कुछ सालों से मुस्लिम भाई बहनों में एक बहुत ग़लत अक़ीदे का प्रचार किया जा रहा है और वह यह है कि वेद अल्लाह का पहला कलाम है या पहली ईशवाणी है।
यह झूठी बात बिना क़ुरआनी दलील के बहुत बड़े बड़े आलिमों ने दावते दीन के हलक़ों में इतनी आम कर दी है कि जब मैं इस अक़ीदे के मुबल्लिग़ों से दलील माँगता हूँ तो उन्हें ताज्जुब होता है कि मैं उनसे दलील क्यों माँग रहा हूँ। मैं उनकी बात बिना दलील के मान क्यों नहीं लेता?
गोया वेद के कलामे इलाही होने को वे दिल की इतनी गहराई से क़ुबूल कर चुके हैं कि उन्हें इस बात का ख़याल ही नहीं आता कि इस बात को क़ुबूल करने के लिए किसी मज़बूत दलील की ज़रूरत है। जिससे साबित हो सके कि वेद ऋषियों का रचा हुआ काव्य नहीं बल्कि रब का उतारा हुआ कलाम है।
आम तौर से किसी मशहूर मुबल्लिग़े दीन के ज़रिए मुस्लिम नौजवानों के ज़हन में 3 दिन के तब्लीग़ी तरबियती कैंप में यह अक़ीदा बिठा दिया जाता है कि वेद पहला कलामे इलाही है और वे नौजवान यह सोचकर यह बात मान लेते हैं कि इतना बड़ा मुबल्लिग़े इस्लाम झूठ थोड़े ही बोल रहा होगा। उन नौजवानों में से किसी ने वेद पढ़ा नहीं होता। वेद से पूरी तरह जाहिल मुस्लिम बड़ी और मशहूर शख़्सियत के रौब में दबकर एक ऐसी बात को तस्लीम कर लेते हैं, जिसका दावा ख़ुद वेद नहीं करते और न ही वे अपने अंदर कलामे इलाही होने की वे बुनियादी सिफ़तें रखते हैं, जोकि तहरीफ़शुदा कलामे इलाही तक में होती हैं। जिनसे अल्लाह का कोई कलाम या उसकी कोई किताब ख़ाली नहीं है।
किसी किताब को कलामे इलाही मानने के लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले उस किताब का नाम क़ुरआन या हदीस में हो। उसके बाद उस किताब में कलामे इलाही की बुनियादी सिफ़तें मिलना ज़रूरी हैं।
जो किताब अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल होती है, उसमें तहरीफ़ होने के बाद भी कुछ ऐसी बातें ज़रूर बाक़ी रहती हैं, जिनसे अल्लाह के कलाम की माअरिफ़त रखने वाले बन्दे उसे पहचान लेते हैं कि यह कलाम हमारे रब की तरफ़ से उतरा है, जैसे कि
1. उस किताब में अल्लाह के सिफ़ाती नामों के साथ उसका कोई एक नाम सिर्फ़ उसी की ज़ात के परिचय के लिए इस्तेमाल होता है और वह नाम किसी इंसान या किसी दूसरी चीज़ के लिए इस्तेमाल नहीं होता जैसे कि क़ुरआन में अल्लाह और इंजील में एली।
एक आदमी कह सकता है कि अल्लाह नाम भी एक सिफ़ाती नाम है। हम कहते हैं कि आप हमारे लिखे हुए को एक बार फिर पढ़िए। हमने यह नहीं लिखा है कि कोई सिफ़ाती नाम अल्लाह का ज़ाती नाम नहीं हो सकता बल्कि हमने यह लिखा है कि कलामे इलाही या किताबुल्लाह में कोई एक नाम सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात के लिए इस्तेमाल किया जाता है और उस किताब में वह नाम किसी मख़्लूक़ के लिए इस्तेमाल नहीं होता।
2. उस किताब में अल्लाह की तौहीद के बारे में मोहकम यानि ऐसी खुली हुई कुछ आयतें होती हैं, जिनमें कोई तशबीह और अलंकार नहीं होता। उन आयतों से तौहीद बिल्कुल साफ़ साबित होती है। उन आयतों के अर्थ तौहीद के ख़िलाफ़ नहीं बनाए जा सकते।
3. तीसरी सबसे अहम बात यह होती है कि उस किताब में अल्लाह के इलाह, हाकिम और रब होने का बयान करते हुए उससे डराया जाता है और उसी की इबादत और फ़रमाँबरदारी करने का हुक्म बिल्कुल साफ़ साफ़ दिया जाता है।
अब अगर किसी किताब का नाम ही क़ुरआने करीम में या हदीसे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में न मिले या सिर्फ़ नाम से मिलता जुलता कुछ मिले और उस किताब में न अल्लाह की ज़ात के लिए कोई मख़्सूस नाम हो, न उसकी तौहीद की मोहकम आयतें हों और न ही उसमें अल्लाह से डराते हुए उसकी इबादत और फ़रमाँबरदारी का हुक्म दिया गया हो तो फिर वह किताब अल्लाह का कलाम और ईशवाणी नहीं होती।
वेद ऐसी ही किताबें हैं, जिनका नाम न क़ुरआने करीम में है और न हदीसे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम में है। वेदों में न अल्लाह की ज़ात के लिए कोई मख़्सूस नाम है, जो किसी मख़्लूक़ के लिए इस्तेमाल न होता हो और न वेदों में उसकी तौहीद की मोहकम आयतें हैं और न ही उनमें अल्लाह से डराते हुए उसकी इबादत और फ़रमाँबरदारी का हुक्म दिया गया है।
फिर वेद अल्लाह का कलाम कैसे हैं और जब इनमें अल्लाह का नाम और उसकी तौहीद की मोहकम आयतें तक नहीं हैं तो अल्लाह ने इसके लगभग बीस हज़ार मन्त्रों में लोगों को क्या बताया है?
मैं मुबल्लिग़ भाईयों की ग़लती कम मानता हूँ क्योंकि मैं ख़ुद भी पहले उनकी तरह दूसरों की तहक़ीक़ पर भरोसा करके यह बात कह देता था लेकिन जब मैंने ख़ुद तहक़ीक़ की तो यह अक़ीदा बातिल साबित हुआ।
मैंने 30 साल तक चारों वेद, उपनिषद, गीता, बाईबिल, और क़ुरआन पढ़ा है और बार बार पढ़ा है।
जिस बात को मैंने ख़ुद मुश्किल से समझा है। उसे यहाँ आसान करके समझाया है।
जो मुस्लिम मुबल्लिग़ अब भी वेद को कलामे इलाही या ईशवाणी मानता हो और कोई मज़बूत दलील दे सकता हो तो वह आकर इस ब्लाग पर कमेंट करे और मुझसे डायलॉग करे।
मैं उसका शुक्रगुज़ार रहूंगा।
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