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Wednesday, October 3, 2018

आर्य समाजी नहीं जानते कि वे किस किस तरह इस्लाम को फ़ायदा पहुँचाते आ रहे हैं?

सकारात्मक और रचनात्मक बनें
सवाल: स्वामी दयानन्द जी और आर्य समाज के साहित्य में  इस्लाम के बारे में जो नफ़रत का ज़हर मिलता है, उसके नुक़सान से मुस्लिम दाई कैसे बचें?

जवाब: आप हिकमत (wisdom) से काम लें तो आप आर्य समाज के साहित्य के नुक़सान को बहुत कम कर सकते हैं और आप ज़्यादा हिक्मत से काम लेकर उस नुक़सान को फ़ायदे में भी बदल सकते हैं। कोई चीज़ ऐसी नहीं है, जिसमें फ़लाह और कल्याण का कोई पहलू न हो।
एक अख़बार में मैंने कुछ साल पहले एक सच्चा वाक़या पढ़ा था। मुरादाबाद सम्भल रोड पर एक किसान ने गुलाब की खेती शुरू की तो उसके खेत में ज़हरीले साँप आ जाते थे। उसने उन्हें मार कर फेंकने के बजाय उन्हें पकड़ कर पालना शुरू कर दिया। एक एक करके उसके पास तक़रीबन 300 ज़हरीले साँप जमा हो गए। उसने क़ायदे से 'साँप पालन' शुरू कर दिया। उसने साँप के ज़हर का सैम्पल अमेरिका भेजा। वहाँ की लैब साँप के ज़हर से दवा बनाती है। 300 डालर प्रति 10 मिली. के भाव से दवा कम्पनियाँ ज़हर खरीदती हैं। भारत में बंगाल में कई snake farm हैं। उसका सैम्पल पास हो गया। वह पकड़े गए ज़हरीले साँपों का ज़हर बेचकर डालर कमाने लगा।
यह सब अपने नज़रिए को बदलने और किसी भी चीज़ में अपनी फ़लाह का पहलू तलाश करने की मानसिकता के साथ ही मुमकिन है। आर्य समाजी तो फिर भी इंसान ही हैं। हम आर्य समाजी के रवैये को सीधे तौर पर नहीं बदल सकते तो हम उनके बारे में अपने नज़रिए और पालिसी को तो ज़रूर ही बदल सकते हैं और याद रखें कि अगर हम बदल गए तो उनमें भी बदलाव शुरू हो जाएगा।
वेद, उपनिषद, पुराण और वैदिक ऋषियों का इतिहास जानने वाले सनातनी विद्वानों के अनुसार वेदों में बहुदेववाद है। वे वेदों में इतिहास भी बताते हैं। वे उसमें अश्वमेध यज्ञ का ऐसा तरीक़ा बताते हैं, जिसे शायद अब कोई कर न पाए। यहाँ हमारा  मक़सद उन सब कमियों को गिनाना नहीं है। ऐसी बहुत सी परमपराएं थीं, जिन्हें तब मुस्लिम और अंग्रेज़ कुरीति कहते थे और अब भारतीय क़ानून जुर्म कहता है और सज़ा देता है।
ऐसे कारणों से लोग इस्लाम और ईसाइयत की तरफ़ जा रहे थे। स्वामी  दयानंद जी उन्हें वर्णाश्रम धर्म में बाक़ी रखना चाहते थे। वे भी सनातनी पंडितों की तरह वर्णााश्रम धर्म को ही सत्य और कल्याणकारी मानते थे। आम लोग अपने बड़़े और पढ़े लिखे लोगों को फ़ोलो करते हैं। समाज के बड़े और पढ़े लिखे लोग अपना हित देखकर हाकिम को फ़ोलो करते हैं। यह संस्कृतिकरण (culturization) कहलाता है। संस्कृतिकरण हमेशा ऊपर से नीचे की तरफ़ चलता है। तब भारत में हाकिम मुस्लिम और अंग्रेज़ थे, जो ऊपर थे और बाक़ी सब नीचे थे। संस्कृतिकरण तब भी चल रहा था। इससे समाज में बदलाव आ रहा था। 
स्वामी दयानन्द जी इन बदलावों के प्रति जागरूक थे। वह मुस्लिमों में एकेश्वरवाद और अंग्रेज़ों में नारी शिक्षा जैसे गुणों को देख रहे थे। भारतीय समाज ऐकेश्वरवाद और नारी शिक्षा जैसे गुणों को अपना चुका था। लोगों को उनमें अपना कल्याण नज़र आ चुका था। उन्हें इन अच्छाईयों से रोका नहीं जा सकता था। अगर उन गुणों को वैदिक धर्म में क़ुबूल कर लिया जाए तो लोगों को वैदिक धर्म छोड़ने से रोका जा सकता था। यही सोच कर स्वामी दयानन्द जी ने वेदमंत्रों का एकेश्वरवादी अनुवाद, बुतपरस्ती का खंडन और नारी शिक्षा का महिमा मंडन कर दिया। यह सब इस्लाम के पक्ष में जाता है क्योंकि इस्लाम को समझने में बहुदेववाद, मूर्ति पूजा और जहालत बहुत बड़ी रूकावट थी। उन्हें स्वामी जी ने दूर करने में मदद की। जिन जगहों पर और जिन लोगों के सामने मुस्लिम विद्वान मूर्ति पूजा का खंडन नहीं कर सकते थे, वहाँ स्वामी जी ने यह काम कर दिया। उन्होंने मूर्ति पूजा को बेकार और बेअसर साबित कर दिया। उन्होंने यह बहुत बड़ा काम किया है और सचमुच यह बहुत साहस और वीरता का काम है।
