मैंने नरेश शर्मा जी की पोस्ट पर राजेश शर्मा जी का कमेंट पढ़ा। मैंने उन्हें जवाब में गीता का सहज योग समझाया। यह डायलाग आपके लिए फायदेमंद है। इसलिए मैं नरेश शर्मा जी की पोस्ट और दोनों कमेंट यहां पेश कर रहा हूँ।
Rajesh Sharma ji, 'मैं' एक दिव्य नाम है। इसके साथ जो भी गुण लगा दो और उसे रिपीट करके बोलते रहो तो वह एक समय बाद सूक्ष्म भाव जगत से स्थूल होकर जीवन में सहज साकार हो जाता है। यही सहज योग है।
Rajesh Sharma ji, 'मैं' एक दिव्य नाम है। इसके साथ जो भी गुण लगा दो और उसे रिपीट करके बोलते रहो तो वह एक समय बाद सूक्ष्म भाव जगत से स्थूल होकर जीवन में सहज साकार हो जाता है। यही सहज योग है।
गीता के दसवें अध्याय में श्री कृष्ण जी ने ख़ुद को पीपल, कुबेर और राजा आदि के रूप में पहचानने का उपदेश दिया है ताकि आपके जीवन में महानता और ऐश्वर्य आए।
लेकिन अज्ञानियों ने 'मैं' नाम के साथ वैसे ही खेल किया जैसे अज्ञानवश पांच भारतीय फ़ौजियों ने अपने ही हेलीकॉप्टर को गिरा लिया था और अब दोषी पाकर दण्ड पा रहे हैं।
मैं चौकीदार हूँ, एक दो बार कहने में कोई हरज नहीं है लेकिन इस वाक्य का रिपीटेशन चौकीदार ही बना देगा।
सारे मंत्र इसी मानसिक नियम के अनुसार फल देते हैं।
इसीलिए अपने मन में हर समय अपराध बोध लिए घूमना ठीक नहीं है क्योंकि 'मैं पापी हूँ' का विश्वास उसके जीवन में दण्ड के हालात लाता रहता है।
उसी के लिए संयम, पवित्राचरण और प्रायश्चित है ताकि मन निर्मल रहे और वह अंदर के सूक्ष्म भाव बाहर स्थूल होकर प्रकट हों तो जीवन में पवित्रता आए।
छल कपट करके कोई भी दूसरों को नहीं ख़ुद को धोखा देता है। मलिन आत्मा और अपराध बोध उसके अंदर से आनंद को ख़त्म कर देता और मरकर तो वह दुख पाता ही रहेगा।
आदमी अपनी आत्मा को कहां छोड़कर भागेगा?
बहरहाल 'हम पापी हैं' यह हमारी सामूहिक धारणा है। इसे भी बदलने की ज़रूरत है।
हमारा भौतिक जीवन हमारी मानसिक धारणाओं का प्रतिबिंब मात्र है।
'मैं प्रेम हूँ।'
'मैं शुद्ध हूँ।'
'मैं शांत हूँ।'
'मैं rich हूँ।'
'मैं सफल हूँ।'
'मैं शुक्रगुज़ार हूँ।'
'मैं शुक्रगुज़ार हूँ।'
ये अच्छे विश्वास हैं। इन्हें नियमित दोहराने की ज़रूरत है। आज मन के नियमों को समझने की बहुत ज़रूरत है।
Masood Ali Khan इन नियमों को सिखाते हैं।
No comments:
Post a Comment