैं। और वे तसव्वुफ़ के नाम से ही बिदकते हैं।
ऐसे लोग, ग़म, डर, लालच और शक से आज़ाद नहीं हो पाते। वे ज़िन्दगी भर नहीं जान पाते कि
उनके साथी, उनके पेशवा और ख़ुद उनका अपना नफ़्स उनका 'इलाह' बना हुआ है और वे उसके बंदे और ग़ुलाम बने हुए हैं।
मुझे यह तालीम सूफियों से पहुंची है कि 'ला इलाहा इल्-लल्लाह' के ज़िक्र से इन बातिल माबूदों की नफ़ी (इन्कार) भी मतलूब है, जो हमारे साथियों और हमारे समाज के पेशवाओं के रूप में हमें घेरे रहते हैं और वे हमें सच कहने से रोकते हैं।
हज़रत अली रज़ियल्लाहु तआला अन्हु की हिकमत और उनके रूहानी रहस्यों को हम तक पहुंचाने में सूफियों का बड़ा और बुनियादी रोल है। सूफ़ी आलिमों ने अपने दिल में आने वाले वसवसों और जज़्बों को बहुत बारीकी से पहचानने में अनोखी महारत हासिल की है।
इल्म रखने वाले लोग यह बात जानते हैं कि हर फ़न (आर्ट) की तरह तसव्वुफ़ में भी नाक़िस और कम फ़हम के लोग शामिल हुए, उनमें से जिनकी की इस्लाह हो गई, वे कामिल हो गए और कुछ रास्ते में ही रह गए।
इनमें से कुछ लोगों का मक़सद रब पाने से ज़्यादा रोटी और इज़्ज़त पाना था। कुछ दूसरे लोगों की चाहतें कुछ और थीं। वे मुज्तहिद इमाम सूफियों से अलग रास्ते पर चल पड़े।
तसव्वुफ़ एक फ़न है, जिसकी प्रैक्टिस इस्लामी शरीअत के साथ की जा सकती है।
इस्लामी अक़ीदों और मान्यताओं के प्रचार में भी तसव्वुफ़ से मदद मिलती है।
एक बड़ी तादाद ऐसी है, जो ख़ुद को इमाम अबू हनीफा र., शाह वलीउल्लाह र., मौलाना थानवी र., आला हज़रत र., और हुसैन अहमद मदनी र. जैसे सूफ़ी आलिमों का फ़ोलोवर ज़ाहिर करते और फिर भी वे अपने मस्लक से अलग राय रखने वालों की मज़ाक उड़ाते हैं और उनसे बद-अख़्लाक़ी से पेश आते हैं। वे यह नहीं देख पाते कि ऐसा करके उनकी निस्बत इन बुज़र्गों से तो क्या क़ायम होगी, नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से भी बाक़ी बचेगी या नहीं?
حضور نبی اکرم صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے بزرگوں کی عزت و تکریم کی تلقین فرمائی اور بزرگوں کا یہ حق قرار دیا کہ کم عمر اپنے سے بڑی عمر کے لوگوں کا احترام کریں اور ان کے مرتبے کا خیال رکھیں۔ آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے فرمایا :
ليس منا من لم يرحم صغيرنا ويؤقر کبيرنا.
’’وہ ہم میں سے نہیں جو ہمارے چھوٹوں پر رحم نہ کرے اور ہمارے بڑوں کی عزت نہ کرے۔‘‘
1. ترمذي، السنن، کتاب البر والصلة، باب ما جاء في رحمة الصبيان، 4 : 321، 322، رقم : 1919، 1921 2. ابويعلي، المسند، 7 : 238، رقم : 4242 3. ربيع، المسند، 1 : 231، رقم : 582
Peer Pressure का बेहतरीन इलाज
नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का तरीक़ा पीयर प्रेशर का बेहतरीन इलाज है। सीरते नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का एक बहुत मशहूर वाक़िआ है कि जब हज़रत मुहम्मद का कल्याणकारी सन्देश तेज़ी से फैलने लगा तो उनके विरोधी पुरोहित और लोगों को अपना ग़ुलाम बनाने वाले सरदार दमन और हिंसा करने लगे। पैग़म्बर मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तब भी अपने कल्याणकारी काम करते रहे। उनके विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और औरत, दौलत और बादशाही का का लालच देते हुए डराया कि या तो वे हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने दीन के प्रचार से रोकें या फिर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को संरक्षण देना बंद कर दें वर्ना सबको बुरा अंजाम भुगतना होगा। हज़रत अबू तालिब ने नबी मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को अपने हालात समझाने की कोशिश की लेकिन नबी मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि
“अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से खुद को रोक नहीं सकता. अल्लाह इस काम को पूरा करवायेगा या मैं खुद इस पर निसार (क़ुर्बान) हो जाऊँगा.”
नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के ऐसे बहुत से वाक़िआत सीरत की किताबों में भरे हुए हैं। इन सबको बार बार पढ़ने से आपको वह हिदायत और हिम्मत मिलती है, जो आपको समाज के झूठे ख़ुदाओं और बातिल माबूदों से मुक्त करती है।
यह लेख मैंने मुस्लिमों को peer pressure के बारे में बताने के लिए लिखा है लेकिन इससे दूसरे धर्म के लोग भी फ़ायदा उठा सकते हैं। वे भी देख सकते हैं कि उनके संप्रदाय के पुरोहित और सामाजिक संगठनों के मुखिया कैसे उनकी सोच के पहरेदार और ठेकेदार बने हुए हैं!
आप अपना कल्याण चाहते हैं तो उनकी निंदा, स्तुति और मान्यता की परवाह न करें। आप उनके दबाव में न आएं। आप लालच और डर से निकलें।
आप वही बात मानें, जो सच हो और आपके लिए इस ज़िन्दगी में और परलोक में कल्याणकारी हो।
आप सबसे वही बात कहें जो आपके ज्ञान और तजुर्बे में सच हो और सबके लिए कल्याणकारी हो क्योंकि यही सच्चे दीन धर्म की बात है।
जो लोग अपने आकाओं के हुक्म पर ग़ुन्डई करते हैं और लोगों को सच्ची और कल्याकारी बात कहने से रोकते हैं, वे भी बार बार आपकी बात सुनेंगे तो उनमें भी जागरूकता आती चली जाएगी कि उनके आक़ा उन्हें कैसे अपना मानसिक दास बनाए हुए हैं?
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