स्वामी दयानन्द जी ने नानक साहिब, कबीर दास और अन्य मतों के साथ अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश में इस्लाम और क़ुरआन पर भी भौंडे ऐतराज़ किए और मज़ाक़ भी उड़ाई। इससे सब समुदायों के बीच सद्भाव और एकता को कुछ नुक़सान हुआ और इसका थोड़ा लाभ आर्य समाज और अंग्रेज़ों को ज़रूर मिला लेकिन इसका सबसे बड़ा नुक़सान ख़ुद आर्य समाज को ही मिला। अपने इस भौंडेपन की वजह से वह सबसे अलग थलग पड़ गया। लोगों ने आर्य समाजियों की बात सुननी बन्द कर दी। यहाँ तक कि ख़ुद उनके बीवी बच्चे उन्हीं के घर में उनकी बात नहीं मानते। आर्य समाज मंदिर शहरों में वीरान पड़े रहते हैं और गाँवों में सनातनियों के मुक़ाबले आर्य समाज मंदिर हैं ही नहीं। जबकि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। इस तरह आप आर्य समाज को भारत की आत्मा से कटा हुआ साफ़ देख सकते हैं।
मुस्लिम विद्वानों ने आर्य समाज के इस्लाम विरोध पर इतना ज़्यादा फ़ोकस कर लिया है कि वे उन फ़ायदों को नहीं देख पाए, जो इस्लाम को आर्य समाजी प्रचारकों से लगातार पहुंच रहे हैं।
मैं आर्य समाजियों का शुक्रगुज़ार हूँ क्योंकि
उन्होंने इस्लाम का निगेटिव प्रचार करके लोगों में इस्लाम को जानने की उत्सुकता पैदा की।
इसका नतीजा यह हुआ कि आम लोग इस्लाम और क़ुरआन के बारे में सवाल करने लगे। इससे समाज में #dawah_work की डिमांड पैदा हुई।
डिमांड एंड सप्लाई के नियम के मुताबिक़ इस डिमांड को पूरा करने के लिए भारत में इतनी ज़्यादा तादाद में मुबल्लिग़ पैदा हुए, जो पहले न थे।
उसके बाद आर्य समाजियों की राह हिंदुत्ववादी भी चले। ये लोग अख़बार, टीवी और इन्टरनेट पर इस्लाम के विषय में सवाल करते रहते हैं और मुस्लिम इन्हें जवाब देते रहते हैं। आजकल हर तरफ़ इस्लाम पर बात हो रही है। सबके फ़ोकस में इस्लाम है।
सृष्टि का नियम है:
Energy flows where attention goes.
जहाँ आप ध्यान देते हैं, वहाँ आप ऊर्जा देते हैं।
इसीलिए Universal Laws के ज्ञानी सिखाते हैं:
Resist Persist.
आप जिसका विरोध करते हैं, उसका वुजूद बनाए रखते हैं।
आजकल पूरे देशवासियों की 'ध्यान ऊर्जा' इस्लाम को मिल रही है। इससे इस्लाम और ज़्यादा शक्तिशाली हो रहा है।
आर्य समाजी इस बात को नहीं जानते। मुस्लिम भी यह नहीं जानते। मुस्लिम विद्वानों ने आर्य समाज के इस्लाम विरोध पर इतना ज़्यादा फ़ोकस कर लिया है कि वे उन फ़ायदों को नहीं देख पाए, जो इस्लाम को आर्य समाजी प्रचारकों से लगातार पहुंच रहे हैं।
स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 1 में ईश्वर के नाम राहु, केतु, चाँद, सूरज, जल, वायु, पृथिवी, आकाश, दादा, परदादा और भाई बताए। फिर जैसे तैसे वेद के मंत्रों का
एकेश्वरवादी अनुवाद तो कर दिया लेकिन इससे सच्चे वेदार्थ पर पर्दा भी पड़ गया। स्वामी जी ने पुराणों को मानने से इन्कार कर दिया क्योंकि पुराणों को मानने से उनका वेदार्थ झूठा सिद्ध होता है। जिन राजाओं और ऋषियों का इतिहास वेदों में सूक्ष्म रूप में है, पुराणों में वही विस्तार से है। पुराणों में पुराना इतिहास है। जिसे जाने बिना सच्चा वेदार्थ जानना मुमकिन नहीं है। सच्चे वेदार्थ को छिपाने के लिए स्वामी जी ने वेदों में भी इतिहास मानने से इन्कार कर दिया। स्वामी जी की जीवनी में लिखा है कि उन्होंने देश विदेश के विद्वानों के पास अपना वेदार्थ भेजा। किसी ने भी उनके वेदार्थ को स्वीकार न किया।

दूसरे धर्मों के ग्रंथों के बारे में भी लोगों को कनफ़्यूज़ करने के लिए स्वामी जी ने उनकी मूल भाषा जाने बिना ही ताबड़तोड़ ऐतराज़ कर दिए। उनके सवाल या ऐतराज़ के पीछे मक़सद सच जानना नहीं था बल्कि सच पर पर्दा डालना और वर्ण व्यवस्था को जमाना था। वर्ण व्यवस्था जमी नहीं क्योंकि ईश्वर अल्लाह ने समाज को वर्ण व्यवस्था की शिक्षा नहीं दी। आर्य समाज की स्थापना के बाद मूल निवासियों के कारण ऊंच-नीच और छूतछात क़ानूनी अपराध ठहर गए। विवाह भी संस्कार के बजाय मुस्लिम निकाह की तरह एक क़रार बन गया।

अपने धर्म के अनुसार गुरूकुल में वेद सीखना, 2 समय हवन करना, 4 आश्रम और 16 संस्कार का पालन करना आर्य समाजियों में बाप या बेटे के, किसी के बस में नहीं है। सो ये  सब बेरोज़गार हो गए हैं कि अब क्या करें?
अब ये इस्लाम को या किसी दूसरे मत को फैलते हुए देखते हैं तो ये क्रोध और कुंठा से भर जाते हैं। जहां भी लोग सीख रहे हैं और मुस्लिम या दूसरे लोग जीवन के नियम सिखा रहे हैं, ये वहां पहुंच कर उनके मत के बारे में या अल्लाह, नबी और क़ुरआन के बारे में बद-तमीज़ियाँ करना शुरू कर देते हैं। जो लोग सीखने वालों को छोड़कर इन्हें जवाब देने लगते हैं, उनका ध्यान अपने मक़सद (goal) से हट जाता है। इनकी चाल से बचना ज़रूरी है। रब के फ़रमान के मुताबिक़  ये ख़ुद नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की दुश्मनी में उनकी शाने मुबारक में बद्तमीज़ी करने की सज़ा पा रहे हैं लेकिन आर्य समाजी उस पर ध्यान नहीं देते। इस तरह ये जिस पवित्र क़ुरआन को झुठला रहे हैं, स्वामी दयानन्द जी और आर्य समाजी ख़ुद उसकी सच्चाई का सुबूत बन गए हैं।
रब का फ़रमान है:
 إِنَّ شَانِئَكَ هُوَ الْأَبْتَرُ ﴿٣
निस्संदेह तुम्हारा जो वैरी है वही जड़कटा है।
पवित्र क़ुरआन 108:3
1. स्वामी दयानन्द जी की नस्ल नहीं चली क्योंकि वह सन्यासी थे।
2.   स्वामी जी का नाम  मूल शंकर था। मूूल शंकर जिस बस्ती में पैदा हुए थे, उनके अनुयायी उस जगह को तलाश करते रहे। वह जन्म स्थान भी उन्हें नहीं मिला। मूल शंकर का मूल ही नहीं मिला।
3. आर्य समाज के मन्दिरों में रोज़ सुबह शाम हवन तक नहीं होता। ऐसे में बाक़ी 4 आश्रमों और 16 संस्कारों का पालन आर्य समाजी नहीं कर पाते।
4. जो बातें आर्य समाज और इस्लाम में समान हैं, आर्य समाजी उन समान बातों पर चलते हैं क्योंकि वे स्वाभाविक और व्यवहारिक हैं। जो बातें इस्लाम के विरोध में हैं, आर्य समाजी उन पर नहीं चलते क्योंकि वे अप्राकृतिक और अव्यवहारिक हैं। आप देख सकते हैं कि आर्य समाजी अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इस्लाम पर चलते हैं।
5. इस तरह आप देख सकते हैं कि स्वामी दयानन्द जी ने इस्लाम के विरुद्ध जाकर जो शिक्षा दी, उस शिक्षा की भी जड़ कट गई। जैसे कि स्वामी जी विधवा के पुनर्विवाह का विरोध किया लेकिन आर्य समाजियों ने उनकी शिक्षा नहीं मानी और भारी आन्दोलन चलाकर सरकार से विधवा के पुनर्विवाह का क़ानून बनवाया, जो कि इस्लाम के अनुकूल है।

इस्लाम के और दूसरे धर्मों के बड़े पेशवा, जो सामाजिक सद्भाव के लिए इंसानियत के दुश्मनों को इग्नोर करने की पालिसी पर चलते हैं। वे अपना ध्यान और समय केवल सीखने वालों को देते हैं। वे फ़ालतू की बहस और डिबेट से बचते हैं।
मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी साहिब जैसे लेखकों की किताबों की ज़ुबान वगैरह को अपडेट करना भी ज़रूरी है। जिन्होंने अपनी किताबों में आर्य समाजी ऐतराज़ के बहुत तार्किक जवाब दिए हैं।
कोई एक मुस्लिम विद्वान आज भी ज़रूरी है, जो एक सकारात्मक विचारक-शोधक हो। वह लेख लिखकर और वीडियो बनाकर समाज में सद्भाव बनाए रखने की नीयत से आर्य समाजियों के ऐतराज़ के जवाब देता रहे। कुछ लोग उसकी मदद करें। इस तरह एक ही आलिम काफ़ी है, अल्हम्दुलिल्लाह!
हर दाई मुबल्लिग़ उसी आलिम की तरफ़ हरेक बेरोज़गार आर्य समाजी को भेज दे, ख़ुद उनसे बात न करे। ख़ुद रचनात्मक लोगों से सकारात्मक बात करे।
इन्हें इस्लाम का निगेटिव प्रचार करना है, सो ये करते रहेंगे लेकिन हम इनके बदले में किसी हिन्दू ग्रंथ या हिन्दू महापुरुष को बुरा नहीं कहेंगे क्योंकि हम उनकी अच्छी बातों को सम्मान सहित मानते हैं।
हिन्दू भाई जिस शख़्सियत को जल‌ प्रलय वाला महर्षि मनु बताते हैं, हम उन्हें नबी नूह मानते हैं। हम उन पर ईमान रखते हैं।
आर्य समाजियों की बदतमीज़ी के जवाब में उनसे बात करते  हुए स्वामी दयानन्द जी को बुरा न कहें। बुराई का बदला बुराई से न दें, भलाई से दें। स्वामी जी ने जो अच्छी बातें कही हैं और अच्छे काम किए हैं, उनकी तारीफ़ भी करें। जैसे कि स्वामी जी मनुष्य का गुण और कर्त्तव्य बताते हुए एक बहुत अच्छी बात लिखते हैं:
'और जो बलवान होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानि मात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है।'
-सत्यार्थप्रकाश भूमिका पेज नं. 3

आप आर्य समाजियों के जन सेवा जैसे अच्छे कामों में उनका साथ दें क्योंकि ऐसा करके वे इस्लाम पर अमल कर रहे हैं। जब वे इस्लाम पर चलें तो आप उनका साथ दें। आर्य समाज में अच्छे और सभ्य लोग भी हैं। इसलिए कुछ लोगों के बुरे बर्ताव से सब आर्य समाजियों के बारे में कोई बुरी राय न बनाएं। आर्य समाजी परोपकार के कुछ काम भी करते हैं। कुछ अच्छे आर्य समाजी हमारे मित्र हैं। 
इस्लाम के बारे में निगेटिव प्रचार करने वाले आर्य समाजी लोगों के मन में सवाल डालकर आपकी तरफ़ भेज रहे हैं। आप जवाब में उन्हें ईमान‌ और सम्मान की शिक्षा देते रहें। उनकी नफ़रत और आपकी मुहब्बत देखकर लोग आपकी बात मानेंगे। इस पालिसी से आप आर्य समाजी प्रचारकों को एक अच्छे सप्लायर के रूप में देख सकते हैं। वे एक हिन्दू बहन भाई को मूर्ति पूजा, नशा, सामाजिक कुरीतियों और अपराध से दूर रहने के लिए सहमत कर ही लेते हैं। ऐसा करके वे आपका कुछ काम हल्का ही करते हैं।अब आपके लिए सिर्फ़ इस्लाम के संबंध में ज्ञानपूर्ण उत्तर से और अच्छे व्यवहार से उनका भ्रम दूर करने का काम बाक़ी बचता है।

मनौवैज्ञानिक सत्य:
याद रखें कि लोग सिर्फ़ मज़बूत दलील देखकर ही किसी सत्य को नहीं मान लेते। वे उसमें अपनी दुनियावी फ़लाह के फ़ैक्टर को भी देखते हैं। सत्य के उपदेश के साथ मुहब्बत का बर्ताव किया जाए और लोगों का भला किया जाए, तभी वे उपदेशक की बात को क़ुबूल करते हैं और उस पर चलते हैं। आप जिसे भी इस्लाम की कोई शिक्षा दें तो आप उसे यह ज़रूर बताएं कि उस शिक्षा से दुनिया में और दुनिया से जाने के बाद उसे क्या फ़ायदा होगा और किस नुक़सान से उसका बचाव होगा।

हमने ये कुछ बातें आपके सामने रखी हैं। आप ख़ुद समझदार हैं। आप जितनी ज़्यादा हिकमत से काम लेंगे, आप स्वामी दयानन्द जी के आर्य समाजियों से उतना ज़्यादा लाभ उठा सकते हैं। जब आर्य समाजी ख़ुद को आपका बिना सैलरी का सेवक पाएंगे और अपने निगेटिव प्रचार का पाज़िटिव लाभ आपको मिलता देखेंगे तो वे भी अपना नज़रिया और पालिसी बदलने पर विचार ज़रूर करेंगे। आप बदलेंगे तो उन्हें भी बदलना पड़ेगा। ख़ुद को बदलना हमारा अपना फ़ैसला है और अपना काम है। ख़ुद को बदलने का फ़ायदा हमारे साथ सारे समाज को मिलेगा।
यह पोस्ट समाज में शाँति और सद्भाव के लिए प्रेम और सभ्यता के साथ लिखी गई है। असभ्य लोग केवल सभ्यतापूर्वक कमेंट करें। नज़रिए के फ़र्क़ की वजह से ग़ुस्सा और बदतमीज़ी करना जायज़ नहीं है।

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